जैसा स्वामी नारायण है वैसा मैं नहीं हूं

अज्ञातनामा के प्रश्नों का उत्तर

बम्बई के रहने वाले किसी अज्ञात ….. नाम ने कार्तिक शुक्ल

४, शुक्रवार, संवत् १९३१ को २४ प्रश्न छपवाकर स्वामी जी के पास भिजवाये।

स्वामी पूर्णानन्द ने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की सम्मति से इन प्रश्नों के

उत्तर में निम्नलिखित विज्ञापन—पत्र प्रकाशित किया

विज्ञापन—पत्र’’

विदित हो कि जैसा स्वामी नारायण है वैसा मैं नहीं हूं और जिस प्रकार

जयपुर नगर के गोसाईं की पराजय हुई ऐसा भी मैं नहीं हूं । बम्बई नगर

के निवासी किसी एक हरिभक्तों के चरणों के इच्छुक …….. ऐसे गुप्त

नाम वाले पुरुष के संवत् १९३१, कार्तिक शुक्ल पक्ष ४, शुक्रवार को

ट्टट्टज्ञानदीपक’’ यन्त्रालय के छपे हुए २४ प्रश्नों का उत्तर दिया जाता है

पहले प्रश्न का उत्तरप्रत्यक्षादि प्रमाणों को स्वीकार करता हूं ।

दूसरे प्रश्न का उत्तरचारों वेदों को प्रमाण मानता हूं ।

तीसरे प्रश्न का उत्तरचारों संहिताओं को प्रमाण मानता हूं परन्तु

परिशिष्ट को छोड़कर (अर्थात् परिशिष्ट को प्रमाण नहीं मानता, वह अप्रमाण

है) ब्राह्मणादिकों को मैं मत के रूप में स्वीकार नहीं करता परन्तु उनके रचयिता

जो ऋषि हैं उनकी वेद विषय में कैसी सम्मति है, यह जानने के लिए अध्ययन

करता हूं कि उन्होंने कैसा अर्थ किया है और उनका क्या सिद्धान्त है ।

चौथे प्रश्न का उत्तरतीसरे में समझ लेना ।

पांचवें का उत्तरशिक्षादिक जो वेदाग् हैं और उनके कर्ता जो मुनि

हैं उनकी वेद के विषय में कैसी सम्मति है यह जानने के लिये देखता हूं।

उनको मत मान के स्वीकार नहीं करता ।

छठे का उत्तरवेद, वेदाग्, भाष्य और उनके व्याख्यान जो आर्ष अर्थात्

ऋषिप्रणीत हैं उनको मत मानकर स्वीकार नहीं करता किन्तु परीक्षा के लिये

वे ठीक किये गये हैं वा नहीं किये गये इसलिये देखता हूं, वह मेरा मत

नहीं है ।

सातवें का उत्तरजैमिनिकृत पूर्वमीमांसा, व्यासकृत उत्तरमीमांसा,

चरणव्यूहइनको भी मत मानकर संग्रह नहीं करता किन्तु इनके मत की परीक्षा

के लिये देखता हूं, और प्रकार नहीं ।

आठवें का उत्तरपुराण, उपपुराण, तन्त्रग्रन्थ, इनके अवलोकन और

अर्थ में श्रद्धा ही नहीं करता, इनके प्रमाण की कथा तो क्या कथा है ।

नववें का उत्तरसारा भारत और वाल्मीकिरचित रामायण का

प्रमाण नहीं क्याेंकि लोक में बहुत प्रकार व्यवहार है । उनके वृत्तान्त का

जानना ही उनका अभिप्राय है क्योंकि वे मर चुके हैं ।

दसवें का उत्तर भी नववें में समझ लेना ।

ग्यारहवें का उत्तरमनुस्मृति को मनु का मत जानने के लिये देखता

हूं । उसको इष्ट समझ कर नहीं ।

बारहवें का उत्तरयाज्ञवल्क्यादि और मिताक्षरादि का तो प्रमाण ही नहीं

करता ।

तेरहवें का उत्तरबारहवें में समझ लेना ।

चौदहवें का उत्तरविष्णुस्वामी आदि जो सम्प्रदाय हैं उनका प्रमाण मैं

लेशमात्र भी नहीं करता प्रत्युत उनका खण्डन करता हूं क्याेंकि ये सारे सम्प्रदाय

वेद—विरुद्ध हैं ।

पन्द्रहवें का उत्तर चौदहवें में समझ लेना ।

सोलहवें का उत्तरमैं स्वतन्त्र नहीं हूं प्रत्युत वेद का अनुयायी हूं, ऐसा

समझना चाहिये ।

सत्रहवें का उत्तरजगदुत्पत्ति जैसी वेद में लिखी है और जिसने की

है, उस सारे को उसी प्रकार मानता हूं ।

अठारहवें का उत्तरजिस समय से सृष्टि का क्रम हुआ है उस काल

की कोई संख्या नहीं है, यह जानना चाहिये ।

उन्नीसवें का उत्तरवेदोक्त जो यज्ञादि कर्म हैं वे यथाशक्ति सब करने

चाहियें ।

बीसवें का उत्तरवेदोक्त जो विधि है वह माननी चाहिये, और नहीं।

इक्कीसवें का उत्तरशाखाओं में जो कर्म कहे हुए हैं वे वेदानुकूल

होने से प्रमाण हैं, विरुद्ध होने से नहीं ।

बाईसवें का उत्तरपरमेश्वर का कदाचित् जन्म—मरण नहीं होता।

(जिसके जन्म—मरण होते हैं, वह ईश्वर ही नहीं है।) सर्वशक्तिमान् होने से,

अन्तर्यामी होने से, निरवयव होने से, परिपूर्ण होने से, न्यायकारी होने से ।

तेईसवें का उत्तरमैं संन्यासाश्रम में हूं ।

चौबीसवें का उत्तरसत्यधर्म—विचार नामक पुस्तक जिसने यन्त्रालय

में छपवाई, उसका मत उसमें है, मेरा उसके मत में आग्रह नहीं ।

यदि हम आर्य्य लोग वेदोक्त धर्म के विषय में प्रीतिपूर्वक पक्षपात को

छोड़कर विचार करें तो सब प्रकार कल्याण ही कल्याण है, यही मेरी इच्छा

है । तिसके लिये नित्य सभा होनी चाहिए तो श्रेष्ठ समझो । जिस प्रकार

से बहुत प्रकार के सम्प्रदायों का नाश हो जाये वैसा सब को करना

चाहिये ।

परन्तु १३, १४, १५ प्रश्नों का पीसे को फिर पीसना है। उसके समान

पुनरुक्त दोष से दूषित को न समझकर यह मैं ने जाना कि जिसको प्रश्न

करने का ज्ञान नहीं उसके समागम में उचित विचार किस प्रकार हो सकेगा।

ऐसी मेरी सम्मति है क्योंकि जहां भोजन की ही चिन्ता है वहां धन का एकत्रित

होना असम्भव है और जिसने प्रश्न किये उसने अपना नाम भी नहीं लिखा,

यह भी एक दोष है । ऐसा सज्जनों को समझना चाहिए । इसमें स्वामी जी

की सम्मति है । इसके उपरान्त जो कोई अपना प्रकट नाम लिखने के विना

प्रश्न करेगा, उसका उत्तर उसी से दिलाउंQगा और जिस सम्प्रदाय को जो मानता

है उसको संक्षेपतया जब तक न कहेगा तब तक उसका भी उसी से दिलाउंQगा।

प्रसिद्धकर्त्ता स्वामी पूर्णानन्द, कार्तिक शुक्ल ७, सोमवार, संवत् १९३१,

तदनुसार १६ नवम्बर, सन् १८७४ । उसके पश्चात् न तो उस पहले प्रश्नकर्त्ता

ने मुख दिखलाया और न किसी और ने सम्मुख होकर शास्त्रार्थ किया और

न गिट्टूलाल शास्त्री आदि वैष्णव मत के विद्वानों ने कभी शास्त्रार्थ करने

का नाम लिया और न कभी स्पष्ट अपना नाम लिखकर कोई विज्ञापन प्रकाशित

किया । रणक्षेत्र का वीर बनकर सामने आना और मूर्तिपूजा को वेदानुकूल

सिद्ध करना तो नितान्त असम्भव और जान का जंजाल हो गया ।

(लेखराम पृ० २४६—२४८)