(धर्मसभा से फर्रुखाबाद में प्रश्नोत्तरअक्तूबर, १८७८)

दयानन्द सरस्वती के पास यह प्रश्न धर्मसभा फर्रुखाबाद की ओर से

भेजे जाते हैं कि आप्त ग्रन्थों के प्रमाण से इन प्रश्नों का उत्तर पत्र द्वारा

धर्मसभा के पास भेज दें । और यह भी विदित रहे कि धर्मसभा के सभासदों

ने यह संकल्प  कर लिया है कि यदि आप इन प्रश्नों के उत्तर पत्र द्वारा प्रमाण

सहित न देवेंगे तो यह समझा जावेगा कि आपने अपना मत आधुनिक मान

लिया । और एक प्रति इन प्रश्नों की आपकी मतानुयायी सभाओं में और

अमरीका के सज्जनों के पास भेजी जावेगी और देशी और अंग्रेजी पत्रों में

मुद्रित की जायेगी । इन प्रश्नों पर चौदह व्यक्तियों ने हस्ताक्षर किये थे कि

जिनके नाम भारत सुदशाप्रवर्तक’’ पत्रिका में लिखे हैं ।

विज्ञापन का उत्तर

जो आप लोगों को शास्त्र प्रमाण सहित उत्तर अपेक्षित था तो इतने पण्डितों

में से कोई एक भी तो कुछ पण्डिताई दिखलाता । आप के तो प्रश्न सब

के सब अण्डबण्ड शास्त्रविरुद्ध यहां तक कि भाषारीति से भी शुद्ध नहीं हैं।

ऐसों का उत्तर प्रमाणसहित मांगना मानो गाजरों की तुला देकर तुरन्त विमान

की मार्ग—परीक्षा करना है । शास्त्रोक्त उत्तर शास्त्रज्ञों को ही मिलते हैं क्योंकि

वे इन वचनों को समझ सकते हैं । तुम्हारे आगे शास्त्रोक्त वचन लिखना ऐसा

है जैसा कि गंवार मनुष्यों के आगे रत्नों की थ्ौलियां खोल देनी। वास्तव

में तुम्हारा एक भी प्रश्न उत्तर देने के योग्य न था तथापि हमने ट्टट्टतुष्यतु दुर्जनः’’

इस न्याय से सब का उत्तर शास्त्रोक्त प्रमाण सहित दिया है । समझा जाये

तो समझ लो ।

नोटउपर्युक्त २५ प्रश्न ६ अक्तूबर, सन् १८७८ को शाम के समय

पण्डितों ने स्वामी जी के पास भेजे । वास्तव में उस समय स्वामी जी को

उन प्रश्नों के सुनने तक का भी समय न था परन्तु उन लोगों के आने से

सुनते ही उसी समय उन का उत्तर देना आरम्भ किया और उन से लिख लेने

को कहा परन्तु वे न लिख सके ।

७ अक्तूबर, सन् १८७८ को बहुत से आर्य सभासदों ने शाम के समय

प्रार्थना करके उन प्रश्नों के उत्तर स्वामी जी से लिखवा लिये और स्वामी

जी के चले जाने के पश्चात् शुद्ध करके १२ अक्तूबर, सन् १८७८ को

आर्यसमाज में सुनाये, तत्पश्चात् वे उत्तर पोप लोगों के पास भेज दिये ।

फर्रुखाबाद के पण्डितों से प्रश्नोत्तर

पहला प्रश्नआप्त ग्रन्थों अर्थात् वेदादिक सत्यशास्त्रों के अनुसार

परिव्राजकों अर्थात् संन्यासियों के धर्म क्या हैं ? वेदों के अनुसार उन को

यानों अर्थात् सवारियों पर चढ़ना और धूम्र अर्थात् हुक्का आदि पीना योग्य

है या नहीं ?

उत्तरवेदादि शास्त्रों में विद्वान् होकर वेदानुकूल सत्य शास्त्रोक्त रीति

से पक्षपात, शोक, वैर, अविघा, हठ, दुराग्रह, स्वार्थसाधन, निन्दा—स्तुति, मान,

अपमान, क्रोधादि दोषों से रहित हो स्वपरीक्षापूर्वक सत्यासत्य निश्चय करके

सर्वत्र—भ्रमणपूर्वक सर्वथा सत्यग्रहण असत्य परित्याग से सब मनुष्यों की

शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति, आसन के साधन, सत्यविघा,

सनातन धर्म, स्वपुरुषार्थयुक्त करके व्यावहारिक और पारमार्थिक सुखों से

वर्तमान करके दुष्टाचरणों से पृथव्Q कर देना संन्यासियों का धर्म है । लाभ

में हर्ष, अलाभ में शोकादि से रहित होकर विमानों में बैठना और रोगादि

निवारणार्थ औषधिवत् धूम्र अर्थात् हुक्का पीकर परोपकार करने में

तत्पर तिन्हों को कुछ भी दोष नहीं । यह सब शास्त्रों में विधान है परन्तु

तुम को वर्तमान वेदादि सत्य शास्त्रों से विरुद्ध होने के कारण भ्रम है सो

इन सत्य ग्रन्थों से विमुखता न चाहिए ।

दूसरा प्रश्नयदि आपके मत में पापों की क्षमा नहीं होती तो मन्वादिक

आप्त ग्रन्थों में प्रायश्चित्त का क्या फल है ? वेदादि ग्रन्थों में परमेश्वर की

क्षमाशीलता और दयालुता का वर्णन है इस से क्या प्रयोजन है ? यदि उस

से आगन्तुक पापों की क्षमा से प्रयोजन है तो क्षमा न हुई और जब मनुष्य

स्वतन्त्र है और आगन्तुक पापों से बचा रहे तो उस में परमेश्वर की क्षमाशीलता

क्या काम आ सकती है ।

उत्तरहमारा किन्तु हम लोगों का वेद—प्रतिपादित मत के अतिरिक्त और

कोई कपोलकल्पित मत नहीं है । वेदाें में कहीं किये हुए पापों की क्षमा नहीं

लिखी, न कोई युक्ति से भी विद्वानों के सामने किए हुए पापों की क्षमा सिद्ध

कर सकता है । शोक है उन मनुष्यों पर कि जो प्रश्न करना नहीं जानते और

करने को उघत हो जाते हैं । क्या प्रायश्चित्त तुमने सुखभोग का नाम समझा है?

जैसे जेलखाने में चोरी आदि पापों के फल का भोग होता है वैसे प्रायश्चित्त भी

समझो । यहां क्षमा की कुछ भी कथा नहीं । क्या प्रायश्चित्त वहां पापों के दुःखरूप

फल का भोग है ? कदापि नहीं । परमेश्वर की क्षमा और दयालुता का यह प्रयोजन

है कि बहुत से मूढ़ मनुष्य नास्तिकता से परमात्मा का अपमान और खण्डन करते

और पुत्रादि के न होने या अकाल में मरने, अतिवृष्टि, रोग और दरिद्रता के होने

पर ईश्वर को गाली प्रदानादि भी करते हैं तथापि परब्रह्म सहन करता और कृपालुता

से रहित नहीं होता । यह भी उसके दयालु स्वभाव का प्रयोजन है । क्या कोई

न्यायाधीश कृतपापों की क्षमा करने से अन्यायकारी और पापों के आचरण का

बढ़ाने वाला नहीं होता? क्या परमेश्वर कभी अपने न्यायकारी स्वभाव से विरुद्ध

अन्याय कर सकता है ? हां जैसे न्यायाधीश विघा और सुशिक्षा करके पापियों

को पाप से पृथव्Q करके राजदण्ड प्रतिष्ठितादि करके शुद्धकर सुखी कर देता

है वैसे परमात्मा को भी जानो ।

तीसरा प्रश्नयदि आपके मत से तत्त्वादिकों के परमाणु नित्य हैं और

कारण का गुण कार्य्य में रहता है तो परमाणु जो सूक्ष्म और नित्य हैं उन

से संसारादिक स्थूल और सान्त कैसे उत्पन्न हो सकता है ?

उत्तरजो परम अवधि सूक्ष्मता की अर्थात् जिसके आगे स्थूल से सूक्ष्मता

कभी नहीं हो सकती वह परमाणु कहलाता है । जिस के प्रकृत, अव्याकृत,

अव्यक्त, कारणादि नाम भी कहलाते हैं । वे अनादि भी कहलाते हैं ।

वे अनादि होने से सत् हैं । हाय दुःख है लोगों की उलटी समझ पर जो कारण

के गुण समवाय सम्बन्ध से हैं वे कारण में नित्य हैं । जो कारण के कारणावस्था

में नित्य हैं वे कार्यावस्था में भी नित्य हैं क्या जो गुण कारणावस्था में हैं

वे कार्यावस्था में वर्तमान होकर जब कारणावस्था होती है तब भी कारण के

गुण नित्य नहीं होते और जब परमाणु मिलकर स्थूल होते हैं या पृथव्Q—पृथव्Q

होकर कारणरूप होते हैं तब भी उनके विभाग और संयोग होने का सामर्थ्य

नित्य होने से अनित्य नहीं होते । वैसे ही गुरुत्व, लघुत्व होने का सामर्थ्य

भी उनमें नित्य है क्योंकि यह गुण गुणी में समवाय सम्बन्ध से है ।

चौथा प्रश्नमनुष्य और ईश्वर में क्या सम्बन्ध है ? विघाज्ञान से मनुष्य

ईश्वर हो सकता है या नहीं ? जीवात्मा और परमात्मा में क्या सम्बन्ध है?

और जीवात्मा और परमात्मा दोनों नित्य हैं और जो दोनों चेतन हैं तो जीवात्मा

परमात्मा के आधीन है या नहीं ? यदि है तो क्यों है ?

उत्तरमनुष्य और ईश्वर का राजा—प्रजा, स्वामी—सेवकादि सम्बन्ध है।

अल्पज्ञान होने से जीव ईश्वर कभी नहीं हो सकता । जीव और परमात्मा

में व्याप्य—व्यापकादि सम्बन्ध है । जीवात्मा परमात्मा के आधीन सदा रहता

है परन्तु कर्म करने में नहीं किन्तु पाप कर्मों के फलभोग में वह ईश्वर की

व्यवस्था के आधीन रहता है तथापि दुःख भोगने में स्वतन्त्र नहीं है । चूंकि

परमेश्वर अनन्त—सामर्थ्य—युक्त है और जीव अल्प सामर्थ्य वाला है अतः उस

का परमेश्वर के आधीन होना आवश्यक है ।

पांचवाँ प्रश्नआप संसार की रचना और प्रलय को मानते हैं या नहीं?

और जब प्रथम सृष्टि हुई तो आदि सृष्टि में एक या बहुत उत्पन्न हुए? जब कि

इन में कर्मादिक की कोई विशेषता न थी तब परमेश्वर ने कुछ मनुष्यों को ही

वेदोपदेश क्यों किया? ऐसा करने से परमेश्वर पर पक्षपात का दोष आता है ।

उत्तरसंसार की रचना और प्रलय को हम मानते हैं । सृष्टि प्रवाह

से अनादि है, सादि नहीं । क्योंकि ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव अनादि

और सत्य हैं । जो ऐसा नहीं मानते उन से पूछना चाहिये कि प्रथम ईश्वर

निकम्मा और उसके गुण, कर्म, स्वभाव निकम्मे थे । जैसे परमेश्वर अनादि

है, वैसे जगत् का कारण जीव भी अनादि है क्योंकि विना किसी वस्तु के

उस से कुछ कार्य होना सम्भव नहीं । जैसे इस कल्प की सृष्टि के आदि

में बहुत स्त्री—पुरुष उत्पन्न हुए थे वैसे ही पूर्व कल्प की सृष्टि में उत्पन्न

थे और आगे की कल्पान्त सृष्टियों में भी उत्पन्न होंगे । कर्मादिक भी जीव

के अनादि हैं। चार मनुष्यों की आत्मा में वेदोपदेश करने में यह हेतु है कि

उन के सदृश या अधिक पुण्यात्मा जीव कोई भी नहीं थे । इस से परमेश्वर

में पक्षपात कुछ भी नहीं आ सकता ।

छठा प्रश्नआपके मतानुसार न्यूनाधिक कर्मानुसार फल होता है

तो मनुष्य स्वतन्त्र कैसे हैं ? परमेश्वर सर्वज्ञ है तो उस को भूत, भविष्यत्,

वर्तमान का ज्ञान है अर्थात् उस को यह ज्ञान है कि कोई पुरुष किसी समय

में कोई कर्म करेगा और परमेश्वर का यह ज्ञान असत्य नहीं होता क्योंकि

वह सत्यज्ञान वाला है अर्थात् वह पुरुष वैसा ही कर्म करेगा जैसा कि परमेश्वर

का ज्ञान है तो कर्म इस के लिए नियत हो चुका तो जीव स्वतन्त्र कैसे है?

उत्तरकर्म के फल न्यूनाधिक कभी नहीं होते क्योंकि जिस ने जैसा

और जितना कर्म किया हो उस को वैसा और उतना ही फल मिलना न्याय

कहलाता है । अधिक न्यून होने से ईश्वर में अन्याय आता है ।

हे आर्यो ! ईश्वर के ज्ञान में भूत, भविष्यत् काल का सम्बन्ध भी कभी

होता है । क्या ईश्वर का ज्ञान होकर न हो और न होकर होने वाला है। जैसे

ईश्वर को हमारे आगामी कर्म्मों के होने का ज्ञान है वैसे मनुष्य अपने स्वाभाविक

गुण, कर्म साधनों के नित्य होने से सदा स्वतन्त्र है परन्तु अनिच्छित दुःखरूप

पापों का फल भोगने के लिए ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र होते हैं । जैसा

कि राजा की व्यवस्था में चोर और डाकू पराधीन हो जाते हैं वैसे उन

पापपुण्यात्मक कर्मों के दुःख—सुख होने का ज्ञान मनुष्य को प्रथम नहीं है।

क्या परमेश्वर का ज्ञान हमारे किये हुए कर्मों से उल्टा है । जैसे वह अपने

ज्ञान में स्वतन्त्र है वैसे ही सब जीव अपने कर्म करने में स्वतन्त्र हैं ।

सातवाँ प्रश्नमोक्ष क्या पदार्थ है ?

उत्तरसब दुष्ट कर्मों से छूटकर सब शुभ कर्म करना जीवन्मुक्त और

सब दुःखों से छूटकर आनन्द से परमेश्वर में रहना, यह मुक्ति कहलाती है।

आठवाँ प्रश्नधन बढ़ाना अथवा शिल्पविघा व वैघकविघा से ऐसा

यन्त्र अर्थात् कला तथा औषधि निकालना जिस से मनुष्य को इन्द्रियजन्य सुख

प्राप्त हो अथवा पापी मनुष्य जो रोगग्रस्त हो औषध्यादि से नीरोग करना

धर्म है या अधर्म है ?

उत्तरन्याय से धन बढ़ाने, शिल्पविघा करने, परोपकार बुद्धि से यन्त्र

वा औषधि सिद्ध करने से धर्म और अन्याय करके करने से अधर्म होता

है । धर्म से आत्मा, मन, इन्द्रिय और शरीर को सुख प्राप्त हो तो धर्म और

जो अन्याय से हो तो अधर्म होता है । जो पापी मनुष्य को अधर्म से छुड़ाने

और धर्म में प्रवृत्त करने के लिए औषधि आदि से रोग छुड़ाने की इच्छा हो

तो धर्म, इससे विपरीत करने से अधर्म होता है ।

नववाँ प्रश्नतामस भोजन (मांस) खाने से पाप है या नहीं ? यदि

पाप है तो वेद और आप्त ग्रन्थों में हिंसा करना यज्ञादिकों में विहित है और

भक्षणार्थ हत्या करना क्याें लिखा है ?

उत्तरमांस खाने में पाप है। वेदों तथा आप्त ग्रन्थों में कहीं भी यज्ञादि

के लिए पशु—हिंसा करना नहीं लिखा है । गौ, अश्व, अजमेध के अर्थ वामियों

ने बिगाड़ दिये हैं । उनके सच्चे अर्थ हिंसा करना कहीं भी नहीं लिखा ।

हां जैसे डाकू आदि दुष्ट जीवों को राजा लोग मारते, बन्धन और छेदन करते

हैं वैसे ही हानिकारक पशुओं को मारना लिखा है । परन्तु मारकर उन को

खाना कहीं भी नहीं लिखा । आजकल तो वामियों ने झूठे श्लोक बनाकर

गोमांस का खाना भी बतलाया है जैसे कि मनुस्मृति में इन धूर्तों का मिलाया

हुआ लेख है कि गोमंास का पिण्ड देना चाहिये । क्या कोई पुरुष ऐसे भ्रष्ट

वचन मान सकता है ।

दशवाँ प्रश्नजीव का क्या लक्षण है ?

उत्तरइच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान यह जीव का लक्षण

न्यायशास्त्र में लिखा है ।

ग्यारहवाँ प्रश्नसूक्ष्म नेत्रों से ज्ञात होता है कि जल में अनन्त जीव

हैं तो जलपीना उचित है या नहीं ?

उत्तरक्या विघाहीन लोग अपनी मूर्खता की प्रसिद्धि अपने वचनों से

नहीं करा देते ? न जाने यह भूल संसार में कब तक रहेगी । जब पात्र और

पात्रस्थ जल अन्त वाले हों तो उन में अनन्त जीव कैसे समा सकेंगे और

छानकर या आंख से देखकर जल का पीना सब को उचित है ।

बारहवाँ प्रश्नमनुष्य के लिए बहुत स्त्री करना कहां निषेध है ? यदि

निषेध है तो धर्मशास्त्र में जो यह लिखा है कि यदि एक पुरुष के बहुत स्त्री

हों और उनमें एक के पुत्र होने से सब पुत्रवती हैं, यह क्यों लिखा ?

उत्तरमनुष्य के लिए अनेक स्त्रियों के करने का निषेध वेद में

लिखा है । संसार में प्रत्येक अच्छा नहीं होता । जो अनेक अधर्मी पुरुष कामातुर

होकर अपने विषयसुख के लिए बहुत—सी स्त्री कर लेवें तो उनमें सपत्नीभाव

(सौतन के भाव)से विरोध अवश्य होता है । जब किसी एक स्त्री के पुत्र हुआ

तो कोई विरोध से विषादिक प्रयोग से न मार डाले इसलिए यह लिखा है ।

तेरहवाँ प्रश्नआप ज्योतिष शास्त्र के फलित ग्रन्थों को मानते हैं या

नहीं ? और भृगुसंहिता आप्त ग्रन्थ है या नहीं ?

उत्तरहम ज्योतिष शास्त्र के गणित भाग को मानते हैं, फलित भाग

को नहीं । क्योंकि जितने ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थ हैं उन में फलित का

लेश भी नहीं है । जो भृगु—सिद्धान्त कि जिस में केवल गणित विघा है, उस

को हम आप्त ग्रन्थ मानते हैं, इतर को नहीं । ज्योतिष शास्त्र में भूत, भविष्यत्

काल का सुख—दुःख विदित होना कहीं नहीं लिखा । अनाप्तोक्त ग्रन्थों के

अतिरिक्त अर्थात् अप्रमाणित व्यक्तियों की लिखी हुई पुस्तकों के अतिरिक्त।

चौदहवाँ प्रश्नज्योतिष शास्त्र में आप किस सिद्धान्त को आप्तग्रन्थ

समझते हैं ?

उत्तरज्योतिष शास्त्र में जो जो वेदानुकूल ग्रन्थ हैं, उन सब को हम

आप्तग्रन्थ जानते हैं, अन्य को नहीं ।

पन्द्रहवाँ प्रश्नआप पृथिवी पर सुख, दुःख, विघा, धर्म और मनुष्य

संख्या की न्यूनता अधिकता मानते हैं या नहीं ? यदि मानते हैं तो आगे इन

की वृद्धि थी या अब है या होगी ।

उत्तरहम पृथिवी में सुखादिकों की वृद्धि किसी की व्यवस्था

सापेक्ष होने से अनियत मानते हैं, मध्यावस्था में समान जानो ।

सोलहवाँ प्रश्नधर्म का क्या लक्षण है और धर्म सनातन है

परमेश्वरकृत अथवा मनुष्यकृत ?

उत्तरजो पक्षपातरहित न्याय कि जिस में सत्य का ग्रहण और असत्य

का परित्याग हो, वह धर्म का लक्षण कहलाता है सो सनातन और ईश्वरोक्त

और वेदप्रतिपादित है, मनुष्यकल्पित कोई धर्म नहीं ।

सत्रहवाँ प्रश्नयदि मोहम्मदी या ईसाई मतानुयायी कोई आप के अनुसार

है और आपके मत में दृढ़ विश्वासी हो तो आपके मतानुयायी उस को ग्रहण

कर सकते हैं या नहीं और उस का पाक किया हुआ (पकाया) भोजन आप

और आपके मतानुयायी कर सकते हैं या नहीं ?

उत्तरविना वेदों के हमारा कोई कपोलकल्पित मत नहीं है फिर हमारे

मत के अनुसार कोई कैसे चल सकता है । क्या तुमने अन्धेर में गिरकर

खाना पीना, मलमूत्र करना, जूती, धोती, अंगरखा धारण करना, सोना, उठना,

बैठना, चलना धर्म मान रखा होगा । हाय खेद है इन कुमति पुरुषों पर कि

जिन के बाहर और भीतर की दृष्टि पर पर्दा पड़ा हुआ है जो कि जूता पहनना

या न पहनना धर्म मानते हैं । सुनो और आंख खोलकर देखो कि ये सब

अपने अपने देश—व्यवहार हैं ।

अठारहवाँ प्रश्नआपके मत से विना ज्ञान मुक्ति होती है या नहीं ?

यदि कोई पुरुष आपके मतानुसार धर्म पर आरूढ़ हो और अज्ञानी अर्थात्

ज्ञानहीन हो उस की मुक्ति हो सकती है या नहीं ?

उत्तरविना परमेश्वर सम्बन्धी ज्ञान के मुक्ति किसी की न होगी।

सुनो भाइयो ! जो धर्म पर आरूढ़ होगा उस को ज्ञान का अभाव कभी हो

सकता है वा ज्ञान के विना धर्म पर पूरा स्थिर निश्चय कोई मनुष्य कर

सकता है ?

उन्नीसवाँ प्रश्नश्राद्धादिक अर्थात् पिण्डदानादिक जिस में पितृतृप्ति के

अर्थ ब्राह्मणभोजनादि कराते हैं शास्त्ररीति है या अशास्त्ररीति ? यह यदि

अशास्त्ररीति है तो पितृकर्म का क्या अर्थ है और मन्वादिक ग्रन्थों में इनका

लेख है या नहीं ?

उत्तरजीते पितरों की श्रद्धा से सेवा पुरुषार्थ व पदार्थों से तृप्ति

करनी श्राद्ध और तर्पण कहलाता है। वह वेदादि शास्त्रोक्त है। भोजनभट्ट

अर्थात् स्वार्थियों का लड्डू आदि से पेट भरना श्राद्ध और तर्पण शास्त्रोक्त

तो नहीं किन्तु पापों का अनर्थकारक आडम्बर है । जो—जो मनु आदिक ग्रन्थों

में लेख है सो वेदानुकूल होने से माननीय है, अन्य कोई नहीं ।

बीसवाँ प्रश्नकोई मनुष्य यह समझकर कि मैं पापों से मुक्त नहीं

हो सकता, आत्मघात करे तो उस को कोई पाप है या नहीं ?

उत्तरआत्मघात करने में पाप ही होता है और विना भोगे पापाचरण

के फल के पापों से मुक्त कोई भी नहीं हो सकता ।

इक्कीसवाँ प्रश्नजीवात्मा संख्यात हैं या असंख्यात ? कर्म से मनुष्य

पशु अथवा वृक्षादि योनि में उत्पन्न हो सकता है या नहीं ?

उत्तरईश्वर के ज्ञान में जीव संख्यात और जीव के अल्पज्ञान में

असंख्यात हैं । पाप अधिक करने से जीव पशु, वृक्षादि योनि में उत्पन्न

होता है ।

बाईसवाँ प्रश्नविवाह करना अनुचित है या नहीं ? और सन्तान करने

से किसी पुरुष पर पाप होता है या नहीं ? और होता है तो क्या ?

उत्तरजो पूर्ण विद्वान् और जितेन्द्रिय होकर सर्वोपकार किया चाहे उस

पुरुष वा स्त्री को विवाह करना योग्य नहीं, अन्य सब को उचित है । वेदोक्त

रीति से विवाह करके ऋतुगामी होकर सन्तानोत्पत्ति करने में कुछ दोष नहीं।

व्यभिचारादि से सन्तान उत्पन्न करने में दोष है क्योंकि अन्यायाचरणों में दोष

हुए विना कभी नहीं रह सकता है ।

तेईसवाँ प्रश्नअपने सगोत्र में सम्बन्ध करना दूषित है या नहीं,

यदि है तो क्याें है ? सृष्टि के आदि में ऐसा हुआ था या नहीं ?

उत्तर अपने सगोत्र में विवाह करने में दोष यूं है कि इससे शरीर

आत्मा, प्रेम बलादि की उन्नति यथावत् नहीं होती, इसलिये भिन्न गोत्रों

में ही विवाह सम्बन्ध करना उचित है । सृष्टि के आदि में गोत्र ही नहीं

थे फिर वृथा क्यों परिश्रम किया । हां पोपलीला में दक्ष प्रजापति वा कश्यप

की एक ही सब सन्तान मानने से पशुव्यवहार सिद्ध होता है। इस को जो

माने सो मानता रहे।

चौबीसवाँ प्रश्नगायत्री—जाप से कोई फल है या नहीं और है तो

क्यों है ?

उत्तरगायत्री—जाप जो वेदोक्त रीति से करे तो फल अच्छा होता

है क्योंकि इसमें गायत्री के अर्थानुसार आचरण करना लिखा है । पोपलीला

के जप अनर्थरूप फल होने की क्या ही कथा कहना है ? कोई अच्छा व

बुरा किया हुआ कर्म्म निष्फल नहीं होता है ।

पच्चीसवाँ प्रश्नधर्म, अधर्म मनुष्य के अन्तरीय भाव से होता है

या कर्म के परिणाम से ? यदि कोई मनुष्य किसी डूबते हुए मनुष्य

को बचाने को नदी में कूद पड़े और वह आप डूब जाये तो उस आत्मघात

का पाप होगा या पुण्य ?

उत्तरमनुष्यों के धर्म और अधर्म भीतर और बाहर की सत्ता से

होते हैं कि जिन का नाम कर्म और कुकर्म भी है । जो किसी को बचाने

के लिये परिश्रम करेगा और फिर उपकार के लिये जिस का शरीर

वियोग ही हो जाये उस को विना पाप पुण्य ही होगा ।

(लेखराम पृष्ठ ४८७—४९२)