‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन। जैसा पिये पानी, वैसी बने वाणी। जैसा करे संग, वैसा चढ़े रंग।” तो मित्रों के, रिश्तेदारों आदि के घर में भ्रष्टाचार का धन आता है और वहाँ जाना ही होता है। वहाँ का अन्न, पानी ग्रहण न करने पर संबंध बिगड़ते हैं। और यदि स्वीकार करेंगे, तो मन बिगड़ेगा। बताइये क्या करना चाहिये?

आपके मित्र-संबंधी, रिश्तेदार जिनके बारे में आपने यह प्रश्न लिखा है, कि वो चोरी से, बेईमानी से, भ्रष्टाचार से धन कमाते हैं? क्या वो सारा सौ प्रतिशत धन चोरी, बेईमानी से कमाते हैं या फिर कुछ मेहनत, ईमानदारी से भी कमाते हैं। कुछ तो मेहनत से कमाते हैं, कुछ तो ईमानदारी का होता है। मित्रों के यहाँ और रिश्तेदारी में, आना-जाना, खाना-पीना सब कुछ करना पड़ता है। तो जब आपको वहाँ खाना-पीना पड़े तो उनकी जो मेहनत और ईमानदारी की कमाई है, उसमें से खा लेना। बेईमानी वाला छोड़ देना, वो मत खाना। आपका मन भी नहीं बिगड़ेगा और रिश्ता भी नहीं बिगड़ेगा, दोनों ठीक बने रहेंगे। समाधान तो यही है।
इसे और स्पष्ट समझने के लिये एक अन्य उदाहरण देता हूँ। एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा – ‘ सेठ लोगों का धन कुछ ईमानदारी का और कुछ बेईमानी का (मिला-जुला( होता है। अतः उन सेठों से दान लेना उचित है ? मैंने कहा- ‘हाँ, दान लेना चाहिये। दान देना एक पुण्य कर्म है। कोई सेठ पुण्य कमाना चाहे तो क्या उसे पुण्य कमाने का अधिकार नहीं है। यदि है तो वह दान देगा, और संस्था लेगी। वह व्यक्ति बोला- ‘सेठ का धन तो मिला-जुला है। संस्था उससे दान लेगी, तो संस्था वालों में भी बेईमानी का दोष आ जायेगा।’ मैंने कहा- क्या कोई व्यक्ति अपने जीवन में सारे कर्म अच्छे ही करता है या कुछ बुरे भी करता है? यदि दोनों प्रकार के करता है तो सेठ जो दान देता है, वह अच्छा कर्म है। और व्यापार में जो थोड़ी बहुत बेईमानी करता है, वह बुरा कर्म है। वह अलग कर्म है। बुरे कर्म का दण्ड उसे भोगना पड़ेगा। आप इन दोनों कर्मो को मिश्रित (मिक्स( मत करिये। सेठ कर्म करने में स्वतंत्र है। वह कुछ काम अच्छे भी करता है और कुछ बुरे भी करता है। ऐसे ही सभी लोग करते हैं। आपको पाप तो तब लगेगा, जब आप मित्रों-संबंधियों के घर जाकर उनकी वस्तुयें चुराकर खायेगें। तब वह बुरा कर्म होगा। यदि वे लोग प्रेमपूर्वक, श्रृ(ापूर्वक आपको भोजन आदि खिलाते हैं, और आप खाते हैं, तो इसमें कोई बुराई नहीं है।

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