जो अवतार हुए हैं ये कौन हैं और उनका बनाने वाला कौन है

१जो कि चार धाम सप्तपुरी आदि नगर और ग्रामों में उन्नत शिखर

और मन्दिर और इन में देवताओं की मूर्तियों का स्थापन हो रहा है और परम्परा

से पूजा होती आती है । अब इस में आप को भ्रम और सन्देह हुआ सुना

है जो अवश्य सन्देह नहीं तो श्रुति—स्मृति के प्रमाण इस में दीजिएगा और

जो सन्देह नहीं है तो व्यक्त कीजियेगा ।

२गग जी सब नदियों से श्रेष्ठ और पूजनीय है इसमें भी प्रमाण दीजिये

और जो सन्देह कुछ हो तो प्रकाशित करें ।

३और जो अवतार हुए हैं ये कौन हैं और उनका बनाने वाला कौन

है ? और पराक्रम उन को किस ने दिया अथवा ये समर्थ हैं ? अवतारों की

सी सामर्थ्य किसी राजा में अथवा और मनुष्य में नहीं सुनी । प्रमाण श्रुति

स्मृति का होय तो लिखियेगा । इति ।

उत्तर शीघ्र देना योग्य है पत्र द्वारा उत्तर देने में सन्देह समझें तो बलेश्वर

महादेव के मन्दिर में सभा नियत की जावे कि जिससे सत्यार्थ का निश्चय

और सन्देह की निवृत्ति होवे । इति ।

स्वामी जी के उत्तर

१मुझ को पाषाणादि मूर्तिपूजन के विषय में सन्देह या भ्रम कदापि

नहीं, प्रत्युत भली प्रकार निश्चय है कि यह वेदविरुद्ध है। परन्तु भ्रम आप लोगों

का ठीक है कि जिस के कारण से पाषाणादि मूर्तियों को स्थानों और मन्दिरों में

स्थापन करके उन का नाम देव या देव की मूर्ति रखते हैं और उन को देव मानते

हैं। विचारणीय बात यह है कि पाषाणादि मूर्तिपूजन की शिक्षा न किसी ऋषि

मुनि के वचन से और न किसी शास्त्र के उद्धरण से सिद्ध है, प्रत्युत सब से

उस का निषेध प्रकट है । और न पाषाणादि मूर्ति का नाम किसी वेद या शास्त्र

में देव लिखा है और न किसी ऋषि मुनि ने ब्रह्मा जी से लेकर जैमिनि मुनि तक

अपनी पुस्तकों में ट्टट्टदेव’’ का अर्थ पाषाणादि मूर्ति लिखा है । केवल परमेश्वर,

विद्वान् और वेदमन्त्रादि का नाम देव है जो कि दिव्य गुणों से युक्त हैं । पाषाणादि

मूर्ति का नाम देव कदापि नहीं तो फिर बतलाइए कि आपका ऐसा मानना किस

रीति से ठीक है । इस के अतिरिक्त परमेश्वर की पाषाणादि की मूर्ति बनाकर

उपासना करना तो वेदों के अनुसार कि जिन पर हमारा धर्म पूर्णतया निर्भर करता

है, निषिद्ध और विरुद्ध है जैसा कि यजुर्वेद के ३२वें अध्याय के तीसरे मन्त्र

से प्रकट है ।

न तस्य प्रतिमास्ति यस्य नाम महघशः ।

हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः ।।

इस मन्त्र का अर्थ यह हैपरमेश्वर की प्रतिमा अर्थात् सदृश उदाहरण,

नाप का साधन या प्रतिबिम्ब जिस को चित्र कहते हैं किसी प्रकार नहीं ।

उस की आज्ञा का ठीक—ठीक पालन और सत्यभाषणादि कर्म का करना जो

उत्तम कीर्तियों का हेतु है, उस के नाम का स्मरण कहाता है । वही परमेश्वर

तेजवाले सूर्य्यादि लोकों की उत्पत्ति का कारण है । माता—पिता के संयोग

से न उत्पन्न हुआ और न होगा । इसी से यह प्रार्थना है कि परमात्मन् !

हम लोगों की सब प्रकार से रक्षा कर ।

अब देखिये इस मन्त्र में स्पष्ट शब्दों में मूर्तिपूजन का निषेध है अर्थात्

परमेश्वर का न उदाहरण है, न सादृश्य है और न उसका प्रतिबिम्ब या चित्र

है और न हो सकता है तो फिर परमेश्वर की पाषाणादि मूर्ति बनाना और

उस को परमेश्वर मानना और उस की उपासना करना किस प्रकार सिद्ध हुआ।

यह सब अज्ञान का फल है और कुछ नहीं । प्रत्युत वेद में तो केवल एक

निराकार परमेश्वर की उपासना की शिक्षा और अन्य की उपासना का निषेध

है। फिर बतलाइये कि पचासों और सैकड़ों देवताओं की उपासना किस प्रमाण

से ठीक है । बहुत से मन्त्रों में से दो वेदमन्त्र उपासना विषय के अपनी बात

के समर्थन में यहां लिखता हूं

प्रथम मन्त्रट्टट्टहिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे’’ आदि ।

इस मन्त्र का अभिप्राय यह हैहिरण्यगर्भ जो परमेश्वर है वही एक

सृष्टि के पूर्व वर्त्तमान था, वही इस जगत् का स्वामी है और वही पृथ्वी से

लेकर सूर्य्यादि तक सब जगत् को रचकर उस का धारण कर रहा है । उसी

सुखस्वरूप परमेश्वर देव की हम उपासना करें, और की नहीं । यह ऋग्वेद

के आठवें अध्याय सातवें अष्टक और तीसरे वर्ग का पहला मन्त्र है ।

दूसरा मन्त्रट्टट्टअन्धन्तमः प्रविशन्ति’’ आदि ।

यह यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का नववाँ मन्त्र है इस का अर्थ यह

हैजो मनुष्य कभी न उत्पन्न होने वाले अनादि जड़रूप कारण की उपासना

करते हैं वे अविघादि दुःखरूप अन्धकार में प्रवेश करते हैं । और जो मनुष्य

संयोग से उत्पन्न हुए पृथ्वी—विकाररूप कार्य्य में उपासना भाव से मन करते

हैं, वे कारण की उपासना करने वाले मनुष्य से भी अधिक महाक्लेशों को

प्राप्त होते हैं । इससे स्पष्टतया सिद्ध है कि मनुष्यों को उक्त कारण और

कार्य अर्थात् उपर्युक्त सामग्री और उस से बनी या उत्पन्न होने वाली वस्तुओं

और पाषाणादि मूर्ति की उपासना नहीं करनी चाहिये और केवल एक पूर्ण

ब्रह्म परमेश्वर की उपासना करनी योग्य है ।

युक्ति द्वारा देखने से भी पाषाणादि मूर्तिपूजन उचित नहीं हो सकता

है क्योंकि यदि यह कहा जाये कि हम पाषाणादि की मूर्ति में देव की भावना

करते हैं, कुछ उस को पाषाणादि नहीं मानते तो प्रथम तो यह बतलाइये कि भावना

सच्ची है या झूठी । यदि सच्ची है तो सुख की भावना करने वालों को दुःख

क्यों होता है अर्थात् जब संसार में सब सुख की भावना करते हैं और दुःख की

भावना कोई नहीं करता फिर उस को दुःख क्यों होता है? और सुख ही सुख

क्यों नहीं होता ? और इसी प्रकार पानी में दूध की और मिट्टी में मिश्री की

भावना कर देखो ! यदि भावना सत्य है तो ये वस्तुएं भी भावना करने से वैसी

ही हो जावेंगी और यदि न होवें तो भावना से पाषाणादि मूर्ति भी देव नहीं हो

सकती। और यदि यह कहा जावे कि भावना झूठी है तो आपका मानना और

करना झूठ हो लिया । और यदि यह कहो कि चूंकि परमेश्वर सब में व्यापक

है इसलिये पाषाणादि मूर्तियाें में भी व्यापक है तो यह आप की बहुत बड़ी भूल

है कि आप लोग चन्दन और पुष्पादि लेकर मूर्तियों पर चढ़ाते हैं । क्या चन्दन

और फूल में परमेश्वर व्यापक नहीं ? और इस के अतिरिक्त अपने ही में परमेश्वर

को व्यापक क्यों नहीं मानते, पाषाणादि मूर्तियों को क्यों शिर नवाते हो ? जब

परमेश्वर व्यापक है और आप भी व्यापक मानते हैं तो केवल पाषाणादि मूर्तियों

ही में क्यों व्यापक मानकर उस की उपासना करते हो? इस दशा में तो केवल

एक वस्तु में परमेश्वर को व्यापक मानकर उस की व्यापकता को छोटा करते

हो । यदि यह कहा जावे कि मूर्तिपूजन अज्ञानी मनुष्यों के ब्रह्म को पहचानने

के लिए एक साधन बना रखा है तो यह बात भी बुद्धि और युक्ति से पूर्णतया

दूर है क्योंकि गुण गुणी से और गुण प्राप्त करने के साधनों से मिलता है । जड़

पदार्थ और ऐसे साधनों से कभी गुण नहीं मिल सकता है, इसलिये पाषाणादि

मूर्तिपूजन से तो दिन—प्रतिदिन बुद्धि पत्थर होती जायेगी । ब्रह्म के पहचानने की

तो बात ही क्या है और दूसरे आपके इस कथन से आपका पहला कथन भावना

का भी झूठ हो गया क्योंकि जब अज्ञानी लोग ब्रह्म को नहीं जान सकते हैं तो

वे केवल पाषाणादि मूर्ति को परमेश्वर जानेंगे न कि परमेश्वर को पत्थर से पृथव्Q

और पत्थर में व्यापक जानेंगे । और यदि यह कहो कि हम पाषाणादि मूर्ति में

प्राणप्रतिष्ठा करके प्राण डाल देते हैं फिर वह मूर्ति जड़ नहीं रहती है तो यह

बात बिल्कुल मूर्खता की है क्योंकि पाषाणादि मूर्ति में कभी प्राणप्रतिष्ठा से प्राण

आते नहीं देखे और न जीव के लक्षण तथा कर्म कभी मूर्ति में दृष्टिगोचर हुए।

और यदि आपके कथनानुसार यह मान भी लिया जाये कि प्राणप्रतिष्ठा से

पाषाणादि मूर्तियों में जान भी पड़ जाती है तो फिर आप मृतक को जीवित क्यों

नहीं कर लेते हैं । मृतक शरीर में तो श्वास के आने के लिये छिद्र भी होते हैं

परन्तु पाषाणादि मूर्तियों में कुछ भी नहीं होता है और यह जो आपने लिखा है

कि पाषाणादि मूर्तिपूजन परम्परा से चला आता है तो यह केवल भ्रम और अविघा

का फल है । विचार तो कीजिये कि यदि पाषाणादि मूर्तिपूजन सनातन है तो वेदों

में उसकी शिक्षा होनी चाहिये क्योंकि वेद सनातन हैं और जब वेदों में उसकी

शिक्षा नहीं तो पाषाणादि मूर्तिपूजन भी सनातन नहीं है । मन्दिर और धामादि के

विषय में तो आपने लिखा है कि ये सब पाषाणादि मूर्तिपूजन के सहायक हैं ।

जबकि पाषाणादि मूर्तिपूजन ही वेदविरुद्ध और झूठ सिद्ध हो लिया तो उनकी

क्या बात है ।

२प्रथम तो प्रश्न आप का विचित्र प्रकार का है उस की विशेषता

उस के वाक्य से ही प्रकट है, लिखने या कहने में नहीं आ सकती । आप

पूछते हैं कि गग जी के सब नदियों में पूजनीय और श्रेष्ठ होने में क्या प्रमाण

है? इस से विदित हुआ कि या तो गग जी आप की दृष्टि में श्रेष्ठ और

पूजनीय नहीं और यदि श्रेष्ठ और पूजनीय भी हैं तो आप इसका प्रमाण नहीं

दे सकते हैं । अन्यथा इस बात का मुझ से पूछना क्या आवश्यक था । अब

इतना प्रश्न जो शेष रहा कि यदि गग जी के पूजनीय और श्रेष्ठ होने में

कुछ सन्देह है तो प्रकट करो । इस का उत्तर है कि मुझ को इस बात में

किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं, प्रत्युत मैं निश्चय करके गग जी को श्रेष्ठ मानता

हूं क्योंकि और किसी नदी का ऐसा उत्तम और गुणसहित जल नहीं है परन्तु

गग जी को मुक्ति देने और पाप छुड़ाने का साधन नहीं मान सकता

हूं । भलीभांति समझ लो कि पाप और पुण्य जितना किया जाता है उस से

एक कण न घट सकता है और न बढ़ सकता है । और जब गग जी के

स्नान से मुक्ति प्राप्त हुई या पाप छूट गये तो फिर सत्यधर्म और उत्तम कर्म

करना, परमेश्वर की आज्ञा में चलना और उसकी स्तुति और उपासना करना

बिल्कुल व्यर्थ है क्योंकि जब एक चीज सरलता से मिल सकती है तो फिर

कठिन मार्ग को क्यों चलिये । वेदादि सत्यशास्त्रों में कहीं भी गग जी के

स्नान का माहात्म्य मुक्तिदायक होने में नहीं लिखा है और यदि कहो कि

तीर्थादि नाम तो वेद और धर्मशास्त्रों में लिखे हैं तो यह केवल समझ की

भूल है। वेदादि सत्यशास्त्रों में वेदों के पढ़ने, धर्म के अनुष्ठान और सत्य

के ग्रहण और असत्य के त्याग का नाम तीर्थ लिखा है क्योंकि इन साधनों

से ही मनुष्य दुःखसागर से तरकर मुक्ति पा सकता है। देखिये प्रथम तो मनु

जी महाराज ने मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के नववें श्लोक में लिखा है

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।

विघातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।।

इस का अर्थ यह हैजल से शरीर की शुद्धि, सत्य से मन की शुद्धि,

विघा और तप से जीवात्मा की शुद्धि और ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि होती है।

दूसरे छान्दोग्योपनिषद् का यह वचन है

अहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः ।’’

इस का अर्थ यह हैमनुष्यों को इस तीर्थ का सेवन करना उचित है

कि अपने मन से वैरभाव को छोड़कर सब के सुख देने में प्रवृत्त रहें और

संसारी व्यवहार के बर्ताव में किसी को दुःख न देवें । इस के अतिरिक्त

और कोई तीर्थ नहीं है ।

अब समझ लेना चाहिये कि सत्यशास्त्रों तथा अन्य युक्तियों के अनुसार

गग कभी मुक्तिदायक नहीं हो सकती ।

३आप जिन को परमेश्वर का अवतार कहते हैं ये महा उत्तम पुरुष

थे। परमेश्वर की आज्ञा में चलते थे, सत्य धर्म और न्यायादि गुणों सहित थे,

वेदादि सत्यशास्त्रों के पूर्ण जानने वाले थे । आज तक कोई और ऐसा हुआ

और न है परन्तु आप जो इन उत्तम पुरुषाें को परमेश्वर का अवतार मानते

हो यह आप की भ्रान्ति है। भला परमेश्वर का कभी अवतार हो सकता

है? वह तो अजर और अमर है । जब उस का अवतार हुआ तो उस का

यह गुण जाता रहा । इसके अतिरिक्त जब परमेश्वर व्यापक और सर्वत्र विघमान

है तो उसका एक शरीर में आना क्योंकर हो सकता है और यदि कहो कि

परमेश्वर प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक मनुष्य में विघमान है तो यह सत्य

है परन्तु यह नहीं कि केवल एक मनुष्य और एक स्थान में है और औरों

में नहीं । इस के अतिरिक्त परमेश्वर को जन्म लेने की क्या आवश्यकता

है ? यदि आप कहें कि रावण और कंसादि को विना अवतार लिये परमेश्वर

कैसे मार सकता था तो यह आप का कहना अत्यन्त अशुद्ध है । क्योंकि

जब वह निराकार परमेश्वर विना शरीर के सब जगत् का पालन और धारण

कर रहा है और विना शरीर के जगत् का प्रलय भी कर सकता है तो उस

को विना शरीर के कंसादि एक—दो मनुष्य का मारना क्या कठिन था ? और

जो यह बात आप पूछते हैं कि इन अवतारों का बनानेवाला कौन है और किस

ने इन को पराक्रम दिया अथवा ये स्वयं समर्थ थे । इसका उत्तर अत्यन्त सरल

और स्पष्ट है । सब का बनाने वाला और पराक्रम देनेवाला परमेश्वर है ।

उस के अतिरिक्त और कोई पराक्रम देने वाला नहीं हो सकता । परन्तु आप

के प्रश्न से प्रकट होता है कि आप की दृष्टि में कदाचित् कोई और भी

परमेश्वर के अतिरिक्त बनाने और पराक्रम देने वाला है । अपने आप तो न

कोई समर्थ हुआ और न है और न होगा । यह जो आप प्रश्न करते हैं कि

उन अवतारों की सी सामर्थ्य और किसी राजा अथवा मनुष्य में क्यों नहीं

हुई, यह आप का कहना तो बिल्कुल व्यर्थ है क्योंकि जिस में जैसे गुण होते

हैं वैसी उस में सामर्थ्य होती है और जैसी जिस में सामर्थ्य है वैसे ही उस

में गुण होते हैं । आजकल बहुत से ऐसे मनुष्य हैं कि बिल्कुल कर्महीन और

अज्ञानी हैं और बहुत से ऐसे विद्वान् सामर्थ्य और पराक्रम वाले हैं कि हजारों

में और कोई उन के समान नहीं तो क्या इस कारण से उन सामर्थ्य वाले

मनुष्यों को परमेश्वर का अवतार कहना या मानना उचित है ? वाह ! वाह!

परमेश्वर का अवतार होने का आपने क्या बढि़या प्रमाण सोच रखा है । किसी

ने सत्य कहा है

प्रत्येक की विचारशक्ति उसकी सामर्थ्य के अनुसार होती है ।’

परन्तु बड़े दुःख की बात है कि आप लोग यघपि रामचन्द्र जी और

श्रीकृष्णादि उत्तम पुरुषों को परमेश्वर का अवतार मानते हो फिर भी उन की

परले सिरे की निन्दा और बुराई करने में संलग्न रहते हो । नगर—नगर और

गली—गली में उन की पाषाणादि की मूर्ति बनवाकर उन से भीख मंगवाई जाती

है और पैसे—पैसे के लिए सर्वसाधारण के सामने उन के हाथ फैलवाये जाते

हैं । जब धनवान् अथवा साहूकार शिवालय या मन्दिर में आते हैं या पुजारी जी

स्वयम् उन के पास जाते हैं तो कहते हैं कि सेठ जी ! आज तो नारायण भूखे

हैं, राधाकृष्ण जी को कल रात से बालभोग नहीं मिला है । इन दिनों तो सीता—राम

जी को प्रशादी की ही कठिनाई पड़ रही है । सर्दी के कपड़े नारायण के पास

नहीं हैं और शीतकाल शिर पर आ गया है । पुराने कपड़े सीताराम जी के तो

कोई दुष्ट चुरा ले गया, उसी दिन से हम सीताराम जी को ताली कुञ्जी में बन्द

रखते हैं, नहीं तो उन की भी कुशलता नहीं थी। और यदि किसी रईस या

धनवान् की ओर से शिवालय या मन्दिर का मासिक व्ययादि नियम हुआ तो

पुजारी जी या बाबा जी जब कहीं बैठे होते हैं तो अपनी झूठी प्रेमभक्ति को जताने

के लिए कहते हैं कि लो यजमान ! हम को जाने दो, अब हमारे सीताराम जी

या राधाकृष्ण जी भूखे होंगे और जब हम जावेंगे तो उन को भोजन मिलेगा अन्यथा

भूखे बन्द रहेंगे । अब देखिये रामलीला को बनवाकर किस प्रकार आप लोग

अपने उत्तम पुरुषों की नकल बनवाते और कितनी उन की निन्दा कराते हो और

अन्य मतवालों को उन पर हंसवाते हो और उन का अपमान कराते हो । इस

लीला का तो कुछ वर्णन ही नहीं, देखो प्रायः लोग क्या धनवान्, क्या रईस, क्या

दुकानदार और क्या श्रमिकादि, सब इस रास की सभा में एकत्रित होते हैं और

रास देख—देख अत्यन्त प्रसन्न होते हैं । कोई कहता है कि कृष्ण जी अच्छा नाचते

हैं, कोई कहता है राधा जी बड़ी शोभावान् हैं, कोई कन्हैया जी के गाने पर प्रसन्न

हो रहा है, कोई राधा जी की मूर्ति पर मोहित और लट्टू है अत्यन्त प्रेमभक्ति

प्रकट कर रहा है । कोई कहता है वाह ! वाह ! साक्षात् राधाकृष्ण जी ही आ

गये हैं । इन्हीं कन्हैया जी ने हजारों गोपियों के साथ भोगविलास किया है। १६००

रानियां रखी हैं, बहुत दूध माखन चुराकर खाया है, नहाते हुए नंगी स्त्रियों के

कपड़े तक चुरा लिये हैं और उन को पहरों नग्न सामने खड़ा रखा है ।

अधिक और कहां तक तुम्हारी बातों का वर्णन करूं । अब लज्जा भी रोकती

है और बुद्धि भी आज्ञा नहीं देती परन्तु खेद, लाख बार खेद कि आप लोग अपने

देश के ऐसे—ऐसे राजा, महाराजों को जो हजारों—लाखों पर शासन करते थे और

उन का पालन तथा सहायता करते थे । और ऐसे उत्तम पुरुषों को जो समस्त

आयु परमेश्वर की आज्ञा में रहे, सत्यवादिता, सदाचार और धर्म्म के कामों में

अद्वितीय हुए, उन को खाने, कपड़े का भिक्षुक बनाते हो, अधर्मी, व्यभिचारी,

तमाशबीन और चोर ठहराये हो । और केवल अपनी स्वार्थ—सिद्धि और मनोरञ्जन

के लिए उन की अपकीर्ति करते और कराते हो। और उन के विषय में ऐसी

झूठी कहानियां कि जिन का प्रमाण किसी पुस्तक या इतिहास से प्राप्त नहीं हो

सकता, अपने मन से बना—बनाकर वर्णन करते हो और फिर अपने आप को

उन का भक्त, गुणगायक और प्रशंसक समझते हो । हाय, हाय, इन बातों के

वर्णन से मन पर इतना शोक और दुःख का भार है कि अधिक वर्णन करने की

सामर्थ्य नहीं । इसलिए इसी पर सन्तोष करता हूं और अपने इस कथन के समर्थन

में कि परमेश्वर का अवतार किसी अवस्था में नहीं हो सकता है, दो वेदमन्त्र

कहता हूं । पहला यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का आठवां मन्त्र है और दूसरा

यजुर्वेद के ३१वें अध्याय का पहला मन्त्र है

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् । कविर्मनीषी

परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।।

इस मन्त्र का अर्थ यह है परमेश्वर सब में व्यापक और अनन्त पराक्रम

वाला है, वह सब प्रकार के शरीर से रहित है कटने, जलने आदि रोगों से

परे है, नाड़ी आदि के बन्धन से पृथव्Q है। सब दोषों से रहित और सब पापों

से न्यारा है । सब का जानने वाला, सब के मन का साक्षी, सब से श्रेष्ठ

और अनादि है । वही परमेश्वर अपनी प्रजा को वेद के द्वारा अन्तर्यामी रूप

से व्यवहारों का उपदेश करता है ।

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।

स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।

इस मन्त्र का अर्थ यह है परमेश्वर तीनों प्रकार के जगत् (अर्थात् भूत,

भविष्य और वर्तमान) को रचता है, उस से भिन्न दूसरा और कोई जगत् का

रचने वाला नहीं है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है । मोक्ष भी परमेश्वर की

ही कृपा से मिलता है । पृथिवी आदि जगत् परमेश्वर के व्यापक होने से

स्थित हैं और वह परमेश्वर इन वस्तुओं से पृथव्Q भी है क्योंकि उस में जन्मादि

व्यवहार नहीं । वह अपने सामर्थ्य से सब जगत् को उत्पन्न करता है और

आप कभी जन्म नहीं लेता है ।

अब भली प्रकार सिद्ध हो गया कि वेद और बुद्धिपूर्वक युक्तियों के

अनुसार परमेश्वर का अवतार किसी प्रकार से नहीं हो सकता । इति ।

नोटउपर्युक्त प्रश्न धर्मरक्षिणी सभा मेरठ की ओर से स्वामी जी महाराज

से उस समय पूछे गये जब वे ५ सितम्बर, सन् १८७८ से ला० रामसरनदास

साहब रईस, मेरठ के मकान पर उन के अनुरोध से व्याख्यान दे रहे थे ।

१० सितम्बर को सभा समाप्ति के समय सभा में यह घोषणा की गई कि

समस्त आये हुए प्रश्नों के उत्तर कल से दिये जाने आरम्भ होंगे। जिन सज्जनों

ने प्रश्न किये हैं वे कल के दिन से सभा में आकर उत्तर सुन लें और जिस

किसी को उत्तरों के लिखने की इच्छा हो वह उसी समय लेखबद्ध कर लें

। इस घोषणा के अनुसार तीन दिन में समस्त प्रश्नों के उत्तर स्वामी जी ने

सभा में दे दिये । (लेखराम पृष्ठ ४०१, ४०९)

मेरठ में शास्त्रार्थ के नियम

सितम्बर, १८७८

१उभय पक्ष से निम्नलिखित १२ सज्जन सभा के प्रबन्धक नियत

किये जायें, यदि वे स्वीकार करें ।

यहां १२ सज्जनों के नाम थे ।

२इन में से एक सज्जन और यदि सम्भव हो तो मातहत जज साहब

प्रबन्धक सभा के सभापति नियत किये जायें ।

३प्रबन्धकों के अतिरिक्त उपस्थित जन की संख्या हर एक ओर से

पचास—पचास से अधिक न हो तो अच्छा है ।

142

४उपस्थित होने वालों की जो संख्या नियत की जावे उतने ही टिकट

छपवाकर आधे—आधे हरेक पक्ष को दिये जावें ।

५हर एक पक्ष अपनी ओर के उपस्थित मनुष्यों को नियम में रक्खे

और सब प्रकार से उन का उत्तरदाता रहे ।

६हर एक पक्ष की ओर से योग्य पण्डितों की संख्या दस से

अधिक न हो, कम का अधिकार है ।

७उभयपक्ष में से केवल एक ही पण्डित सभा में भाषण करे अर्थात्

एक ओर से स्वामी दयानन्द और दूसरी ओर से पण्डित श्रीगोपाल ।

८इस सभा में हर विषय का खण्डन—मण्डन वेदों के प्रमाण ही से

किया जावे ।

९वेदमन्त्रों के अर्थों के निश्चय के लिए ब्रह्मा जी से जैमिनि जी

तक के ग्रन्थों की, जिसे दोनों पक्ष मानते हैं, साक्षी देनी होगी जिन का ब्यौरा

इस प्रकार है

ऐतरेय, शतपथ, साम, गोपथ, शिक्षा कल्प, व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु,

छन्द, ज्योतिष, पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य, वेदान्त, आयुर्वेद,

गान्धर्ववेद अर्थवेद आदि ।

१०विदित रहे कि ऐतरेय ब्राह्मण से लेकर अर्थवेदादि तक ऋषियों

और मुनियों की ही साक्षी और प्रमाण होंगे, परन्तु यदि इन में भी कोई वाक्य

वेदविरुद्ध होगा तो दोनों पक्ष उस को स्वीकार न करेंगे ।

११उभयपक्ष को वेदाें तथा प्रत्यक्षादि प्रमाणों, सृष्टि—क्रम और सत्य

धर्म से युक्त भाषण करना तथा मानना होगा ।

१२इस सभा में जो व्यक्ति किसी पक्ष का पक्षपात और राग प्रदर्शन

करे, उसे सहस्र ब्रह्महत्या का पाप होगा ।

१३यतः बहुत बड़ी बात केवल एक पाषाणादि मूर्तिपूजन ही है, इस

लिए इस सभा में मूर्तिपूजन का खण्डन और मण्डन होगा और यदि वेदाें की

रीति से पण्डित जी पाषाणादि मूर्तिपूजन का मण्डन कर देवें तो पण्डित जी

की सब बातें भी सच्ची समझी जावेंगी और स्वामी जी मूर्तिपूजन का खण्डन

को छोड़ मूर्तिपूजन स्वीकार कर लेवेंगे और जो स्वामी जी वेदों के प्रमाण

से पाषाणादि मूर्तिपूजन का खण्डन कर देवें तो स्वामी जी की और बातें भी

सच्ची समझी जावेंगी और पण्डित जी उसी समय से मूर्तिपूजन छोड़कर

मूर्तिपूजन का खण्डन स्वीकार कर लेवें । ऐसा ही उभय पक्ष को स्वीकार

करना होगा ।

१४उभयपक्ष से प्रश्नोत्तर लिखित होने चाहियें अर्थात् हर एक प्रश्न

मौखिक किया जावे और तत्क्षण लिख दिया जावे । बल्कि जहां तक सम्भव

हो वक्ता का एक एक शब्द लिखा जावे ।

हर एक प्रश्न के लिए पांच मिनट और हर एक उत्तर के लिए पन्द्रह

मिनट नियत हों और नियत समय की कमी का अधिकार है, परन्तु अधिक

समय का नहीं ।

१५सभा में स्वामी जी, पण्डित जी तथा अन्य पुरुषाें की ओर से

आपस में कोई कठोर भाषण न हो, प्रत्युत अत्यन्त सभ्यता और नम्रता से

सत्यासत्य का निश्चय करें ।

१६सभा का समय ६ बजे सायंकाल से नौ बजे रात्रि तक रहे तो

उत्तम है ।

१७प्रश्नोत्तर के लिखने के लिए तीन लेखक नियत होने चाहिए और

प्रत्येक लेख पर मिलान करने के पश्चात् प्रतिदिन दोनाें पक्षों के हस्ताक्षर होकर

एक—एक प्रति हर पक्ष को दी जावे और (एक) प्रति बक्स में बन्द करके उस

पर उभयपक्ष और सभापति का ताला लगाकर सभापति के पास रहे ताकि लेखों

में कुछ न्यूनाधिक न होने पावे और आवश्यकता के समय काम आये ।

१८सभास्थल सब प्रबन्धकों की सम्मति के अनुसार नियत होगा ।

१९जम्मू और काशी आदि स्थानाें के पण्डितों की सम्मति के ऊपर

इस सभा के निर्णय का निर्भर न होना चाहिए क्याेंकि ये स्थान मूर्तिपूजा के

घर हैं और यहां इस विषय में पण्डितों से शास्त्रार्थ भी हो चुका है । इसलिए

उपर्युक्त वेद—शास्त्रादि जिन में हर विषय की विशद व्याख्या की गई है मध्यस्थ

और साक्षी के लिए पर्याप्त हैं । हां यह अधिकार है कि यदि दूसरे पक्ष को

कुछ सन्देह व संशय हो तो आज १७ तारीख सितम्बर, सन् १८७८ से दो

दिन के भीतर उपर्युक्त स्थानों व अन्य जगह से उस पण्डित से जो उस की

सम्मति में उत्तम और श्रेष्ठ हो आने जाने के विषय में तार द्वारा बातचीत

करके स्थिर कर ले वा प्रबन्ध कर लें और आज से छः दिन के भीतर अर्थात्

२२ सितम्बर, रविवार के दिन तक उसे यहां बुला लेवें। यदि दूसरे पक्ष की

ओर से इस अन्तर में उचित प्रबन्ध न हो वा विरुद्ध कार्यवाही हो तो उस

पक्ष की सभी बातें कच्ची और आधार—शून्य समझी जावेंगी और स्वामी जी

इस अन्तर में कहीं चले जावें वा इस लेख से बद्ध न रहें तो उन की बात

कच्ची और आधारशून्य समझी जावेगी ।

२०दोनों पक्षों को सभा में वे सब पुस्तकें, जिन का वे प्रमाण दें सभा

144

के समय अपने साथ लानी चाहियें । उभयपक्ष को विना असली पुस्तकों के

मौखिक साक्षी स्वीकार न होगी ।

अन्तिम नियम लाला किशनसहाय को नहीं लिखाया गया था, परन्तु

आगे कोई कठिनता न हो इस बात को दृष्टि में रखकर यह नियम भी सम्मिलित

किया गया । लिखा हुआ १७ सितम्बर, सन् १८७८ का ।

१८ सितम्बर को भी लाला किशनसहाय ने कोई उत्तर न भेजा परन्तु

पण्डित श्रीगोपाल की ओर से कुछ नियम इन नियमों के परिवर्तन में महाराज

के पास आये ।

पं० श्रीगोपाल जी ने स्वामी जी के प्रस्तावित नियमों में निम्नलिखित

परिवर्तन करके भेजे थे ।

१प्रबन्धकों में ८ नाम और बढ़ाए जावें और उन्हें प्रबन्धक सभा और

निश्चयकर्त्ता सनातनधर्म लिखना चाहिये ।

२मध्यस्थ अवश्य होना चाहिए और साहब कलक्टर जिला बुलन्दशहर

संस्कृतज्ञ हैं, मध्यस्थ हों ।

३उपस्थित होने वाले मनुष्यों की संख्या सीमित करने और टिकट

देने की कोई आवश्यकता नहीं ।

४झूठ सच को विना पक्षपात प्रकट करने के लिए मध्यस्थ होना

आवश्यक है जब कि आप कहते हैं कि ग्रन्थों में वेदविरुद्ध वाक्य होगा तो

उस का प्रमाण न माना जावेगा ।

५समय चार बजे से सात बजे तक रहेगा । ५ मिनट प्रश्न और १५

मिनट उत्तर लिखने के लिए अपर्याप्त हैं समय की कोई सीमा न होनी चाहिए।

६दो दिन में बाहर के पण्डितों का आना असम्भव है, अतः उन्हें

लाने के लिए मनुष्य भेजना पड़ेगा और जब तक वे न आवें आप को यहां

ही ठहरना होगा । यदि इसे स्वीकार न करें तो किसी वेद और उभयपक्ष स्वीकृत

ग्रन्थों के जानने वाले विद्वान् को मध्यस्थ बनावें । विना मध्यस्थ के सभा

का पूरा—पूरा प्रबन्ध नहीं हो सकता ।

१८ सितम्बर को महाराज ने अपने हस्ताक्षरों से एक पत्र लाला

किशनसहाय के पास भेजा कि यदि आप हृदय से कुछ निर्णय करना चाहते

हैं तो आप नियम के अनुसार कार्य कीजिये, हम उन से बद्ध हैं । इस के

उत्तर में एक पत्र विना हस्ताक्षरों के लाला किशनसहाय के नाम से आया

जिस में लिखा था कि पण्डितों की बातों से ज्ञात हुआ कि आप वेदविरुद्ध

उपदेश करते हैं और कुछ अनुचित शब्द महाराज के विषय में लिखे थे ।

मेरठ में शास्त्रार्थ के नियम 145

इस के उत्तर में महाराज ने लिखा कि आपको वेदों से अनभिज्ञ पण्डितों

के कहने से ऐसा लिखना उचित न था । उत्तम हो यदि आप उचित समझें

तो मैं अपने दो विघार्थियों को आपके यहां सभा में भेज दूं और वे यदि आप

अनुमति दें तो आपके पण्डितों से वेद विषय में कुछ प्रश्न करें, तब आप

को पण्डितों की व्यवस्था ज्ञात हो जायेगी । यदि आप को यह स्वीकार न

हो तो आप कृपापूर्वक मेरे निवास स्थान पर अर्थात् बाबू छेदीलाल के गृह

पर पधारें और सब शटाओं को निवृत्त कर लेवें । इस का उत्तर तो आया,

परन्तु उस पर प्रेषकों के हस्ताक्षर न थे । उस का सार यह था कि आप

वेद बिल्कुल नहीं जानते और आप मार्ग भूले हुए हैं और हमारे पण्डित विद्वान्

हैं । हमें हमारे पण्डित यथा पण्डित श्रीधर कहते और लिखते हैं कि जब

तक आप अपना वर्ण और आश्रम सिद्ध न कर देवेंगे तब तक हमें आप के

पास नहीं आना चाहिए और न पण्डितों को आप से सम्भाषण करना चाहिये।

अब तो शास्त्रार्थ स्पष्ट रूप से नकार हो गया और सारा भांडा फूट

गया । सनातनधर्म—रक्षिणी सभा ने जो शास्त्रार्थ के लिए इतना आडम्बर रचा,

वह दिखाने मात्र को था । भला इस के भी कोई अर्थ थे कि महाराज तो

बार—बार कहें कि लाला किशनसहाय के हस्ताक्षरों का पत्र लाओ परन्तु लाला

साहब अपने नाम से पत्र तो भिजवाते हैं परन्तु उन पर हस्ताक्षर नहीं करते

और अन्त तक किसी पत्र पर उन्होंने हस्ताक्षर किये ही नहीं ।

(देवेन्द्रनाथ २।२१७, लेखराम पृष्ठ ४१३ से ४१७)