जो संन्यासी होते हैं, उनका मुख्य लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना अथवा समाधि प्राप्त करना होता है। एक योगाभ्यासी बनने के लिये हमें लोभ, मोह, लालच नहीं करना चाहिये। सवाल उठता है, कि क्या ईश्वर को प्राप्त करना लोभ, मोह, लालच नहीं है?

ईश्वर को प्राप्त करना या मोक्ष प्राप्त करना, कोई लोभ नहीं है। लोभ की परिभाषा अलग है। जब परिभाषा पकड़ लेंगे, तो प्रश्न स्वतः सुलझ जायेगा। दो साबुन खरीदो और तीसरा मुफ्त में, यह लोभ है। आप बिना कर्म किये वस्तु प्राप्त करना चाहते हैं। कर्म तो किया आपने दो साबुन का और प्राप्त करना चाहते हैं तीन। तो बिना पुरूषार्थ किए, बिना कर्म किये, बिना पेमेंट किये, बिना पैसा दिये, आप जो मुफ्त में लेना चाहते हैं, उसका नाम है-लोभ।
जो संन्यासी बनता है, ईश्वर प्राप्त करना चाहता है, मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, तो क्या वो मुफ्त में प्राप्त करना चाहता है या पुरूषार्थ करके प्राप्त करना चाहता है? पुरूषार्थ करके। तो लोभी नहीं हुआ। बिना पुरूषार्थ किए वह मोक्ष प्राप्त करना चाहे, तब तो वो लोभ है। लेकिन वो तो पुरूषार्थ करता है, पूरी मेहनत करता है।
और यह नियम है, कि जो पुरूषार्थ करेगा, उसको फल अवश्य मिलेगा। जैसा कर्म, वैसा फल। ईश्वर न्यायकारी है, फल तो देगा। तो यदि पुरूषार्थ करके कोई व्यक्ति धन प्राप्त करना चाहता है, तो यह न्याय की बात है, उचित बात है,
धर्म की बात है। तो करो पुरूषार्थ, क्योंकि इसमें तो कोई आपत्ति नहीं है। वैसे ही कोई पुरूषार्थ करके ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, तो यह न्याय की बात है, वो लोभ नहीं है। इसलिये ईश्वर प्राप्ति करना या मोक्ष प्राप्ति करना कोई लोभ नहीं है, कोई अधर्म नहीं है, कोई अन्याय नहीं है। यह बिल्कुल उचित है। ऐसा आप भी कर सकते हैं। इसलिए जोर लगाओ, संन्यासी बनो।
संन्यासी बनने से तो लोगों को डर लगता है, कि हमको संन्यासी बनवा देंगे, घर छुड़वा देंगे। मोक्ष में जाने के लिये संन्यास लेना अनिवार्य (कम्पलसरी( है। आज लो, बीस जन्म बाद लो, पचास जन्म के बाद लो, लेना तो पड़ेगा और कोई रास्ता नहीं है।
मोक्ष का रास्ता क्या है? पहले मनुष्य का जन्म धारण करो। और फिर मनुष्यों में ऊँचे-ऊँचे स्तर के मनुष्य बनते जाओ, ऊँची-ऊँची योग्यता प्राप्त करते जाओ। पहले शूद्र के यहाँ जन्म हो गया। फिर पुरूषार्थ करके हमने अच्छे कर्म किये, मेहनत की, तो वैश्य के गुणकर्म को धारण कर लिया, फिर वैश्य बन गये। जन्म की बात नहीं कर रहा हूँ, वर्ण-व्यवस्था गुण कर्मों से है, जन्म से नहीं। वैश्य वाली योग्यता प्राप्त कर ली, उसके बाद फिर और ऊँचे उठे, क्षत्रिय बन गये। फिर और ऊँचे उठे, ब्राह्मण बन गये। फिर ब्राह्मणों में भी और ऊँचे ब्राह्मण बन गये। फिर उनमें भी और ऊँचे उठे, संन्यासी बन गये। और संन्यास के बाद फिर मोक्ष होता है। यह है क्रम। मोक्ष में जाने की प(ति इस प्रकार से है। तो जो-जो मोक्ष में जाना चाहते हैं, उनको यह सब क्रम अपनाना पड़ेगा। योग्यता बनानी पड़ेगी, ब्राह्मण बनना पड़ेगा, संन्यासी बनना पड़ेगा, घर छोड़ना पड़ेगा, संसार छोड़ना पड़ेगा, तब मोक्ष होगा। मेरा प्रवचन सुनकर के, आप जोश में आकर, कल ही घर मत छोड़ देना। करना यही पड़ेगा, लेकिन कब करें? उसके लिए तैयारी करनी पड़ेगी, योग्यता बनानी पड़ेगी। आपको घर छोड़ने की तैयारी करने में पाँच-दस वर्ष निकल जायेंगे। आज से आप सोचना शुरू करें, कि हमें घर छोड़ना है, हमें वानप्रस्थ लेना है, हमें संन्यास लेना है, योग्यता बनानी है। तो उसमें भी पाँच-दस वर्ष निकल जायेंगे। इसलिये जोश में आकर कोई काम नहीं करना चाहिये। होश में रहकर बु(िमत्ता से अपने सामर्थ्य को ध्यान में रखकर के करना चाहिये। तैयारी जरूर कर सकते हैं। तैयारी तो आप आज से भी शुरू कर सकते हैं, कि हम समय आने पर योग्यता बनाकर वानप्रस्थ लेंगे, संन्यास लेंगे।

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