जिज्ञासाः- निम्न लिखित वेद मन्त्रों से शंका और उपशंका उत्पन्न होता है। यजुर्वेद अ. 29 के मन्त्रों 40,41 और 42 संया वाले…. ‘‘छागमश्वियोस्वाहा। मेषं सरस्वत्ये स्वाहा, ऋषभमिन्द्राय….। 40’’ ‘‘छागस्य वषाया मेदसो…..मेषस्य वषाया मेदसो, ऋषभस्य वषाया मेदसो……41’’ छागैर्न मेषै, र्मृषमैःसुता…..42 इनमें से 41 और 42 मन्त्रों का अर्थ ‘‘दयानन्द संस्थान से प्रकाशित भाष्य में भी बकरे, भेड़ों और बैल किया गया है। ये सब पौराणिक के जैसा भाष्य देखने को आया शंका होता है इस शंका के समाधान कर के उत्तर भेजें।’’ पं. गभीर राई अग्निहोत्री, कोलाखाम, पोस्ट लावा बाजार- 734319, कालिपोङ

समाधानमहर्षि दयानन्द आर्यावर्त की उन्नति, सुख, समृद्धि का एक कारण यज्ञ को कहतेहैं। महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिखते हैं- ‘‘आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’’ महर्षि ने यहाँ यज्ञ की महत्ता को प्रकट किया है। यज्ञ से रोग कैसे दूर होंगे? जब हवन की अग्नि में रोगनाशक पदार्थ डालेंगे तब रोग दूर होगें। यज्ञ में माँस आदि पदार्थ डालने से रोग दूर होकर कैसे कभी सुख की वृद्धि हो सकती है? उलटे मांसादि द्रव्य अग्नि में होम करने से तो रोग उत्पन्न हो दुःख की वृद्धि होगी। महर्षि होम से रोग दूर होना और सुख का बढ़ना देख रहे हैं। यज्ञ में मांसादि का डालना कब और क्यों हुआ वह अन्य पाठकों को दृष्टि में रखकर आगे लिखेगें। पहले आपकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। आपने जो यजुर्वेद 21 वें अध्याय के 40-42 मन्त्र उद्धृत किये हैं वह जो उन मन्त्रों का महर्षि ने भाष्य किया है सो ठीक है। इस भाष्य को देखने पर पौराणिकों जैसा भाष्य न लगकर अपितु और दृढ़ता से आर्ष भाष्य दिखता है। यहाँ पाठकों को दृष्टि में रखकर मन्त्र व उसका ऋषि भाष्य लिखते हैं।

(1) होता यक्षदाग्नि ँ स्वाहाज्यस्य स्तोकानाथंस्वाहा मेदसां पृथक् स्वाहा

छागमश्वियाम् स्वाहा मेषं सरस्वत्यै स्वाहाऽऋषभमिन्द्राय

…..पयः सोमः परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज।।

19.40

मन्त्रों को पूरा पदार्थ न लिखकर, जिन पर आपकी जिज्ञासा है उनका अर्थ व मन्त्रों का भावार्थ यहाँ लिखते हैं- (छागम्)  दुःख छेदन करने को (अश्वियाम्) राज्य के स्वामी और पशु के पालन करने वालो से (स्वाहा) उत्तम रीति से (मेषम्)सेचन करने हारे को (सरस्वत्यै) विज्ञानयुक्त वाणी के लिए (ऋषभम्) श्रेष्ठ पुरुषार्थ को (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिए।

भावार्थइस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोप्मालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या, क्रियाकुशलता और प्रयत्न से अग्न्यादि विद्या को जान के गौ आदि पशुओं का अच्छे प्रकार पालन करके सबके उपकार को करते हैं वे वैद्य के समान प्रजा के दुःख के नाशक होते हैं।

(2) होता यक्षदश्विनौ छागस्य वपाया मेदसो जुषेताम्…

………मेषस्य वपाया मेदसो जुषताम् हविर्होतर्यज……..

….ऋषभस्य वपाया मेदसो जुषताम्……..   19.41

(छागस्य) बकरा, गौ, भैंस आदि पशु सबन्धी (वपाया) बीज बोने वा सूत के कपड़े आदि बनाने और (मेदसः) चिकने पदार्थ के (हविः) लेने देने योग्य व्यवहार का (जुषेताम्) सेवन करें…………(मेषस्य) मेढ़ा के (वपायाः) बीज को बढ़ाने वाली क्रिया और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) अग्नि में छोड़ने योग्य संस्कार किये हुए अन्न आदि पदार्थ (जुषताम्) सेवन करें…………(ऋषभस्य) बैल की (वपायाः) बढ़ाने वाली रीति और (मेदसः) चिकने पदार्थ सबन्धी (हविः) देने योग्य पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करें।

भावार्थ जो मनुष्य पशुओं की संया और बल  को बढ़ाते हैं वे आपाी बलवान् होते और जो पशुओं से उत्पन्न हुए दूध और उससे उत्पन्न हुए  घी का सेवन करते वे कोमल स्वभाव वाले होते हैं और जो खेती करने आदि के लिए इन बैलों को युक्त करते हैं वे धनधान्य युक्त होते हैं।

(3)होता यक्षदश्विनौ सरस्वतीमिन्द्रम…छागैर्नमेषैर्ऋषभैः

सुता …………मधु पिवन्तु मदन्तु व्यन्तु होतर्यज।। 19.42

पदार्थ (छागैः) विनाश करने योग्य पदार्थों वा बकरा आदि पशुओं (न) जैसे तथा (मेषैः) देखने योग्य पदार्थों वा मेढ़ों (ऋषभैः) श्रेष्ठ पदार्थों वा बैलों (सुताः) जो अभिषेक को पाये हुए हों वे।

भावार्थजो संसार के पदार्थों की विद्या, सत्यवाणी और भली भांति रक्षा करने हारे राजा को पाकर पशुओं के दूध आदि पदार्थों से पुष्ट होते हैं वे अच्छे रसयुक्त अच्छे संस्कार किये हुए अन्न आदि जो सुपरीक्षित हों, उनको युक्ति के साथ खा और रसों को पी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के निमित्त अच्छा यत्न करते हैं, वे सदैव सुखी होते हैं।

यहाँ इन मन्त्रों के भाष्य और भावार्थ में कहीं भी पौराणिकता नहीं लग रही है। मन्त्रों में छाग, ऋ षभ, मेष आदि शद आये हैं, उनका महर्षि ने जो युक्त अर्थ था वह किया है। छाग का अर्थ लौकिक भाषा में बकरा होता है किन्तु महर्षि ने छाग का अर्थ दुःख छेदन किया है। मेष का अर्थ सामान्य भेड़ होता है, और महर्षि का अर्थ सेचन करने हारा है। ऐसे ही ऋषभ का सामान्य अर्थ बैल और महर्षि का अर्थ श्रेष्ठ पुरुषार्थ है। जब ऐसे पौराणिकता से परे होकर महर्षि ने वैदिक अर्थ किये हैं तब कै से कोई कह सकता है कि यह पौराणिकों जैसा भाष्य दिखता है। भेड़ बैल, बकरा आदि शद आने मात्र से पौराणिकों जैसा भाष्य नहीं हो जाता।

हाँ यदि महर्षि मन्त्र में आये हुए वपा और मेद का अर्थ चर्बी करके उसकी हवन में आहूति की बात कहते तो यह महर्षि का भाष्य अवश्य पौराणिकों वाला हो जाता किन्तु महर्षि ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा। अपितु वपा का अर्थ महर्षि बीज बढ़ाने वाली क्रिया करते हैं और मेद का अर्थ चिकना पदार्थ जो कि महर्षि ने मन्त्रों के भावार्थ में घी-दूध आदि पदार्थ लिखे हैं।

महर्षि का किया वेद भाष्य तो पौराणिकता से दूर वैदिक रीति का भाष्य है। जो पौराणिकों ने इन्हीं वेद मन्त्रों के अर्थ भेड़, बकरा, बैल आदि पशुओं के मांस को यज्ञ में डालना कर रखे थे, उनको महर्षि ने दूर कर शुद्ध भाष्य किया है। पौराणिक लोगों ने लोक प्रचलित अर्थ वेद के साथ जोड़कर भाष्य किया, जिससे इतना बड़ा अनर्थ हुआ कि संसार के जो सभी मनुष्य एक वेद मत को मानकर चल रहे थे, उसको छोड़ नये-नये मत बनाकर चलने लग गये। यह वही वेदमन्त्रों के अनर्थ करने का परिणाम था।

वपा और मेद का अर्थ चर्बी, वसा लोक में है जो कि यही अर्थ पौराणिकों ने लिया। पौराणिकों को ज्ञात नहीं की वेद में रूढ शद और अर्थों का प्रयोग नहीं है अपितु यौगिक शद और अर्थों का प्रयोग है जो कि महर्षि दयानन्द ने योगिक मानकर ही वेदमन्त्रों का अर्थ किया है।

यज्ञ में मांस आदि का डालना महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्रह्मणों के आलस्य प्रमाद के कारण हुआ। महर्षि दयानन्द इस  विषय में कहते हैं- ‘‘परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या संदेह?………….।’’

जब ब्राह्मण विद्याहीन हुये तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान् होने में तो कथा ही क्या कहानी? जो परपरा से वेदादिशास्त्रों का अर्थ सहित पढ़ने का प्रचार था, वहाी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे। सो पाठ मात्र भी क्षत्रियों आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान् हुए, गुरु बन गये, तब छल-कपट-अधर्म भी उनमें बढ़ता चला।…….’’ स.प्र.स. 11।।

यज्ञ में मांसादि का कारण ब्राह्मणों का आलस्य प्रमाद व विषयासक्ति रहा है, यह मान्यता महर्षि दयानन्द की है जो युक्त है।

जब यज्ञों में अथवा यज्ञों के नाम पर पशु हिंसा का प्रचलन हुआ तो अश्वमेघ, गोमेध, नरमेध आदि यज्ञों का यथार्थ स्वरूप न रखकर उल्टा कर दिया अर्थात् अश्वमेघ यज्ञ जो चक्रवर्ती राजा करता था, इसमें इन पोप ब्राह्मणों ने घोड़े के मांस की आहुति का विधान यज्ञ कर दिया। ऐसे गोमेध जो कि गो का अर्थ इन्द्रियाँ अथवा पृथिवी था, जिसमें इन्द्रिय संयमन किया जाता था उस गोमेध यज्ञ में गाय के मांस का विधान इन तथाकथित ब्राह्मणों ने कर दिया। इसके विधान के लिए सूत्रग्रन्थों में ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रक्षेप कर दिया। यज्ञों के यथार्थ अर्थ, स्वरूप को समझकर जो पशु यज्ञ व यजमान् के उपकारक थे, उन पशुओं को मार-मारकर यज्ञकुण्डों में उनकी आहुति देने लगे। धीरे-धीरे अनाचार इतना बढ़ा कि वैदिक मन्त्रों का विनियोग यज्ञों में और उनके माध्यम से पशुहिंसा में होने लगा। जिस प्रकार के मन्त्र ऊपर दिये हैं ऐसे मन्त्रों का विनियोग ब्राह्मण वर्ग यज्ञ में पशुहिंसा के लिए करने लगे थे।

वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा विशेषण रूप में ‘अध्वर’ शद का प्रयोग सैकड़ों स्थानों पर आया है। निघण्टु में ‘ध्वृ’ धातु हिंसार्थक है। अध्वर शद में हिंसा का निषेध है अर्थात् नञ् पूवर्क ध्वृ धातु से अध्वर शद बना है। इस अध्वर शद का निर्वचन करते हुए महर्षि यास्क ने लिखा है- अध्वर इति यज्ञनाम-ध्वरहिंसाकर्मा तत् प्रतिषेधः। (निरुक्त-1.8)

अध्वर यज्ञ का नाम है, जिसका अर्थ हिंसा रहित है। अर्थात् जहाँ हिंसा नहीं होती वह अध्वर=यज्ञ कहलाता है। ऐेसे हिंसा रहित कर्म को भी इन पोपों ने महाहिंसा कारक बना दिया था।

मेध शद ‘मेधृ’ धातु से बना है। मेधृ– मेधाहिंसनयोः संगमे च यह धातुपाठ का सूत्र है। मेधृ धातु के बुद्धि को बढ़ाना, लोगों में एकता या प्रेम को बढ़ाना और हिंसा ये तीन अर्थ हैं। इन तीनों अर्थों में से पोप जी को हिंसा अर्थ पसन्द आया और इससे यज्ञ को भी हिंसक बना दिया। जिस धर्म और समाज में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था वहाँ यज्ञों हिंसा करना एक विडबना ही थी।

वेदों में अनेकत्र ऐसे वचन उपलध हैं जिसमें स्पष्ट ही पशु रक्षा का निर्देश है। यजुर्वेद के प्रारा में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म कहते हुए कहा है – ‘पशुन्पाहि’ पशु मात्र की रक्षा करो। इसी यजुर्वेद के मन्त्र 1.1 में गौ को ‘अघ्न्या’ न मारने योग्य कहा है। यजु. 6.11 में गृहस्थ को आदेश दिया है- ‘पशुंस्त्रायेथाम्’ पशुओं की रक्षा करो। 14.3 में कहा- ‘द्विपादवचतुष्पात् पाहि’ दो पैर वाले मनुष्य और चार पैर वाले पशुओं की रक्षा करो। वेद में ऐसे-ऐसे निर्देश अनेक स्थलों पर हैं। जो वेद पशुओं की रक्षा करने का निर्देश देता हो उसमें पशुओं की हिंसा का अर्थ निकालना भी पशुता ही है।

महर्षि दयानन्द वेदों के अनुयायी थे। वेदों को सर्वोपरि प्रमाण मानते थे। महर्षि की वेदों के प्रति दृढ़ आस्था थी। और महर्षि ने वेदों को यथार्थ में समझा था। यथार्थरूप में वेद को समझने वाले ऋषि के वेद भाष्य में पौराणिकता कैसे हो सकती है, ऐसा होना सर्वथा असभव है। अस्तु

-ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर