जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना क्या निश्चित होती है? पूर्वजन्म के कर्म फलित होते हैं, ऐसा कहते हैं? कृपया मार्गदर्शन कीजिए?

देखिए, जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना निश्चित नहीं होती। हमारे जीवन में जो-जो घटनाएं घटती जा रही हैं, वो पहले से निश्चित नहीं हैं।
स कभी भी, कुछ भी, घ्ािटत हो सकता है। अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। पॉजीटिव भी हो सकता है, नेगेटिव भी हो सकता है। हमें सुख भी मिल सकता है, दुःख भी मिल सकता है। सारे जीवन में सुख ही सुख नहीं मिलते। कुछ दुःख भी मिलते हैं। हम दुःख नहीं भोगना चाहते हैं। फिर भी दुःख आ जाते हैं, और भोगने पड़ते हैं।
स बहुत सारे दुःख ऐसे होते हैं, जो हमारे कर्मों के फल नहीं होते, फिर भी भोगने पड़ते हैं। पूर्वजन्म के कर्मों का फल कब और कैसे मिलता है, इस बारे में बहुत भ्रांति है।
स कितने ही सुख-दुःख ऐसे होते हैं, जो पूर्वजन्म के कर्मों का फल नहीं हैं। और उन सुख- दुःख को लोग पूर्वजन्म का कर्म-फल मान लेते हैं।
कल्पना कीजिए कि एक सेठ के यहाँ चोरी कर, दो लाख रुपये की संपत्ति चोर ले गए। सेठ ने सब सुरक्षा भी की थी, उसके बावजूद चोर आए, उन्होंने सब ताले तोड़ दिए, वे सब सामान ले गए। इस पर लोगों ने कहा कि – ”इस सेठ ने पिछले जन्म में किसी का माल खाया होगा, दो लाख किसी का हड़प गए होंगे। अब इसको पिछले जन्मों के कर्मों का फल मिला है, इसके यहाँ चोरी हो गई।”
दरअसल, यह सोचना सही नहीं है। वास्तव में सेठ के यहाँ जो चोरी हुई, वो उसके पिछले कर्म का फल नहीं है। क्यों? अच्छा थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि सेठ के यहाँ जो चोरी हुई, वो सेठ के पिछले जन्म के कर्म का फल है। कर्म-फल के कुछ मोटे-मोटे नियम हैं। उन नियमों को जानते हैं। उदाहरण के लिए,
(1) पहली बात- न्याय करने के लिए पहली शर्त यह है कि जज साहब को पूरा मामला पता होना चाहिए। कर्म का पता होना चाहिए,
अपराध का पता होना चाहिए। जो व्यक्ति कर्म का फल देता है, न्यायाधीश बनता है, तो यह आवश्यक है, कि वो कर्म को जानता हो, तभी तो वो ठीक फल दे सकता है।
क्या न्यायाधीश बिना कर्म को जाने ही ठीक फल दे सकता है? नहीं। तो इसलिए कर्म को जानना आवश्यक है। जब तक कर्म को नहीं जानेगा, जब तक मुकदमा नहीं सुनेगा, तो ठीक से न्याय कैसे करेगा? कौन अपराधी है, उसने अपराध कैसे किया, कब किया, कहाँ किया, कितना किया, वो सब प्रमाण (एवीडेन्स) होना चाहिए। न्यायाधीश जब तक ये सारी बातें नहीं जान लेगा, तब तक क्या वह ठीक-ठीक न्याय कर सकेगा? नहीं कर सकता।
(2) दूसरी बात- जितना अपराध हुआ, उसका दण्ड कितना दिया जाए। पेनल कोड (दण्ड संहिता) में क्या लिखा है? इतने अपराध का इतना दण्ड दो। जज साहब को दण्ड संहिता का भी पता होना चाहिए। अगर दण्ड का पता नहीं कि कितना दण्ड हो, तो भी वो न्याय नहीं कर पाएंगे। कर्म-फल के अनुसार ठीक-ठीक न्याय करने का दूसरा नियम यह हुआ।
(3) तीसरी बात- क्या प्रत्येक व्यक्ति को दंड देने का अधिकार है? नहीं। निश्चित व्यक्तियों को दंड देने का अधिकार है, सबको नहीं, और वो ही कर्म का फल दे सकते हैं। न्यायाधीश महोदय को दण्ड देने का अधिकार दिया गया है। सड़क पर चलता हुआ व्यक्ति अपराधी को दण्ड नहीं दे सकता। वो ही अपराधी को दण्ड देंगे, जिनको अपराधी को दण्ड देने का अधिकार है।
चोर वाली घटना पर इन तीन नियमों को लागू कीजिए। चोरों ने सेठ के यहाँ चोरी की, दो लाख की संपत्ति ले गए। यह सेठ के पिछले जन्म के कर्मों का फल है, ऐसा मानते हैं, तो ये तीनों नियम वहाँ लागू करके देखिए।
क्या चोरों को पता है कि पिछले जन्म में सेठ ने कौन सा
अपराध किया था, कितना बुरा किया, जिसका फल हम उन्हें देने के लिए आए हैं। जब चोर को सेठ के कर्म का ही पता नहीं, तो बताइए, कर्म-फल कहाँ लागू हुआ?
दंड का भी चोर को नहीं पता। वो कैसे निर्णय करेगा कि दो लाख की चोरी करूँ कि तीन लाख की या ढाई लाख की चोरी करूँ। कितना दंड दूँं, उसको क्या मालूम। सेठ साहब ने कौन सा अपराध किया था, उसका चोर को पता नहीं, कितना किया था, यह पता नहीं, कितना दंड दूँ, वो भी नहीं पता। चोरों को नहीं मालूम कि सेठ ने कौन सा अपराध किया था, तो वो फल कैसे माना जाये? जब दण्ड का पता नहीं, तो न्याय नहीं हुआ, इसलिए वह ‘कर्म-फल’ नहीं हुआ।
और दूसरी बात यह कि, क्या चोरों को सेठ के पूर्व जन्म के कर्म का दंड देने का अधिकार है? उत्तर है-नहीं। इस प्रकार न्याय की कसौटी पर तीनों बातें फेल हो गईं।
(4) चौथी बात- जो कर्म का फल दिया जाता है, ठीक-ठीक न्याय से दिया जाता है, उसको चुपचाप भोगना पड़ता है, उसका विरोध नहीं कर सकते।
किसी अपराधी ने अपराध किया, न्यायाधीश ने उसको दंड दिया कि तीन माह जेल में रहो। अब तो तीन माह उसको जेल में रहना ही पड़ेगा। चुपचाप उसको दंड तो भोगना ही पड़ेगा। उसका विरोध तो कोई कर ही नहीं सकता। यदि यह नियम आपको स्वीकार है तो चौथा नियम इस घटना पर लागू करते हैं-
चोरों ने सेठ के यहाँ दो लाख की चोरी की। इस पर कुछ लोगों ने कहा कि – ”यह तो सेठ के पिछले जन्म का कर्म-फल है। इसलिए सेठ को चुपचाप दंड भोगना चाहिए, चोरी का विरोध नहीं
करना चाहिए, पुलिस में रिपोर्ट नहीं करना चाहिए।”
यदि कर्म-फल मानते हैं, तो चुपचाप भोगो। पुलिस में रिपोर्ट करने जायेंगे, तो फिर कर्म-फल कहाँ हुआ? कर्म-फल का तो विरोध हो नहीं सकता, और आप तो चोरी का विरोध कर रहे हो। अगर कर्म-फल मानते हैं, तो पुलिस में नहीं जाना, कोर्ट में नहीं जाना, मुकदमा नहीं करना। कोई अपील नहीं करना कि, हमारे यहाँ चोरी हुई। आपका कर्म-फल है, शाँति से उसे भोगो।
(5) पाँचवी बात- एक न्यायाधीश महोदय ने एक आतंकवादी को फाँसी का दंड दिया-”इसको फाँसी पर चढ़ा दिया जाए। इसने बहुत सारे निर्दोष लोगों को मार डाला।” तो जल्लाद ने उस आतंकवादी को फाँसी पर चढ़ा दिया। न्यायाधीश महोदय के आदेश का पालन करने पर जल्लाद को वेतन मिलेगा या दंड मिलेगा?
जल्लाद ने आदेश का पालन किया है, तो उसको वेतन मिलेगा, ईनाम मिलेगा। ऐसे हीे चोर ने भी सेठ के यहाँ चोरी की, उसने भगवान के आदेश का पालन किया तो उसको ईनाम दिलवाओ। जो लोग कर्मफल मानते हैं, उनको चोर को ईनाम दिलवाना चाहिए, कोर्ट में मुकदमा नहीं करना चाहिए। अगर स्वीकार हो, तो आप मान सकते हैं कि यह कर्मफल है।
इस कानून से तो आप एक घंटा भी नहीं जी सकते। जो भी चोर चोरी करे, उसको ईनाम दिलवाओ। अपने-अपने नगर में अहमदाबाद में, उदयपुर में, जबलपुर में, मुम्बई में, दिल्ली में एक घंटे के लिए यह नियम लागू कर दो कि जो भी चोर चोरी करेगा, उसको ईनाम मिलेगा, फिर देखो क्या होता है। आपका जीना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए यह बात सत्य नहीं है।
हमें जो सुख-दुःख मिलता है, उसके दो भाग हैंः-
(एक) व्यक्ति के अपने कर्मों का फल है। और
(दूसरा) अन्यों के कारण से भी हमको बिना हमारे दोष (गलती) के दुःख मिलता है।
अगर पूरा का पूरा हमारे ही कर्मों का फल मान लिया जाए, तो अपराधी तो दुनिया में कोई भी नहीं है। तो फिर किसी पर कोर्ट केस क्यों?
किसी सेठ के यहाँ पर चोरी हुई, और उसे यह माना जाए कि सेठ के किसी पूर्वजन्म का दोष होगा। फिर चोर के ऊपर मुकदमा क्यों? उसने तो कर्म का फल दिया। उसको तो वैसे वेतन दो, जैसे न्यायाधीश को दिलवाते हैं। नहीं दिलाएंगे।
सेठ के यहाँ चोरी हुई, यह उसका कर्म-फल नहीं है, तो फिर वह क्या है? इसका नाम है – ‘अन्याय’। सेठ के साथ अन्याय हुआ। उसने मेहनत से धन कमाया, अपने धन की सुरक्षा भी की। तब भी चोर लोग ताला तोड़कर सामान ले गए। यह सरासर अन्याय है। इससे सि( हुआ कि, जितने भी जीवन में सुख-दुःख मिलते हैं, वो सब के सब हमारे कर्मों का फल नहीं होते हैं। कुछ कर्मों का फल है, और कुछ अन्याय से भी हमें मिलता है।
अन्याय किसको कहते हैं? बिना कर्म किए दुःख देना, अथवा किए गए कर्म के अनुसार फल नहीं देना, कर्म से अधिक फल दे देना, या कम फल देना, उसका नाम अन्याय है और कर्म के अनुसार फल दे देना, वो न्याय है।
थोड़े दूसरे शब्दों में और खोल देते हैं किः-
बिना अपराध के, बिना दोष के, किसी को दुःख दे देना अथवा सुख दे देना, भी अन्याय है।
दुःख वाला उदाहरण पकड़कर चलते हैं। बिना अपराध के किसी को दुःख दे देना, अन्याय है। और अपराध करने पर उसके अपराध के
अनुसार उसको दंड देना, यह न्याय है।
क्या आप लोग मानते हैं कि, संसार में अन्याय होता है? होता है। इसका अर्थ ये हुआ कि, कुछ घटनाएं संसार में ऐसी भी हैं, जिनमें निर्दोष व्यक्तियों को दुःख दिया जाता है। अगर आप यह मानते हैं कि अन्याय होता है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि, बिना दोष के भी दुःख मिलता है। वो ही तो अन्याय है।
चोरों ने सेठ के यहाँ जो दो लाख रुपये की चोरी की, यह था- अन्याय। सेठ निर्दोष था। उसका कोई दोष नहीं था। फिर भी चोरों ने सेठ के यहाँ चोरी करके सेठ को दुःख दिया। इसका नाम अन्याय है। यह पिछला कर्म-फल नहीं है।
अब इसका विश्लेषण करने के लिए किसी भी घटना को देखिए। उसका अच्छी तरह से परीक्षण कीजिए और यह विचार कीजिए कि, यह जो किसी व्यक्ति को दुःख मिला, वह न्याय से मिला, या अन्याय से मिला? अगर पता चले कि, न्याय से मिला, तब तो वह है कर्म फल। कारण कि, “जो न्याय से सुख-दुःख मिलता है, वो तो कर्म-फल होता है।” और जो अन्याय से मिलता है, वो कर्म-फल नहीं होता है। सेठ के यहाँ चोरी हुई, दो लाख का सामान चोर ले गए। क्या यह न्याय हुआ? नहीं हुआ न। तो समझ लेना, यह सेठ का कर्म-फल नहीं है।
न्याय के विरु( अपील (केस) नहीं होती है। न्याय को तो स्वीकार करना पड़ता है। जब अन्याय होता है, तो उसके विरु( अपील होती है, जैसे चोर के विरु( कोर्ट में अपील होती है। सेठ जी पुलिस में शिकायत करते हैं, कोर्ट में केस करते हैं कि हमारे यहाँ चोरी हुई, हमारा माल वापस दिलाओ। तो जब अपील करते हैं, मतलब वो अन्याय हुआ।
कर्म-फल के कुछ नियम हैं। उन नियमों को समझ लेंगे, तो आप बहुत सी घटनाओं में इस बात का निर्णय कर लेंगे कि यह कर्म-फल हुआ, या अन्याय हुआ।
इस एक उदाहरण से आप बीस बातें समझ लीजिएगा। रेल में जा रहे हैं, दुर्घटना हो गई, पाँच लोग मर गए, बीस लोग घायल हो गए, शेष ठीक-ठाक बच गए। यहाँ लोग कहेंगे- ”जो पाँच मर गए, इनकी मौत यहीं लिखी थी। यह इनका कर्म-फल था।” यह बिल्कुल झूठ बात है, बिल्कुल गलत बात है। इसका भी यही उत्तर है, जो सेठ की चोरी वाला है। अगर पाँच की मौत यहीं लिखी थी, तो किसने लिखी थी? ईश्वर ने। क्या ईश्वर जो लिखता है, वो सही लिखता है, या गलत लिखता है? सही लिखता है, और वो कर्म-फल के अनुसार लिखता है। यह तो उनका कर्म-फल था, यहीं उनको मरना था, अगर यही मानते हैं तो रेल-इंजन के ड्राइवर को ईनाम दो। उसने भगवान के आदेश का पालन किया है। इनकी मौत आयी थी, इसलिए उसने इनको मार दिया। देंगे ईनाम? नहीं देंगे। जो चोर वाली घटना में उत्तर है, वही इस घटना का भी उत्तर है। चाहे वो ट्रक एक्सीडेंट हो, चाहे प्लेन एक्सीडेंट हो, कोई भी दुर्घटना हो।
किसी भी दुर्घटना में कोई भी व्यक्ति मर जाता है, घायल हो जाता है, वो पूर्व में किए गए कमरें का फल नहीं है। ट्रक वाले ने शराब पीकर बेलगाम गाड़ी चलाई, ठोंक दिया। तो हाथ-पाँव टूट गए, व्यक्ति की मृत्यु हो गई, यह कर्म-फल नहीं है। यह अन्याय है। ऐसे ही सभी समस्याओं को आप सुलझा लेंगे।
यहाँ पर एक श्रोता ने पूछा कि – ”एक बच्चा पैदा होते ही चार घण्टे में मर गया तो क्या वह इतनी ही आयु लेकर आया था?” तब मैंने इसका उत्तर दिया कि, यह कठिन (उलझा हुआ) प्रश्न है। इसका तो बहुत विश्लेषण करना पड़ेगा। डॉक्टर की भूल थी कि नहीं थी, इसका निर्णय करना बहुत कठिन है। बच्चे माता-पिता की भूल से भी मरते हैं, गलत दवाई से भी मरते हैं।
हमारी भूल हमें पकड़ में नहीं आती हैं। कैसे होती है भूल? एक रोगी आई.सी.यू. में था। कभी होश में आता था, तो कभी बेहोश हो जाता था। ऐसे-ऐसे झोले खा रहा था जीवन-मृत्यु के बीच में। बीच में राउण्ड पर डॉक्टर साहब आए, उन्होंने चेक किया और डिक्लेयर (घोषित) कर दिया कि ”सिस्टर ले जाओ, रोगी मर गया है।” इतने में वो रोगी होश में आ गया। और उसने सुन भी लिया कि डॉक्टर साहब ने बोल दिया कि रोगी मर गया। इतने में रोगी मरी-मरी सी आवाज में बोला – ”डॉक्टर साहब, मैं अभी मरा नहीं हूँ, जिन्दा हूँ।” तो नर्स ने डाँटकर कहा-”चुप रहो, डॉक्टर को तुमसे ज्यादा मालूम है।” अब बताइए, डॉक्टर को ज्यादा मालूम है या रोगी को?
तात्पर्य है कि, डॉक्टर भी मनुष्य है, परमात्मा नहीं है। उससे भी भूल हो सकती है, गलती हो जाती है। केमिस्ट की भूल हो सकती है। कभी एक्सपायरी डेट की दवा दे दी। और जो अनेक नियम पालन करने पड़ते हैं, उनमें भूल हो जाती है। गर्भावस्था में माता ने खाने-पीने में भूल कर दी, उठने-बैठने में भूल कर दी, झटका लग गया। छोटे बालक की मृत्यु के पता नहीं कितने कारण हो सकते हैं। वो व्यक्ति भूल जाता है कि हमने कहाँ गड़बड़ की। और कहता है कि – ”साहब मैंने भूल कहाँ की।” जबकि वह की होती है उसने। कभी वह भूल छुपाने की कोशिश करता है। ऐसे बहुत सारे कारण होते हैं।
किसी भी घटना का विश्लेषण करते समय यह ध्यान देना है कि जो दुःख मिल रहा है, वो न्याय से मिल रहा है, या अन्याय से। कसौटी याद रखिएः-
यदि न्याय से दुःख मिल रहा है, तो कर्म-फल, और अन्याय से मिल रहा है तो कर्म-फल नहीं।
सेठ के यहाँ चोरी हुई, यह अन्याय से उसको दुःख दिया। यह कर्म-फल नहीं है।
चोर पकड़ा गया, चोरी करने के बाद, उसको छह माह की जेल हुई या एक वर्ष की जेल हुई। यह क्या हुआ? यह न्याय हुआ। जो न्याय है, वो कर्म-फल है। जिसने चोरी की, उसको जेल हुई। दूसरे ने चोरी नहीं की, उसको जेल नहीं हुई।
चोरी की किसी और ने, लेकिन जेल में गया कोई दूसरा, तो इसे अन्याय कहेंगे।
ऐसे भी किस्से बहुत आते हैं। एक व्यक्ति ने किसी का खून कर दिया और वह बीस साल तक नहीं पकड़ा गया, खुला घूमता रहा। बीस साल बाद हत्या की एक और घटना हुई, और इस बार हत्या किसी दूसरे ने की, तथा यह निर्दोष होते हुए पकड़ा गया। न्यायाधीश ने उसको जेल कर दी कि यह हत्यारा है। इस पर लोगों ने कहा – ”इसको बीस साल पहले वाली घटना का दंड अब मिला है।” यह बिल्कुल झूठ बात है।
पहले बीस साल वाली घटना में वो दोषी था, तब उसको कर्म का दंड नहीं मिला। जबकि दूसरी घटना में वह दोषी नहीं था। निर्दोष होने पर भी उसको दंड मिला, जबरदस्ती उसको जेल हो गई। दोनों जगह गलत हुआ। यह पिछली हत्या का दंड (कर्मफल) नहीं है। वो मामला अलग था, यह मामला अलग है। वहाँ मरने वाला कोई और था, यहाँ मरने वाला कोई और है। दो अलग-अलग केसेस हैं।
(6) छठा नियम- यदि कर्म करें, तो फल अवश्य मिलेगा। उसमें छूट-छाट कुछ नहीं। जो कर्म है, उस कर्म को देखिए। उस कर्म का फल देखिए। उस कर्म का फल से संबंध जोड़कर देखिए कि उस व्यक्ति को जो दंड मिल रहा है, वो उस कर्म से संबंधित है, या नहीं। यदि कर्म से संबंधित है, और ठीक न्याय से फल मिल रहा है, तब तो है वह कर्म-फल।
जो कर्मफल के नियम हैं, वो लागू कीजिएगा। अच्छे कर्म का कैसा फल – ‘अच्छा फल’। और बुरे कर्म का कैसा फल – ‘बुरा फल’। और कर्म ही नहीं करे तो? ‘कोई फल नहीं’। अब इसने यहाँ दूसरी घटना में कर्म तो किया ही नहीं, तो फल किस बात का ?
(7) सातवाँ नियम- पहले कर्म, बाद में फल। उस खूनी व्यक्ति का कर्मफल दण्ड न दिया जाने से जमा हो गया। पुलिस ने उसको नहीं पकड़ा, प्रकरण अदालत नहीं पहुँचा, इसलिए उसको दंड नहीं मिला। अब या तो न्यायाधीश बीस साल पहले वाली फाइल खोले। उसकी फिर से रिसर्च हो कि बीस साल पहले जो हत्या हुई थी, उसका हत्यारा कौन है? और ढूँढ-ढाँढ के उसी केस का दंड उसको दे, तब तो ठीक है। पर यहाँ तो, केस किसी और का चल रहा है, और दण्ड उसे मिल रहा है। उसका तो केस चल ही नहीं रहा है।
जिन घटनाओं का दंड यहाँ न्यायाधीश और सरकार ने नहीं दिया, नहीं दे पाए, पकड़ में नहीं आए, वो व्यक्ति के खाते में जमा रहेंगे। उनका फल ईश्वर अंत में देगा। इस प्रकार से न्याय-अन्याय को समझना चाहिए।

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