(पं० जगन्नाथ से छपरा में शास्त्रार्थमई, १८७३)
स्वामी जी छपरा पधारे तो जनता को उनके शुभ आगमन की सूचना
देने व अवैदिक पाखण्डों पर उनके समर्थकों को शास्त्रार्थ के लिए आहूत
करने के लिये नगर में विज्ञापन वितरण किया गया । छपरा में यदि कोई
पं० स्वामी जी से शास्त्रार्थ कर सकता था तो पं० जगन्नाथ थे । पौराणिक
वर्ग उन्हीं के पास गये, और उनसे जाकर प्रार्थना की कि महाराज चलिये
और नास्तिक दयानन्द से धर्म की रक्षा कीजिये । परन्तु पण्डित जी शास्त्रार्थ
के नाम से कानों पर हाथ धर गये । उन्होंने कहा कि शास्त्रार्थ करने से मुझे
नास्तिक का मुख देखना पड़ेगा जिसका शास्त्रों में निषेध है और मैंने ऐसा
किया भी तो मुझे कठोर प्रायश्चित्त करना पड़ेगा ।
पण्डित जी के यह वचन सुनकर पौराणिक धर्म के पृष्ठपोषकों की
आशाओं पर पाला पड़ गया । और वे तेजोहीन और हताश होकर वापस चले
आये । महाराज ने जब यह सुना तो उन्हाेंने पण्डित जगन्नाथ को इस उलझन
से निकालने का एक विलक्षण परन्तु सरल उपाय बताया । उन्होंने कहा कि
यदि पण्डित महोदय मेरा मुख नहीं देखना चाहते हैं तो मेरे सामने एक पर्दा
डाल दिया जाय और वे उसकी ओट में शास्त्रार्थ कर लें परन्तु शास्त्रार्थ
करें तो सही ।
अब तो पण्डित जी भी निरुपाय हो गये । जो प्रधान आक्षेप उन्हें था
वह भी न रहा और उन्हें शास्त्रार्थ के लिये क्षेत्र में आना ही पड़ा । वह सभास्थल
में दलबल सहित पधारे । महाराज के मुख के सामने वास्तव में पर्दा डाला
गया । एक ओर महाराज बैठे और दूसरी ओर पण्डित जगन्नाथ आसन पर
सुशोभित हुए और विचित्र और मनोरंजक ढंग से शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ ।
प्रथम स्वामी जी ने पण्डित जी से कुछ प्रश्न स्मृतियों में से किये,
जिनका उत्तर पण्डित जी ने दिया तो सही, परन्तु उनकी संस्कृत व्याकरण
की अशुद्धियों से भरी हुई थी और उनका उत्तर भी स्मृतियों के कथनानुसार
न था । स्वामी जी ने उनकी अशुद्धियों का भरी सभा में वर्णन किया और
उनके उत्तर की पोल खोली । स्वामी जी के बेरोक—टोक, स्पष्ट, सुगम और
ललित संस्कृत में भाषण और पण्डित जी के उत्तर की भाषा और भाव की
अशुद्धियों और दोषों के स्पष्टीकरण से पण्डित जी के मुंह पर मुहर लग
गई और उन्होंने हूं हां तक न की । पण्डित जी की इस दशा व दुर्दशा को
देखकर जनता को विश्वास हो गया कि पण्डित जगन्नाथ पाण्डित्य में शून्य
हैं और उनका पक्ष भी निर्बल और वेद के प्रतिकूल है । (लेखराम पृ० २२७)