निराकार होने से वो वस्तु एक ही होगी, ऐसा कोई नियम नहीं है, और न ही मैंने ऐसा बताया। निराकार होने से वो चेतन है, यह तो मैंने बताया था। ईश्वर निराकार है, वो चेतन है। जीवात्मा निराकार है, वो भी चेतन है। ये दोनों निराकार हैं, दोनों चेतन हैं। दूसरी बात यह है कि- निराकार वस्तु एक भी हो सकती है, अनेक भी हो सकती हैं। जीवात्मा अनेक हैं और ईश्वर एक है। ईश्वर स्वभाव से एक है और जीवात्मा स्वभाव से अनेक हैं। जिस वस्तु का जो स्वभाव होता है, उसके स्वभाव पर ‘क्यों’ का प्रश्न करना अनुचित है। स्वभाव है, सो है। स्वभाव का मतलब क्या हुआ? ‘स्व’ ‘भाव’, यानि उसकी ओरीजिनैलटी, वो उसका स्वभाव है। अनादिकाल से उसका वैसा ही धर्म है। जो है सो है, अब हम उसमें तोड़-मरोड़ कैसे कर सकते हैं। हमने कहा था- जो निराकार है, वो चेतन है, जिसका आकार है, वो जड़ है। बताइये नियम कहाँ टूटा। पृथवीजड़ है, पृथवी का आकार है, कहाँ नियम टूटा। वायु और आकाश भी जड़ हैं। उनका आकार भी सूक्ष्म है, हम इनको आँखों से देख नहीं सकते। वायु और आकाश तो स्थूल भूत हैं। अभी इससे छोटी सूक्ष्म चीजें और बहुत सारी हैं। मन है, इन्द्रियाँ हैं, बु(ि है। बिल्कुल नीचे चले जाओ, सत्त्व, रज और तम नामक प्रकृति के मूल तत्त्व, वो भी साकार हैं। पर उनमें आकार सूक्ष्म है। इनको आँखों से नहीं देख सकते, माइक्रोस्कोप से भी नहीं देख सकते। फिर भी वो साकार हैं। सत्यार्थ-प्रकाश में महर्षि दयानंद जी ने लिखा है- यदि प्रकृति निराकार होती, तो उस निराकार प्रकृति से साकार जगत कैसे बनता? जगत साकार है या निराकार? साकार है न। जब साकार जगत है तो प्रकृति भी साकार होगी। जैसे गुण कारण द्रव्य में होते हैं, वैसे कार्य द्रव्य में आते हैं। यह नियम है। प्रकृति साकार है इसलिये जगत साकार है। भले ही प्रकृति का आकार सूक्ष्म है, वो हमको इन आँखों से नहीं दिखता, तो भी साकार है। आत्मा एक नहीं अनेक है, पर वो निराकार होने से चेतन है। और ईश्वर भी निराकार होन से चेतन है। सूक्ष्म शरीर जड़ है। वो निराकार नहीं है। वह साकार है। पर वो सूक्ष्म इतना है, कि हम आँख से नहीं देख पाते। जिन चीजों को हम आँख से देख नहीं पाते, उनको मोटी भाषा में निराकार कह देते हैं। वास्तव में वो पूरी तरह निराकार नहीं है। पूरी तरह निराकार वस्तुयें वो ही हैं, जो ‘चेतन’ वस्तुएं हैं।
।प्रकृति साकार है। परन्तु जड़ होने से वह बन्धन का अनुभव नहीं करती। इसलिये प्रकृति की मुक्ति का कोई प्रश्न ही नहीं है। जीवात्मायें निराकार हैं और वे बंधन में आती रहती हैं। इसलिये उनको मुक्ति की आवश्यकता पड़ती है। ईश्वर निराकार है, परन्तु योगदर्शन व्यास-भाष्य में लिखा है, कि ईश्वर तो हमेशा से ही मुक्त है। वो बंधन में आया ही नहीं। इसलिए उसके लिये कैसे कहेंगे, कि उसको मुक्ति की आवश्यकता है। उसको आवश्यकता नहीं है, वो पहले से ही मुक्त है। अनादिकाल से मुक्त है, आज भी मुक्त है और आगे अनंतकाल तक मुक्त रहेगा। इसलिये ईश्वर को तो मुक्ति की आवश्यकता नहीं है। जीवात्माओं को ही मुक्ति की आवश्यकता है, क्योंकि वो बंधन में आते रहते हैं।