(जैन साधु सिद्धकरण जी से मसूदा में शास्त्रार्थ ६ जौलाई से १६ जौलाई, १८८१ तक)

जब आषाढ़ बदि १२, संवत् १९३८ तदनुसार २३ जून, सन् १८८१

को स्वामी जी धर्मोपदेश के निमित्त मसूदा पधारे तो कई दिन तक निरन्तर

व्याख्यान देने के पश्चात् ५ जौलाई, सन् १८८१ को राव बहादुरसिंह साहब

रईस मसूदा ने अपनी रियासत के सम्मानित जैनियों को बुलाकर कहा कि

तुम अपने किसी विद्वान् पण्डित या मतावलम्बी को बुलाओ ताकि उस से

स्वामी जी का शास्त्रार्थ कराया जावे और सत्यासत्य का निर्णय हो ।

जैनियों ने उत्तर दिया कि हम अपने साधु सिद्धकरण जी को बुलाते

हैं, वे स्वामी जी से शास्त्रार्थ करेंगे ।

रावसाहब ने कहा कि वे कहां हैं ? जैनियों ने उत्तर दिया कि वे ग्राम

सर्वाड़ किशनगढ़ क्षेत्र में यहां से १६ कोस पर हैं । रावसाहब ने कहा कि

हमारे यहां से सवारी ले जाओ और तुम में से कोई जाकर साधु जी को बुला

लाये । उन्होंने उत्तर दिया कि सवारी पर बैठकर वे नहीं आते परन्तु उन का

चतुर्मासा यहां पर करना निश्चित हुआ है, इसलिए विश्वास है कि कल आ

जावेंगे । दैवयोग से प्रातःकाल आषाढ़ सुदि १०, संवत् १९३८ तदनुसार ६

जौलाई, सन् १८८१, बुधवार को साधु जी वहां आ विराजे । आषाढ़ सुदि

१३, अर्थात् ९ जौलाई, सन् १८८१, शनिवार को स्वामी जी महाराज अपने

नियमानुसार भ्रमण को गये तो सिद्धकरण साधु से जो शौचादि से निवृत्त होकर

आते थे, मार्ग में भेंट हो गई । साधु ने स्वामी जी के निकट आकर कहा

किआपका क्या नाम और कहां से पधारना हुआ ।

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि मेरा नाम दयानन्द सरस्वती है और अजमेर

से आया हूं । फिर स्वामी जी ने कहा कि आप का क्या नाम है और कहां

से आना हुआ । साधु जी ने कहा कि मेरा नाम सिद्धकरण है और सर्वाड़

किशनगढ़ क्षेत्र से आया हूं, चार मास यहीं रहूंगा ।

स्वामी जीयहां पर आप कहां ठहरे हैं ?

साधु ने कहा कि एक उपाश्रय में ।

स्वामी जी ने कहा कि आप ही को जैनियों ने बुलाया है ?

साधुहां मुझी को ।

और साधु जी ने कहा कि आप का पेट तो बड़ा मोटा है, क्या इस

में ज्ञान भरा है ? आप लोहे का तवा बांध लीजिये नहीं तो फट जायेगा ।

आप को ज्ञान—अजीर्ण हो रहा है ।

स्वामी जी ने उस का उस समय उत्तर देना अनुचित समझ साधु से

यह प्रश्न किया कि आप लोग मुख पर पट्टी बांधते और गर्म जल क्यों पीते

हो ?

साधु जी ने कहा कि जो आप भी मुख पर पट्टी बांधें तो मैं इस का

उत्तर दूं ।

अभी इन में परस्पर वादानुवाद हो ही रहा था कि रावसाहब ने जो

प्रायः अपने महल की छत पर बैठ प्रातःकाल दूरवीक्षण द्वारा स्वामी जी को

भ्रमण करते देखा करते थे, देखा कि किसी से स्वामी जी वार्ता कर रहे हैं।

तत्काल ही रावसाहब घोड़े पर सवार होकर स्वामी जी के पास आ उपस्थित

हुए । रावसाहब को देख साधु चलने लगा । तब रावसाहब ने साधु जी से

कहा कि ठहरो, प्रश्न करो, क्यों जाते हो ? अन्त को रावसाहब के आते

ही साधु जी चले ही गये और स्वामी जी महाराज और राव बहादुरसिंह जी

मार्ग में परस्पर वार्ता करते हुए निज स्थान को पधारे । फिर स्वामी जी ने

श्रावण बदि २, संवत् १९३८, बुधवार तदनुसार १३ जौलाई, सन् १८८१ को

निम्नलिखित प्रश्न पण्डित छगनलाल कामदार और ज्योतिषी जगन्नाथ आदि

सम्मानित व्यक्तियों के हाथ सिद्धकरण साधु के पास भेजे ।

प्रश्नजैन मतान्तर्गत तुम लोग ढूंढि़ये जो मुख पर पट्टी बांधना अच्छा

जानते हो, यह तुम्हारी बात विघा और प्रत्यक्षादि प्रमाणों की रीति से सिद्ध

नहीं है । इस से जो तुम ऐसा मानते हो कि मुख की वायु से जीव मरते

हैं तो भी ठीक नहीं क्योंकि जीव अजर—अमर हैं और तुम भी ऐसा ही मानते

होगे । जो तुम कहो कि जीव तो नहीं मरता परन्तु उस को पीड़ा अर्थात् दुःख

देवें तो हम पाप के भागी होते हैं तो भी सर्वथा ठीक नहीं क्योंकि ऐसा किए

विना किसी का निर्वाह नहीं हो सकता । इस में जो तुम कहते हो कि जहां

तक बन सके, वहां तक जीवों की रक्षा करनी चाहिए । कारण सर्व वायु

आदि पदार्थ जीवों से भरे हैं । इसलिए हम लोग मुख पर कपड़ा बांधते हैं

कि मुख से उष्ण वायु निकलने से बहुत से जीवों को दुःख और बांधने से

थोड़े जीवों को कष्ट पहुंचता है तो यह भी कहना आप लोगों का अयुक्त

है क्योंकि कपड़ा बांधने से जीवों को बहुत दुःख पहुंचता है । कारण यह

है कि मुख पर कपड़ा बांधने से गर्मी रखने से उष्णता अधिक होती है जैसे

किसी मकान का द्वार बन्द हो और पर्दा डाला जाये तो उसमें गर्मी अधिक

होती है और खुला रखने से कम होती है । इस से विदित होता है कि मुख

पर कपड़ा बांधने से जीवों को अधिक पीड़ा होती है । इसलिए जो कोई

मुख पर कपड़ा बांधते हैं वे जीवों को अधिक पीड़ा पहुंचाने से अधिक पापी

होते हैं । जो नहीं बांधते वे उन बांधने वालों से अच्छे हैं । किन्तु, जब तुम

मुख पर कपड़ा बांधते हो मुख द्वारा वायु रुककर नाक के छिद्र से जो बाहर

निकलती है, वह जीवों के लिए अधिक दुःखदायी होती है । जैसे मुख से

कोई अग्नि पूंQके और कोई नल से तो नल से वायु चारों ओर से रुक

अधिक बलवान् हो अग्नि से लगती है । इसी प्रकार नाक की वायु जीवों

को अधिक पीड़ा पहुंचाती है । इस से तुम हिंसक हो। जो तुम कहो कि

हम नाक और मुख पर एक कपड़ा बांधेंगे तो पूर्वोक्त रीति से मुख और नासिका

दोनों की गर्मी बढ़कर दुगुनी हिंसा होगी । इससे मुख और नासिका पर कपड़ा

बांधना कदापि योग्य नहीं । दूसरे कपड़ा बांधने से बोला भी ठीक—ठीक नहीं

जाता । निरनुनासिक शब्दाें को सानुनासिक कर देना दोष है । दुर्गन्ध भी

अधिक बढ़ता है क्योंकि शरीर के भीतर दुर्गन्ध है । शरीर से जितना वायु

निकलता है वह दुर्गन्धयुक्त ही है । जब वह रोका जाये तो अधिक दुर्गन्ध

बढ़ता है जैसा कि बन्द जाजरूर । इस प्रकार मुखादि प्रक्षालन न करने और

मुख पर कपड़ा बांधने से अधिक दुर्गन्ध होकर रोग उत्पन्न करता है जैसा

कि मेले आदि में । और न्यून दुर्गन्ध विशेष रोग नहीं करता, यह बात प्रत्यक्ष

है। इस से यह सिद्ध हुआ कि अधिक दुर्गन्ध बढ़ाने वाला अधिक अपराधी

होता है । जैसा कि आप लोग दन्तधावन और स्नानादि कम करने से दुर्गन्ध

बढ़ाते हो । जिस से रोगोत्पत्ति कर बुद्धि और पुरुषार्थ को नष्ट करके

धर्मानुष्ठान के बाधक होते हो । जैसे जाजरूर (मलागार) के शुद्ध करने वालों

की दुर्गन्ध के संग से न्यून बुद्धि होती है वैसे आप लोगों की क्याें नहीं होती

होगी । जब दुर्गन्धयुक्त पुरुष की बुद्धि अति मन्द होती है तो उस के संगियों

की क्यों नहीं होती होगी ।

(देशहितैषी’ खण्ड १, संख्या २, पृष्ठ ७ से १३, ज्येष्ठ मास, संवत् १९३९)

जो तुम लोग कच्चा जल पीने आदि में दोष गिनते और उष्ण में

नहीं, यह भी तुम को अत्यन्त भ्रम हुआ है क्योंकि ठण्डे के जीव उष्ण जल

करने में अधिक दुःख पाते हैं और उन के शरीर जीवित जल में घुल जाते

हैं जैसे सौंफ का अर्वQ । सिद्ध हुआ कि उक्त जल के पीने वाले मानो मांस

का जल पीते हैं और जो ठण्डा जलपान करते हैं वे (इन जीवों को) गर्म

जल पीने वालों की अपेक्षा थोड़ा दुःख देते हैं । दूसरे वे जीव जठराग्नि में

प्राप्त होकर भी बहुत से प्राणवायु के साथ बाहर भी निकल जाते हैं । इस

से ठण्डा जल पीने वाले तुम से बहुत कम जीवों को दुःख देने वाले ठहरते

हैं । जो तुम कहो कि न हम जल गर्म करते हैं और न हम किसी को शिक्षा

अपने लिए जल को उष्ण करने की करते हैं तो भी तुम अपराध से नहीं

छूट सकते क्योंकि जो तुम गर्म जल न लेते, न पीते और न उष्ण करने की

शिक्षा करते तो वे अधिक जल क्यों गर्म करते। जो ऐसा कहो कि पाप करने

वालों को दोष लगता है, अन्य को नहीं । यह भी कथन ठीक नहीं हो सकता,

क्योंकि चोरी करने वाला तो आप ही चोरी करता है परन्तु शिक्षा करने वाले

बहुतों को चोर बना देते हैं, इसलिए तुम ही अधिक पापी हुए । फिर जल

के गर्म करने में अग्नि जलाते और उस जल से भाप ऊपर उड़ाने से भी

जीवों को बहुत दुःख पहुंचता है । इस कारण यह भी तुम्हारा कथन व्यर्थ

हुआ ।

तुम्हारे मत में ऐसी—ऐसी बहुत—सी बात अयुक्त हैं, जैसे एक छोटे

से अर्थात् पैसा भर के कुण्ड में अनन्त जीवों का रहना । इस में जो कोई

तुम से प्रश्न करे कि जिस में जीव रहते हैं उस का अन्त है, उस में रहने

वालों का अन्त क्यों नहीं ? फिर तुम से उस के उत्तर में केवल चुप वा

हठ के अतिरिक्त और कुछ न बन पड़ेगा । यह थोड़ा सा अर्थात् समुद्र में

से बिन्दुवत् तुम्हारे मत के सिद्धान्तों में दोष दिखलाया है । जो तुम सम्मुख

बैठ कर चर्चा करो तो तुम को और तुम्हारे साथियों को तुम्हारे मत के दोष

भली—भांति विदित हो जायें परन्तु जब कोई विद्वान् तुम्हारे सम्मुख तुम्हारे मत

के खण्डन—विषय में चर्चा करना चाहे तो भी तुम कभी न चाहोगे क्योंकि

जो तुम्हारा मत निर्दोष होता तो दूसरे मत वालों से संवाद करने में कभी न

डरते । इस का दृष्टान्त यह है कि तुम अपनी पुस्तकों को बहुत गुप्त रखते

और अपने मतवालों के अतिरिक्त दूसरों को देखने के लिए नहीं देते । यह

तुम्हारा सिद्धान्त पुस्तक और तुम्हारे सिद्धान्तों को तुम्हारी ही बातें झूठी कर

देती हैं । जिस का चांदी का रुपया है, वह सर्राफा और सुनारादि को दिखलाने

में क्यों डरेगा ? देखो! हमारा वेद—मत सच्चा है इस से हम को किसी के

साथ चर्चा करने में डर नहीं होता । जैसे तुम डर के कारण हठ करते हो

कि मुख पर कपड़ा बांधे विना तुम से हम बात नहीं करते । यह तुम्हारा

केवल छल है क्योंकि ट्टट्टनाच न आवे आंगन टेढ़ा ।’’

हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती

जब उक्त प्रश्नों को लेकर साधु जी के स्थान पर पहुंचे तो क्या देखते

हैं कि साधु जी बहुत से स्त्री और पुरुषों के मध्य में बखान (व्याख्यान)

कर रहे हैं तब ये लोग वहां जा बैठे । जब बखान पूर्ण हो चुका तब पण्डित

छगनलाल मन्त्री राव मसूदा ने जो उक्त प्रश्न ले गये थे सब लोगों के सम्मुख

पढ़कर सुना दिये और कहा कि इन का उत्तर देना आप को योग्य है । इस

पर साधु जी ने कहा कि जो तुम लोग मुख पर पट्टी बांधो तो मैं उत्तर दूं ।

तब उन लोगों ने कहा कि हम मुख पर पट्टी बांधना पाप गिनते हैं । आप

इन प्रश्नों का उत्तर दें, जब पट्टी का बांधना सिद्ध कर देंगे तब हम

प्रसन्नतापूर्वक पट्टी क्या जैसा आप हम से कहेंगे, स्वीकार करेंगे । यह सुन

साधु ने कहा कि मैं उत्तर नहीं दे सकता और उठ कर भीतर की ओर चले

गये । फिर उन्होंने सब वृत्तान्त स्वामी जी और राव साहब को सुनाया और

अपने—अपने स्थान को पधारे । तत्पश्चात् साधु जी ने तीसरे दिन अर्थात् १५

जौलाई, सन् १८८१ को सुजानमल कोठारी के हाथ स्वामी जी के प्रश्नों के

निम्नलिखित उत्तर भेजे ।

साधु सिद्धकरण जी की ओर से प्रश्नों के उत्तर’’

प्रश्नमुंह बांधने में क्या धर्म है? हम को तो पाप प्रतीत होता है इत्यादि।

उत्तरजबकि मकान में अग्नि की ज्वाला निकलती है, उस मकान

के द्वार में होकर वायु भीतर जाती है तो वायु के जीव सब मर जाते हैं।

जब बारड़ा (द्वार) बन्द किया जावे वायु की ओट से सब जीव बच सकते

हैं और भी उस ज्वाला का तेज कपड़े की ओट से ठण्डा होकर जाता है

जैसा कि उष्ण जल की भाप । बाहर एक गर्म की हुई चीज की भाप के

निकलते समय कपड़े की ओट दो तो फिर ओट से बचकर भाप बाहर जावेगी

वह फिर वैसी गर्म कभी न रहेगी वा आड़ा हाथ देकर देखो तो पहले जो

हाथ देगा उस का जलेगा । वही जल की भाप निकलेगी तो दूसरी ओर जो

आजूबाजू जो हाथ रहेगा कभी वैसा नहीं जल सकता । यह तो प्रत्यक्ष दीख

पड़ता है और जीव अजर, अमर है परन्तु वायु के जीव का शरीर है । विना

शरीर के जीव नहीं रह सकता । दूसरे खुले मुख रहने से प्रत्यक्ष दोष भी

है कि उस को सब कोई समझ सकता है क्योंकि जो कोई बड़े मनुष्य के

निकट बात करे तो मुंह के पल्ला लगा रहता है क्योंकि जिस से थूक न

उछले वा अपनी दुर्गन्धता का श्वास उन के द्वारा न पहुंचे तो आपड़ों से (आप

सरीखे) बुद्धिमान् होकर यह क्या प्रश्न पूछा । आपको भी तो यह विचार

करना चाहिए कि वेद की पुस्तकों को खुले मुंह बांचना क्या पुस्तक के थूकारा

वा दुर्गन्ध—श्वासा नहीं पहुंचती होगी ? इसलिए अवश्य आपको उघाड़े (खुले

मुख) रहना उचित नहीं और हम तो साधु हैं, हम निरर्थक जोड़ नहीं करते

क्योंकि यह बात पक्षपात कहलाती है, धर्म के अतिरिक्त साधु को कुछ प्रयोजन

नहीं। कोई हमारे निकट आवे और सुनना चाहे तो सुने । जाने—आने का कुछ

प्रयोजन नहीं । हां यह पक्की देखी कि कुछ धर्म की बात मानेंगे तो जा

भी सकते हैं । हस्ताक्षर सिद्धकरण

(देश—हितैषी, खण्ड १, संख्या ४ पृष्ठ ७ से १० तक)

उत्तर पक्षस्वामी दयानन्द जी महाराज की ओर से उत्तर

उत्तरजबकि मकान में अग्नि की ज्वाला निकलती है इत्यादि । यह

तुम्हारा मुख पट्टी बांधने का उत्तर अविघारूप है क्योंकि बाहर का वायु ही

सब पदार्थों का जीवनहेतु है । विना इस के संयोग के कोई भी प्राणी नहीं

बच सकता और उस के सम्बन्ध के विना अग्नि भी नहीं जल सकती ।

जैसे किसी प्राणी वा जलती अग्नि को बाहर की वायु से वियुक्त करें तो

वह उसी समय मर जाता है । और दीपकादि अग्नि भी बुझ जाता है क्योंकि

इस के जलाने आदि का कारण बाहर का वायु है । न मानो तो बन्द कर

देख लो। इसलिए यह तुम्हारा अविघारूपी उत्तर सिद्ध होता है । यघपि ऐसी

अन्यथा बातों पर लिखना व्यर्थ है क्योंकि जो किसी से हो ही नहीं सकता।

देखो जो मकान के द्वार और छिद्र बिल्कुल बन्द किये जायें तो अग्नि कभी

न जलेगी और एक ओर से ओट किया जाये तो दूसरी ओर से जहां मार्ग

पाता है वहां से अतिवेग से चलकर वही वायु के जीवों से उस का सम्बन्ध

होता है और कपड़े की ओट से भी वह कभी ठण्डा नहीं हो सकता किन्तु

वह एक ओर से रुक कर दूसरी ओर से गर्म हो जाता है ज्वाला की जितनी

गर्मी है । जब तक बाहर की वायु से सम्बन्ध और संघात छूट एक—एक

परमाणु पृथक —पृथक  होकर न मिल जायें तब तक अग्नि ठण्डा कैसे हो

सकता है। और सर्वत्र वायु में विघुत्रूप अग्नि भी (कि जहां वायु के शरीर

वाले जीव हैं) व्याप्त हो रहा है फिर वायुस्थ जीव क्यों नहीं मर जाते ?

जब एक ओर कपड़े आदि से आड़ा किया जाये तो दूसरी ओर गर्म वायु

अधिक इकट्ठा फैलने और टपकने से शीघ्र ठण्डा नहीं होता किन्तु जो चारों

ओर से खुला रहे तो शीघ्र ठण्डा हो जाता है जैसे कि मैदान की अग्नि ।

जब अग्नि की ओर आड़ा हाथ दिया जाये तो हाथ की आड़ से दूसरी ओर

गर्मी फैलेगी। आड़े हाथ करने से गर्मी कुछ भी कम नहीं हो सकती इस

से यह अविद्वानों की बात है । देखो जो सूर्य की ओर हाथ करे तो क्या सूर्य

की गर्मी घट जाती है और क्या जिस बर्तन में जल गर्म किया जाता है उस

का मुख खुला रखने से अधिक गर्मी और आधा वा तीन भाग बन्द करने

से अर्थात् आधे वा चौथे भाग से भाप अधिक और जोर से निकल कर बाहर

की वायु में नहीं फैलती । और जो उस का मुख सर्वथा बन्द किया जाये

तो क्या बर्तन टूट फूट और उड़ न जायेगा ? क्या जिस ने अग्नि की ज्वाला

के सामने आड़ की तो उसकी ओर गर्मी कम होने से दूसरी ओर अधिक

गर्मी नहीं होती ? क्या हाथ के आड़ किये हाथ से अग्नि के दूसरी ओर

जिस किसी के हाथ और कोई वस्तु हो तो वह अधिक तप्त नहीं होती और

जब चारों ओर से आड़ कर अग्नि को रोका जावे तो गोलाकार होकर ऊपर

को क्यों न चढ़ेगा और भाप के दूसरी ओर हाथ जैसा कि इधर का जलता

है वैसा उधर का न जलेगा और हाथ की आड़ के हाथ में गर्मी इसलिये

अधिक नहीं लगती कि वह अगल बगल होकर ऊपर उठ जाती है । देखो

तुम्हारी यहां अत्यन्त भूल है क्योंकि जो वायु के शरीर वाले जीव गर्म वायु

से मर जाते तो वैशाख और ज्येष्ठ मास में जबकि वायु अत्यन्त तप्त हो लू

चलता है तब क्या सब जीव मर जाते हैं और गर्म वायु के जीव जबकि पौष

मास में अतिशीत पड़ता है तब क्या मर जाते हैं ? इससे यह बात सृष्टिक्रम

से विरुद्ध होने से मिथ्या ही है क्योंकि जो ऐसा होता तो परमेश्वर इस सृष्टि

में अग्नि और सूर्यादि को क्यों रचता ? इस से जो तुम सत्यासत्य बातों का

निश्चय करना चाहो तो वेदादि सत्यशास्त्र पढ़ो और सुनो जिस से यथार्थ ज्ञान

पाके धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी फल को प्राप्त हो सको । जो ऐसा न करके

अपने मत के ग्रन्थों के विश्वास में रहोगे तो यह उत्तम मनुष्य जन्म व्यर्थ

ही नष्ट करोगे ।

(देश—हितैषी, खण्ड १, संख्या ५, पृष्ठ ८ से १० तक, भादों, संवत् १९३६)

जैनमत 237

बड़े आश्चर्य की बात है कि जीवों को अजर, अमर मान कर फिर

उन का मरण भी मानते हो । जो तुम खुला मुख रखने में प्रत्यक्ष दोष लिखते

हो तो प्रत्यक्ष होता है कि आप प्रत्यक्ष के लक्षणादि विघा को ही नहीं जानते।

इसी से किसी बड़े मनुष्यादि से बातें करने में पल्ला लगाना अच्छा समझते

हो । जो ऐसा है तो फिर वैसा क्यों नहीं करते । छोटे मनुष्य के सम्मुख हर

समय मुख बांधे रहते हो । क्या बड़े मनुष्य का थूका छोटे मनुष्य के साथ

लग जाना अच्छा समझते हो ? क्या बड़े के मुख में कस्तूरी घुली होती है

छोटे के नहीं ? यदि बड़े छोटों का विचार है तो अपने चेलों के सम्मुख मुख

क्यों बांधे रहते हो ? क्योंकि जब किसी बड़े मनुष्य से बोला करो तब बांध

लिया करो । सदैव व्यर्थ बातें क्यों किया करते हो । देखो इस बात को तुम

नहीं जानते, बड़े मनुष्यों से बात करते समय पल्ला लगाने से यह प्रयोजन

है कि सभा में कभी गुप्त वार्ता करनी पड़ती है, यदि मुख ख्ुाला रखा जावे

अर्थात् कपड़ा न लगावें तो अन्य मनुष्य जो निकट बैठे हों अवश्य सुन लें।

जहां कोई तीसरा मनुष्य होता, वहां बातें करने में पल्ला नहीं लगाते और क्या

पल्ला लगाने से दुर्गन्ध रुक सकता है ? इस में इतना ही प्रयोजन है कि

जो वायु को रोक के न बातें करें तो उस के फैलने के साथ ही शब्द भी

फैल जाये और कान में वायु लगने से ठीक—ठीक सुना भी न जाये जैसा

कि वायु के वेग से चलने में ठीक—ठीक नहीं सुना जाता । देखो ! कैसे

अन्धेर की बात है, क्या दुर्गन्ध को कान ग्रहण कर सकता है ? नहीं, किन्तु

सुगन्ध दुर्गन्ध का ग्रहण नासिका ही से होता है । इस बात का आपने प्रयोजन

नहीं समझा है । जैसे गानविघा न जानने वाला धु्रपद को समझ नहीं सकता

क्योंकि जो विघा की बातें हैं उन को विद्वान् ही समझ सकता है, अविद्वान्

नहीं । हम शब्द, अर्थ और सम्बन्ध को वेद समझते हैं, कागज स्याही को

नहीं और कागज, स्याही को जड़ होने से सुगन्ध दुर्गन्ध का ज्ञान वा सम्बन्ध

नहीं होता । क्या जो तुम्हारे जैनी लोगों के ग्रन्थ वा पुस्तकों के कागज लेखादि

हैं, उन को बनाने वालों ने मुख बांधकर बनाया और लिखा होगा ? हम खुले

मुख से वेदों का पाठ करना अत्युत्तम समझते हैं क्योंकि मुख बांधने से स्पष्ट

यथार्थ उच्चारण नहीं होता जैसा कि तुम्हारा सब अक्षरों का नासिका से

अशुद्धोच्चारण होता है । इस का उत्तर हम ने पहले ही लिख दिया था कि

निरनुनासिक को मुख बांध कर सदैव सानुनासिक बोलना शुद्ध नहीं परन्तु

इस के समझने को विघा चाहिये और जो आप साधु बनते हो तो साधु के

क्या लक्षण हैं ? और आप स्वार्थी हो वा परमार्थी । जो स्वार्थ की इच्छा

अर्थात् ट्टट्टनिरर्थक हम नहीं बोलते’’ ऐसा क्यों कहते हो और जो स्वार्थी हो

तो साधु क्यों बनते हो ? जो आप को पक्षपात नहीं होता तो मुख पर पट्टी

बांधने का झूठा आग्रह क्याें करते ? कि विना मुख पर पट्टी बांधने के हम

नहीं बोलते यदि ऐसा नियम था तो प्रथम ही प्रथम (जंगल में भ्रमण करते

समय) हम से क्यों बोले थे कि आप का क्या नाम है ? इत्यादि खुले मुख

बोले । और अन्य जनों से भी बातें क्यों किया करते हो ? और भोजन समय

(स्वप्रयोजन के लिए) क्यों मुख खोलते हो ? क्या तुम अपने शरीर—पोषण,

भोजन, छादन, मलविसर्गादि कर्म मौन के अतिरिक्त नहीं समझ सकते होगे?

यह बात मिथ्या है क्योंकि जब हम सुनना चाहते थे तब तो तुम सुनाने को

खड़े भी न हुए और जो तुम कहीं आते जाते नहीं तो यहां कहां से आ

गये ? क्या एक ही स्थान पर शिला के समान स्थिर रहते हो ? भला जिस

का रुपया चांदी का है उस को कच्चेपन का क्या भय है ? क्या सब के

सामने दिखलाने से ताम्र का भी हो जाता है? क्या तुम वहीं जाते हो जहां

तुम्हारी बातें विना समझे बूझे मान लेवें ? हाँ ठीक है तुम तो उन्हीं गोबर—गणेशों

को सुना सकते हो, जो प्रसन्नता से ट्टट्टसत्यार्थ’’ और ट्टट्टप्रमाण’’ शब्दों का

हल्ला करके तुम को सन्तुष्ट किया करें, चाहे सत्य कहो वा असत्य । मान

ही लें जैसे दिल्ली की मिठाई । न पूछें न शटा करें, न झूठ का खण्डन

करें । ठीक समझ लिया जैसे तुम, वैसे तुम्हारे, सिद्धान्त हैं मानो बालकों

का खेल । जो मुख की पट्टी का उत्तर तुम नहीं दे सकते तो छोटे से कुण्ड

में अनन्त जीवों के होने आदि का उत्तर देना, तुम क्या किन्तु तुम्हारे तीर्थंकरों

ने भी इन विघा की बातों को नहीं समझा था । जो समझते होते तो ऐसी

असम्भव बातें क्यों लिख जाते ? सत्य है जब से तुम लोगों ने वेदविरोधी

होकर वेदोक्त सत्य मत को छोड़ के कपोलकल्पित असत्य मत को ग्रहण

किया है तब ही से विघारूप प्रकाश से पृथक  होकर अविघारूप अन्धकार

में प्रविष्ट हो गये हो । इसी से ईश्वर, जीव और पृथिवी आदि तत्त्वों को

यथावत् नहीं जान सकते हो ।

आओ ! अब भी क्यों झूठ पक्षपात करके वेदोक्त सत्य मत का स्वीकार

क्यों नहीं करते और मुख पर पट्टी बांधने आदि विघाविरुद्ध कपोलकल्पित

बातों को क्यों नहीं छोड़ते और अन्यथा आग्रह करते जाते हो ? सत्य है जो

तुम लोगों के आत्माओं में वेदविघा का थोड़ा भी प्रकाश होता तो ऐसी निर्मूल

झूठी बातों के लिखने में लेखनी कभी न उठाते और जो तुम्हारे सिद्धान्त सत्य

होते तो चर्चा करने में झूठे हीले के बहाने क्यों पकड़ते और ऐसे अशुद्ध

लेख का व्यर्थ परिश्रम क्यों करते ? यदि अब भी सच्चे हो तो सम्मुख आकर

थोड़े काल में सत्यासत्य का यथार्थ निश्चय क्यों नहीं कर लेते क्योंकि जो

वाद—प्रतिवाद से बात सिद्ध होती है वही मानने योग्य है । जिस किसी ने

मत मतान्तर वालों से पक्ष—प्रतिपक्ष पूर्वक वादानुवाद नहीं किया वह सत्यासत्य

को ठीक—ठीक कभी नहीं जान सकता । इसीलिये तुम भी ऐसा क्यों नहीं

करते ? परन्तु क्या करो नाच न आवे आंगन टेढ़ा ।

हस्ताक्षर स्वामी दयानन्द

यह उपर्युक्त पत्र १६ जौलाई, सन् १८८१ को पण्डित वृद्धिचन्द,

जगन्नाथ जोशी, व्यास रामनारायण, बाबू बिहारीलाल तथा अन्य सर्दार लोगों

के हाथ स्वामी जी ने साधु जी की ओर भेजा । जब वे लेकर चले तो

उस समय लगभग दो सौ मनुष्यों के इकट्ठे हो गये थे । इन्होंने पहुंचते ही

साधु जी को उक्त पत्र पढ़ सुनाया और निवेदन किया कि अब आप इस

का फिर उत्तर दीजिये । परन्तु पाठकगण ! उत्तर देने में तो विघा चाहिये।

न जाने पहले किस की सहायता से उत्तर लिखा था । विशेष क्या लिखूं

साधु जी के छक्के छूट गये ।

अन्त को उन लोगों ने जब बहुत कहा सुना तब यही मुख से निकला

कि हमारे से तो उत्तर कोई नहीं बन आता । आपां तो साधु हैं । जब लोगों

ने देखा कि अब साधु जी ने ही अपने मुख से हार मान ली तो अब विशेष

कहना उचित नहीं, यह समझकर नमस्ते करके चले आये और सब वृत्तान्त

राव साहब और स्वामी जी से निवेदन कर अपने—अपने स्थानों को चले गये।

हस्ताक्षरवृद्धिचन्द श्रीमाल, मसूदा

(ट्टट्टदेश—हितैषी’’ खण्ड १, संख्या ६, संवत् १९३५ आश्विन,

पृष्ठ १२ से १५ तक ।) (दिग्विजयार्वQ पृ० ३१, लेखराम पृष्ठ ६७५—६८०)