अन्याय के प्रति पराक्रम दिखाकर, क्रोध करना चाहिये अर्थात् विरोध करना चाहिये या फिर अन्याय को सह लेना चाहिये? यह बहुत अच्छा प्रश्न है। दोनों अवसरों पर दोनों काम करने चाहिये। छोटा-मोटा अन्याय हो तो सह लेना चाहिये। बड़ी गड़बड़ हो और बिल्कुल हमारी जान पर आ गयी हो तो फिर अपनी रक्षा भी करनी चाहिये।
लड़ाई-झगड़ा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। व्यर्थ में किसी को मारना-पीटना, किसी को परेशान करना, किसी को दुःख देना हमारा ऐसा कोई उद्देश्य नहीं। पर अपने जीवन की रक्षा करना तो हमारा अधिकार है। अपने जीवन की रक्षा तो हम करेंगे। महर्षि दयानंद जी का ही उदाहरण ले लीजिये। लोगों ने उन पर पत्थर फेंके, साँप फेंके, झूठे आरोप लगाए, बहुत उलटे- सीधे काम किये। कई बार जहर भी पिलाया तब भी उन्होंने कहा- ”चलो जाने दो, कोई बात नहीं”। अपनी रक्षा उन्होंने कर ली, अपना बचाव कर लिया, मारने की बात नहीं की थी। एक बार कुछ लोग जंगल में देवी के मंदिर में ले गए और वहाँ उनकी बलि चढ़ाने की तैयारी थी। वो जा तो नहीं रहे थे लेकिन ऐसे ही उनको बहका करके ले गए और वो चले गए तो वहाँ जाकर देखा, अरे यहाँ तो मामला गड़बड़ है। यह तो तलवार लेकर खड़ा है, मुझे मारेगा। तो वो फटाफट दीवार कूदकर भाग गए। देखो, उन्होंने अपनी रक्षा कर ली या नहीं। इसलिये अपनी रक्षा कर लेनी चाहिये, उसमें कोई आपत्ति नहीं है। वो तो हमारा जन्मसि( अधिकार है। भगवान ने भी छूट दे रखी है और सरकार ने भी छूट दे रखी है। अपनी रक्षा पूरी करो लेकिन खामखाँ दूसरे से झगड़ा मत करो। इस तरह से सहन भी करना चाहिये।
अगर हम सहन नहीं करेंगे तो फिर मनुष्य, मनुष्य नहीं रहेगा। फिर तो वो मशीन की तरह हो जाएगा। जैसे बिजली की मशीन थोड़ा सा भी उसको छू दो तो फट से करेंट मारती है। हम भी अगर कोई थोड़ा सा बस में, भीड़-भाड़ में पाँव पर पाँव रख दें और हम उसको दो थप्पड़ मारते हैं तो हम भी मशीन की तरह हो जायेंगे। फिर हम इंसान थोड़े रहेंगे। बस में भीड़ होती है, रेल में भीड़ होती है, बाजार में भीड़ होती है। कोई चलते-चलते थोड़ा सा टकरा गया, किसी का हाथ टकरा गया तो वहाँ तो ऐसा ही बोलना पड़ेगा कि- कोई बात नहीं, जाने दो, भीड़-भाड़ है, हो जाता है ऐसा। वहां तो सहन ही करना पड़ेगा। अगर कोई जबरन हमें परेशान करे तो फिर अपनी रक्षा भी करनी चाहिये। इतने कमजोर भी नहीं बनना चाहिये। फिर भी क्रोध करना तो ठीक नहीं है। क्योंकि क्रोध की अवस्था में बु(ि ठीक काम नहीं करती और व्यक्ति गलत काम कर बैठता है, जिससे उसकी हानि होती है।
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि’। प्रार्थना इसलिये करें, क्योंकि यहाँ पर ‘क्रोध’ का अर्थ ‘क्रोध’ नहीं है। जो प्रचलित अर्थ में क्रोध है, वह अर्थ नहीं है। यहाँ पर क्रोध का अर्थ है, ‘जो बुरे काम हैं, उनसे बचकर रहें।’ यदि हम उनसे बचकर नहीं रहेंगें तो बुरे काम हम सीख लेंगें और करने लगेंगें। तो यहाँ गौण अर्थ में क्रोध शब्द का प्रयोग है कि- बुरे कामों पर क्रोध करें, अर्थात बुरे काम न करें, उनसे घृणा (परहेज( करें, उनसे दूर रहें, उनसे बचकर रहें। क्रोध शब्द का अर्थ यह है।
साधारण व्यक्ति जब यह प्रार्थना करे तो इसका अर्थ यह है – मैं बुरे कामों का विरोध करूं अर्थात् मंस बुरे काम न करूं। बुरे लोगों से बचकर रहूँ, ताकि मेरा जीवन ठीक-ठाक चले।
इसका दूसरा अर्थ यह है कि जो राजा है, क्षत्रिय है, वह यह प्रार्थना करे- ‘हे ईश्वर! आप दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं। मुझे भी शक्ति दो, ताकि मैं इस धरती के सारे दुष्टों को ठीक कर दूँ। इन दुष्टों को दण्ड दूं ताकि ये जनता को परेशान न कर सकें। राजा की ओर से यह प्रार्थना है। राजा अपनी प्रार्थना करे।