(मुन्शी इन्द्रमणि जी से मुरादाबाद में शास्त्रार्थजौलाई, १८७९)
मुरादाबाद में समाज की स्थापना से पूर्व कई दिन तक मुन्शी इन्द्रमणि
और श्री स्वामी जी महाराज का परस्पर इस विषय में शास्त्रार्थ हुआ कि समाजों
में प्रणाम के स्थान पर क्या शब्द नियत किया जावे। श्री स्वामी जी कहते
थे कि नमस्ते’’ कहना चाहिये । मुन्शी इन्द्रमणि ने कहा कि हम ने प्रथम
जयगोपाल और तत्पश्चात् परमात्मा जयते’’ प्रचलित किया, इस पर लोगों
ने बहुत आक्षेप किये और हँसी उड़ाई । अब सब मामला ठण्डा हो गया है।
अब नमस्ते प्रचलित की जावेगी तो फिर लोग धुन्द मचावेंगे और इस के
अतिरिक्त परमेश्वर का नाम जिस शब्द में आवे उसे कहना चाहिये । नमस्ते’’
कहने में यह बुराई है कि जो राजा से नमस्ते किया जावे तो क्या राजा भी
एक तुच्छ कोली चमार से नमस्ते कहेगा ? स्वामी जी महाराज ने कहा कि
मुन्शी जी ! बड़ा किस को कहते हैं ? जिस मनुष्य ने यह गर्व किया कि
मैं बड़ा हूं अर्थात् राजा या विद्वान् या शूरवीर हूं तो उस में अभिमान आ
गया और उस की बड़ाई में दोष लग गया । देखो जितने महाराजाधिराज,
शूरवीर और विद्वान् हुए हैं उन्होंने अपने मुख से अपने आप को बड़ा कभी
नहीं कहा। नमस्ते का अर्थ मान और सत्कार का है जिस से राजा—प्रजा दोनों
को परस्पर नमस्ते कहना ठीक है । अब हम तुम से यह पूछते हैं, तुम अपने
अन्तःकरण से सत्य कह देना कि जब कोई व्यक्ति तुम्हारे घर पर आता है
या तुम को मिलता है तो उसे देखकर तुम्हारे मन में क्या विचार आता है?
मुन्शी जी मौन रहे । तब स्वामी जी कहने लगे कि कौन नहीं जानता
कि सम्मानित पुरुष को देखकर उस का सम्मान और छोटे व्यक्ति को देखकर
उस का आतिथ्य तुरन्त करने का ध्यान आता है । फिर बतलाइये कि ऐसे
अवसर पर परमेश्वर के नाम का क्या सम्बन्ध है ? मनुष्य को चाहिये जो
मन में हो वही मुख से कहे और यह आप का दोष है कि आपने पहले
जयगोपाल’’ और फिर परमात्मा जयते’’ प्रचलित किया । विचार करके
ऐसा शब्द जो पहले इस देशवासियों में प्रचलित था, प्रचलित क्यों न किया।
इस से सब आर्यसमाजों में नमस्ते’’ का उच्चारण करना ठीक है, जैसा कि
सब दिन से महर्षि लोगों में प्रचार था । और नमस्ते शब्द वेदों में भी आया
है । हम यजुर्वेद से बहुत से प्रमाण दे सकते हैं । आप परमात्मा जयते’’
का किसी प्राचीन ग्रन्थ से प्रमाण नहीं दे सकते । फिर उसी दिन दोपहर के
पश्चात् बहुत से प्रमाण आर्ष ग्रन्थों और वेदों से निकालकर दिखलाये परन्तु
मुन्शी जी ने अपने दुराग्रह और हठधर्मी से न माना ।
(लेखराम पृष्ठ ४४३—४४५)