तौरेत इञ्जील की अशुद्धियाँ

(पादरी ग्रे मिशनरी से अजमेर में शास्त्रार्थ२० नवम्बर, १८७८)

कार्तिक सुदि १३, संवत् १९३५ तदनुसार ७ नवम्बर १८७८ को स्वामी

जी अजमेर में पधारे । मगसिर बदि ४ तदनुसार १४ नवम्बर, सन् १८७८,

बृहस्पतिवार से लड़का के चौक में व्याख्यान देना आरम्भ किया । पहले दिन

ईश्वर विषय पर व्याख्यान दिया । १५ नवम्बर को ईश्वर विषय समाप्त करके

ईश्वरीय—ज्ञान का विषय आरम्भ किया । १७ नवम्बर को भी यही विषय

रहा । १८ को फिर ईश्वरीय—ज्ञान पर ही व्याख्यान दे रहे थे । व्याख्यान की

समाप्ति पर एक बड़ी सूची तौरेत, इञ्जील तथा कुरान मजीद की अशुद्धियों

की पढ़कर सुनाई और कहा किमैंने यह सूची किसी को चिढ़ाने के लिए

नहीं सुनाई प्रत्युत इसलिये कि सब लोग पक्षपात रहित होकर विचारें कि जिन

पुस्तकों में ऐसी—ऐसी बातें लिखी हैं, वे ईश्वरकृत हो सकती हैं या नहीं ?

उस दिन सैकड़ों मुसलमान, ईसाई तथा हिन्दू उपस्थित थे । मुसलमान तो

कोई न बोला । पादरी ग्रे साहब और डाक्टर हसबैण्ड साहब उपस्थित थे।

उनमें से माननीय ग्रे साहब बोले कि व्याख्यान के दिन शास्त्रार्थ नहीं होता।

आप इन आक्षेपों को लिखकर हमारे पास भेजिये, मैं उन का उत्तर दूंगा ।

स्वामी जी ने कहा मैं तो यही चाहता हूं और सदा मेरी यही इच्छा रहा करती

है कि आप जैसे बुद्धिमान् पुरुष मिलकर सत्यासत्य का निर्णय करें । पादरी

साहब ने कहा किसत्य का निर्णय जब होगा कि आप मेरे पास प्रश्न भेजेंगे

और मैं उत्तर दूंगा । फिर स्वामी जी ने कहा कि लिखकर दोनों ओर से प्रश्नोत्तर

भेजने में काल बहुत लगता है और मनुष्यों को भी इस से लाभ नहीं पहुंचता।

इसलिए यही बात अच्छी है कि आप यहीं आवें, मैं प्रश्न करूं और आप

उत्तर दें । तब पादरी साहब ने कहा कि आप प्रश्न मेरे पास भेज देवें । जब

मैं दो—चार दिन में उन को विचार लूंगा तब पीछे उत्तर आप को यहां आकर

दूंगा । स्वामी जी ने कहा किप्रश्न तो मैं नहीं भेजूंगा परन्तु मुझ को जहां—जहां

तौरेत और इञ्जील में शटाएँ हैं उन में से थोड़े से वाक्य लिखकर भेज दूंगा।

उन को जब आप विचार लेंगे तो उन्हीं में से प्रश्न करूंगा, आप उत्तर देना।

इतनी बात होने के पश्चात् पादरी साहब चले गये ।

उस के दूसरे दिन अर्थात् १९ नवम्बर, सन् १८७८ मंगलवार को स्वामी

जी ने तौरेत और इञ्जील के ६४ वाक्य लिखकर पण्डित भागराम साहब ऐक्स्ट्रा

ऐसिस्टैण्ट कमिश्नर अजमेर द्वारा पादरी साहब के पास भेज दिये । कई दिन

तक पादरी साहब उन को विचारते रहे । उन के अच्छी प्रकार विचार लेने

के पूरे दस दिन पश्चात् अर्थात् २८ नवम्बर, सन् १८७८ बृहस्पतिवार तदनुसार

मंगसिर सुदि ४, संवत् १९३५ शास्त्रार्थ का दिन नियत हुआ ।

उस दिन शास्त्रार्थ देखने और सुनने के लिए सर्वत्र विज्ञापन दे दिया

गया था, इसलिए बहुत अधिक संख्या में लोग सुनने के लिए आये । सर्दार

बहादुर मंुशी अमीचन्द साहब जज, पण्डित भागराम साहब ऐक्स्ट्रा ऐसिस्टैण्ट

कमिश्नर, सरदार भगतसिंह साहब इञ्जीनियर आदि सरकारी अधिकारी भी

सभा में सम्मिलित थे ।

नियत समय पर स्वामी जी चारों वेदों के पुस्तक साथ लेकर आये।

पादरी ग्रे साहब और डाक्टर हसबैण्ड साहब भी पधारे । बाबू रामनाथ हेडमास्टर

राजपूत स्कूल जयपुर, बाबू चन्दूलाल वकील गुड़गांवा, हाफिज मौहम्मद हुसैन

दारोगा चंुगी अजमेरये तीन लेखक नियुक्त हुए । प्रथम स्वामी जी ने कहा

किमैंने कितने स्थानों पर पादरी लोगों से बातचीत की है, कभी किसी

प्रकार की गड़बड़ नहीं हुई । आज भी मैं जानता हूं कि पादरी साहब से

वार्तालाप निर्विघ्नता से पूरा होगा । फिर पादरी साहब ने भी निर्विघ्नता से

बातचीत होने की आशा प्रकट की और कहा कि स्वामी जी ने जो वाक्य

लिखकर हमारे पास भेजे हैं वे बहुत हैं और समय केवल दो या ढाई घण्टे

का है इसलिये इन आक्षेपों पर दो चार ही प्रश्नोत्तर होना ठीक है । इसके

पश्चात् शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ ।

बोलते समय इन तीन लेखकों को स्वामी जी और पादरी साहब अक्षरशः

लिखवाते जाते थे ।

स्वामी जीतौरेत उत्पत्ति की पुस्तक पूर्व १ आयत २ में लिखा है कि

पृथिवी बेडौल है । अब देखना चाहिए कि परमेश्वर सर्वज्ञ है, सब विघा

उस में पूरी हैं । उस के विघा के काम में बेडौलता कभी नहीं हो सकती

क्योंकि जीव को पूरी विघा और सर्वज्ञता नहीं है इसलिये जीव के काम में

बेडौलता आ सकती है, ईश्वर के काम में नहीं ।

पादरीयहां अभिप्राय बेडौल से नहीं है बल्कि उजाड़ से है । अयूब

की पुस्तक अध्याय २ आयत २४ में है कि विना मार्ग जंगल में आत्मा नहीं

भ्रमता है। यहां जिस शब्द का अर्थ जंगल है उसी का अर्थ वहां बेडौल है।

स्वामी जीइस से पहली आयत में यह बात आती है कि आरम्भ में

ईश्वर ने आकाश और पृथिवी को सृजा और पृथिवी बेडौल सूनी थी, गहराव

पर अन्धेरा था । इस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उजाड़ का अर्थ यहां नहीं

ले सकते क्योंकि कहा था कि सूनी थी । बेडौल के अर्थ उजाड़ होते तो

सूनी थी, इस शब्द की कुछ आवश्यकता नहीं थी और जबकि ईश्वर ने ही

पृथिवी को रचा है सो प्रथम ही अपने ज्ञान से डौल वाली क्यों नहीं रच सकता

था ?

पादरी साहबदो शब्द एक ही अर्थ के सब भाषाओं में एक दूसरे

के पीछे होकर आते हैं जैसे इबरानी में तोहो बोहो, फारसी में वूदो वाश,

ये सब एक ही अर्थ के वाची हैं । इसी प्रकार उर्दू में यह अर्थ ठीक है

कि पृथिवी उजाड़ और सुनसान थी ।

स्वामी जी इस बात पर और प्रश्न करना चाहते थे इतने में पादरी साहब

ने कहा कि एक—एक वाक्य पर दो—दो प्रश्न और दो—दो उत्तर होने चाहियें

क्योंकि वाक्य बहुत हैं तो सब प्रश्न आज न हो सकेंगे । स्वामी जी ने कहा

यह आवश्यक नहीं है कि आज ही सब वाक्यों पर प्रश्नोत्तर हो जायें । कुछ

आज होंगे फिर इसी प्रकार दो—चार दिन अथवा जब तक यह वाक्य पूरे न

हों तब तक प्रश्नोत्तर होते रहेंगे । पादरी साहब ने इस बात को स्वीकार नहीं

किया तब स्वामी जी ने कहा कि और अधिक नहीं तो एक वाक्य पर

दस बार प्रश्न होने चाहियें। पादरी साहब ने यह भी स्वीकार न किया ।

स्वामी जी ने फिर कहा कि एक—एक वाक्य पर कम से कम तीन बार प्रश्नोत्तर

होने ही चाहियें । इस में फिर पादरी साहब ने कहा कि हम को दो बार से

अधिक प्रश्नोत्तर करना कदाचित् स्वीकार नहीं है । तब स्वामी जी ने कहा

किहम को इस में कुछ हठ नहीं है, सभा की जैसी सम्मति हो वैसा किया

जावे । स्वामी जी की इस बात पर कोई कुछ न बोला परन्तु डाक्टर हस्बैण्ड

साहब ने कहा कियदि सभा से प्रत्येक विषय में पूछेंगे तो चार सौ मनुष्य

हैं उनमें से किस—किस से पूछा जायेगा । स्वामी जी ने कहा कि यदि पादरी

को तीन प्रश्न करना स्वीकार नहीं है तो जाने दो हम दो ही करेंगे क्योंकि

इतने मनुष्य विज्ञापन देखकर इकट्ठे हुए हैं । जो यहां कुछ बातचीत न हुई

तो अच्छा नहीं । फिर दूसरे वाक्य पर प्रश्न किया ।

स्वामी जी(वही पर्व वही आयत) और ईश्वर का आत्मा जल के ऊपर

डोलता था । पहली आयत से विदित होता है कि ईश्वर ने आकाश और पृथिवी

को रचा । यहां जल की उत्पत्ति नहीं कही तो जल कहां से हो गया । ईश्वर

आत्म—स्वरूप है वा जैसे कि हम स्वरूप वाले हैं वैसा । जो वह शरीर वाला

है तो उसका सामर्थ्य आकाश और पृथिवी बनाने का नहीं हो सकता क्योंकि

शरीर वाले के शरीर के अवयवों से परमाणु आदि को ग्रहण करके रचना में

लाना असम्भव है और वह व्यापक भी नहीं हो सकता । जब उस का आत्मा

जल पर डोलता था तब उसका शरीर कहां था ?

पादरी साहबजब—जब पृथिवी को सृजा तो पृथिवी में जल भी आ

गया । दूसरी बात का उत्तर यह है कि परमेश्वर आत्मरूप है । तौरेत के

आरम्भ से इञ्जील के अन्त तक परमेश्वर आत्मरूप कहलाया ।

स्वामी जीईश्वर का वर्णन तौरेत से लेकर इञ्जील पर्यन्त बहुत ठिकानों

में ऐसा ही है कि वह किसी प्रकार का शरीर भी रखता है क्योंकि आदम

की बाड़ी को बनाया, वहां आना फिर ऊपर चढ़ जाना, सनाई पर्वत पर जाना,

मूसा इब्राहीम और उन की स्त्री सरः से बातचीत करना, डेरे में जाना, याकूब

से मल्लयुद्ध करना इत्यादि बातों से पाया जाता है कि अवश्य किसी प्रकार

का शरीर वह रखता है और उसी क्षण अपना शरीर बना लेता है ।

पादरी साहबये सब बातें इस आयत से कुछ सम्बन्ध नहीं रखतीं केवल

अनजानपने से कही जाती हैं । इसका यही उत्तर है कि यहूदी, ईसाई और

मुसलमान जो तौरेत को मानते हैं इसी पर एकमत हैं कि खुदा रूह है ।

स्वामी जी(पर्व वही, आयत २६) तब ईश्वर ने कहा कि हम आदम

को अपने स्वरूप में अपने समान बनावें । इस से स्पष्ट पाया जाता है कि

ईश्वर भी आदम के स्वरूप जैसा था । जैसा कि आदम आत्मा और शरीर—युक्त

था, ईश्वर को भी इस आयत से वैसा ही समझना चाहिए । जब वह शरीर

जैसा स्वरूप नहीं रखता तो अपने स्वरूप में आदम को कैसे बना सका ?

पादरी साहबइस आयत में शरीर का कुछ कथन नहीं । परमेश्वर

ने आदम को पवित्र, ज्ञानवान् और आनन्दित रचा । वह सच्चिदानन्द ईश्वर

है और आदम को अपने स्वरूप में बनाया । जब आदम ने पाप किया तो

परमेश्वर के स्वरूप से पतित हो गया। जैसे पहले प्रश्नोत्तर के २४ और २५

प्रश्न से विदित होता है (कोलोसियों के पत्रे तीसरा पर्व ९ और १० आयत)।

एक दूसरे से झूठ मत बोलो क्योंकि तुमने पुराने फैशन को उस के कार्यों

समेत उतार फेंका है और नये फैशन को जो ज्ञान में अपने सिरजनहारे के

स्वरूप के समान नये बन रहे हैं, पहना है । इस से विदित होता है कि ज्ञान

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और पवित्रता में परमेश्वर के समान बनाया गया और नये सिरे से हम लोगों

को बनाया (करन्तियों अध्याय १७, आयत १९) और प्रभु ही आत्मा है और

जहां कहीं प्रभु का आत्मा है वहीं निर्विघ्नता है और हम सब विना पर्दा प्रभु

के तेज को दर्पण में देख—देख प्रभु के आत्मा के द्वार पर तेज से उस के

स्वरूप में बदलते जाते हैं । इस से ज्ञात होता है कि विश्वासी लोग बदल

के फिर परमेश्वर के स्वरूप में बन जाते हैं अर्थात् ज्ञान, पवित्रता और आनन्द

में क्योंकि धर्मी होने से मनुष्य के शरीर का रूप नहीं बदलता है ।

स्वामी जीपरमात्मा के सदृश आदम के बनने से सिद्ध होता है कि

ईश्वर भी शरीर वाला होना चाहिए । जो परमेश्वर ने आदम को पवित्र और

आनन्द से रचा था तो उसने परमेश्वर की आज्ञा क्यों तोड़ी और जो तोड़ी

तो विदित होता है कि यह ज्ञानवान् नहीं था । और जब उस ने ज्ञान के पेड़

का फल खाया तब उस की आंख खुल गई । इस से जाना जाता है कि

वह ज्ञानवान् पीछे से हुआ । जो पहले ही ज्ञानवान् था तो फल खाने के पीछे

ज्ञान हुआ, यह बात नहीं बन सकती और प्रथम परमेश्वर ने उस को आशीर्वाद

दिया था कि तुम फूलो—फलो, आनन्दित रहो और फिर जब उस ने ईश्वर

की आज्ञा के विना उस पेड़ का फल खाया तब उस की आंखें खुलने से

उस को ज्ञान हुआ कि हम नंगे हैं । गूलर के पत्ते अपने शरीर पर पहने ।

अब देखना चाहिये कि जो वह ईश्वर के समान ज्ञान में और पवित्रता में

होता तो उस को नंगा होना, क्यों नहीं जान पड़ता । क्या उस को इतनी भी

सुध नहीं थी । जब परमेश्वर के समान वह ज्ञानी, पवित्र और आनन्दित था

तो उस को सर्वज्ञ और नित्य शुद्ध आनन्दित रहना चाहिये और उस के पास

कुछ दुःख भी कभी न आना चाहिये क्योंकि वह परमेश्वर के समान है ।

इन ऊपर कही तीनों बातों में तो वह पतित किसी प्रकार से नहीं हो सकता

और जो पतित हुआ तो परमेश्वर के समान नहीं हुआ क्योंकि परमेश्वर ज्ञानादि

गुणों से पतित कभी नहीं होता । फिर बतलाइये कि जैसे आदम प्रथम ज्ञानादि

तीनों गुणों में परमेश्वर के समान होके फिर उन से पतित हो गया वैसे ही

विश्वासी लोग ज्ञानी, पवित्र और आनन्दित होंगे वा अधिक कम । जो वैसे

ही होंगे तो फिर जैसे आदम पतित हो गया वैसे ही विश्वासी भी हो जायेंगे

क्योंकि वह तीनों बातों में परमात्मा के समान होकर पतित हो गया था ।

पादरी साहबकई बातों में पहला उत्तर पर्याप्त है और रहा यह कि

यदि आदम पवित्र था तो आज्ञा क्यों तोड़ी । उत्तर यह है कि वह पहले पवित्र

था, आज्ञा तोड़ के पापी हुआ । फिर यह कहा कि ज्ञानवान् पीछे से हुआ।

यह बात नहीं है जब भले बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खाया तब बुरे जान

पड़े । पहले न जानता था, आंखें खुल गईं और उस को जान पड़ा कि मैं

नंगा हूं । इस का उत्तर यह है कि पापी होके उस को लज्जा आने लगी।

फिर यह कि यदि वह परमात्मा के समान होता तो पतित न होता । इस का

उत्तर यह है कि वह परमात्मा के समान बनाया गया न उस के तुल्य । यदि

परमात्मा के तुल्य होता तो पाप में न गिरता । अन्त में जो पूछा कि विश्वासी

लोग आदम से अधिक पवित्र हो जायेंगे इस का उत्तर यह है कि अधिक

और कम पवित्र होने में प्रश्न नहीं है किन्तु स्वरूप के विषय में है कि परमेश्वर

का रूप शरीर जैसा था वा नहीं । यदि वह स्वरूप जिस का कथन होता

है शारीरिक होता तो धर्मी लोग जब परमेश्वर के स्वरूप में नये सिरे से नहीं

जाते हैं तो अपने शरीर को नहीं बदल डालते ।

स्वामी जी(तौरेत का पर्व २, आयत ३) उस ने सातवें दिन को

आशीर्वाद दिया और ठहराया । ईश्वर को सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी, सच्चिदानन्द

स्वरूप होने से परिश्रम जगत् के रचने में कुछ भी नहीं हो सकता। फिर सातवें

दिन विश्राम करने की क्या आवश्यकता ? और विश्राम किया तो छः दिन

तक बड़ा परिश्रम करना पड़ा होगा । और सातवें दिन को आशीर्वाद दिया

तो छः दिनों को क्या दिया । हम नहीं कह सकते कि ईश्वर को एक क्षण

भी जगत् के रचने में लगे और कुछ भी परिश्रम हो ।

पादरी साहबअब समय हो चुका, इस से अधिक हम नहीं ठहर सकते

और बोलते समय लिखना पड़ता है इस से देर बहुत लगती है । इसलिए

हम कुछ नहीं करना चाहते जो बोलते समय लिखा न जाये तो हम कर सकते

हैं । यदि स्वामी जी को लिखकर प्रश्नोत्तर करना है तो हमारे पास प्रश्न लिखकर

भेज दें । हम लिखकर उत्तर देंगे ।

इस पर डाक्टर हसबैण्ड साहब के कहने से सरदार बहादुर अमीचन्द

साहब ने कहा कि मेरी भी यह सम्मति है कि प्रश्न लिखकर पत्र द्वारा किया

करें । आज की भांति किये जायेंगे तो छः महीने तक भी पूरे न होंगे ।

स्वामी जी ने कहा किप्रश्नोत्तर के लिखे विना बहुत हानि है । जैसे

अभी थोड़ी देर के पश्चात् अपने में से कोई अपनी कही हुई बात के लिए कह

सकता है कि मैंने यह बात नहीं कही । दूसरे इस प्रकार बातचीत होने में और

लोगों को यथार्थ छुपाकर प्रकट नहीं कर सकते और यदि कोई छुपावे भी तो

जिस के जी में जो आवे सो छुपा सकता है और जो मकान पर प्रश्नोत्तर

लिख—लिख किया करें तो इस में काल बहुत लगेगा और जो कहा गया कि इस

प्रकार छः मास में पूरा न होगा । सो मैं कहता हूं कि इसमें छः मास का कुछ

काम नहीं है । हां जो मकान पर पत्र द्वारा करेंगे तो तीन वर्ष में भी पूरा न होगा

और मनुष्य जो मेरे सामने सुन रहे हैं वे नहीं सुन सकेंगे इसलिए यही अच्छा

है कि सब के सामने प्रश्नोत्तर किये जावें और लिखाया भी जावे ।

पादरी साहब ने कहा कि आपने यहां प्रश्नोत्तर करने में लोगों के सुनने

का लाभ दिखलाया परन्तु मैं जानता हूं कि आज की बातों को जो यहां इतने

लोग बैठे हैं, उनमें से थोड़े ही समझे होंगे । पादरी साहब की यह बात सुन

कर हाफिज मौहम्मद हुसैन और अन्य मुसलमान लोग कहने लगे कि हम

कुछ भी नहीं समझे । इस पर पादरी साहब ने कहा कि देखिए लिखने वाला

ही नहीं समझा तो और कौन समझ सकता है । पर स्वामी जी ने दो दूसरे

लिखने वाले थे उन से पूछा कि तुम समझे वा नहीं ? उन्होंने कहा कि हां

हम बराबर समझे, हम ने जो कुछ लिखा है उस को अच्छी प्रकार कह सकते

हैं । तब स्वामी जी ने कहा कि दो लिखने वाले तो समझे और एक नहीं

समझा । सारांश यह कि पादरी साहब ने दूसरे दिन शास्त्रार्थ का लिखा जाना

स्वीकार नहीं किया ।

स्वामी जी ने पादरी साहब से कहा किआज के प्रश्नोत्तर के तीन

परत लिखे गये हैं आप उन पर हस्ताक्षर कर दीजिये और मैं भी कर देता

हूं । और प्रधान सभा से भी कराकर एक प्रति आपके पास और एक मेरे

पास और एक प्रधान के पास रहेगी ।

पादरी साहब ने कहा कि हम ऐसी बातों पर हस्ताक्षर करना नहीं चाहते।

तत्पश्चात् सभा उठ खड़ी हुई और सब लोग अपने घरों को चले गये परन्तु

स्वामी जी महाराज, सरदार बहादुर अमीचन्द साहब, पण्डित भागराम साहब,

सरदार भगतसिंह जी के मकान पर जो सभा के मकान के पास था, ठहरे।

उस समय शास्त्रार्थ की दो कापियों पर जो स्वामी जी के पास रही थीं। (क्योंकि

एक पादरी साहब साथ ले गये थे ।) उन दोनों सज्जनों ने हस्ताक्षर भी कर

दिये और सब अपने मकानों को गये ।

दूसरे दिन अर्थात् २९ नवम्बर, सन् १८७८ को पादरी साहब ने स्वामी

जी के पास पत्र लिखकर भेजा कि आज आप प्रश्नोत्तर करेंगे या नहीं । यदि

करना हो तो किया जाये परन्तु लिखा न जाये और लिखना हो तो पत्र द्वारा

किया जाये ।

स्वामी जी ने इस के उत्तर में लिख भेजा कि सब के सामने प्रश्नोत्तर

किये जायें और लिखे भी जावें । इस प्रकार हम को स्वीकार है अन्यथा

तौरेत इञ्जील की अशुद्धियाँ 161

नहीं क्योंकि और प्रकार करने में बहुत हानि है जो कि हम पहले लिख चुके

हैं। अब यदि आप को लिखकर प्रश्नोत्तर करना हो तो मुझ को लिखिये ।

मैं जब तक आप कहें यहां रहूं और यदि आप को इस प्रकार न करना हो

तो सरदार भगतसिंह जी को लिख भेजो कि अब शास्त्रार्थ न होगा ताकि उन्होंने

जो तम्बू आदि का प्रबन्ध कर रखा है उसे उठा लेवें । पादरी साहब ने इस

को बड़ा सुअवसर जाना और प्रसन्नता से सरदार साहब को इसी प्रकार कहला

भेजा । उन्होंने सब सामान उठवा दिया । इस के पश्चात् स्वामी जी तीन

चार दिन और अजमेर में रहे । चौथे दिन दूसरी दिसम्बर, सन् १८७८ को

मसूदा की ओर प्रस्थान कर गये । (लेखराम पृष्ठ ६८१ से ६८६)