व्यक्ति के अंदर अच्छे संस्कार भी होते हैं और बुरे संस्कार भी।
स जब व्यक्ति अच्छे संस्कार को जगाकर भगवान की स्तुति प्रार्थना-उपासना करता है तो कभी-कभी आतंरिक भावनाएँ जागती हैं। गहरी भावुकता के उन क्षणों में कभी-कभी रोना आ जाता है। उसको एहसास होता है कि, ओह! मैने इतना समय व्यर्थ में खो दिया। मैं संसार के चक्कर में पड़ा रहा। भगवान को याद ही नहीं किया। अब जाकर मुझे होश आया, कि भगवान तो इतना मूल्यवान है।
स व्यक्ति सोचता है :- बहुत साल हो गए, पहले से अगर भगवान का ध्यान करता होता, तो मुझे बहुत आनंद मिलता। अब उसको प्रायश्चित्त होता है, पश्चाताप होता है। इस कारण उसको कभी-कभी रोना आता है, आँसू आते हैं। यह कोई बुरी बात नहीं है। ऐसे ही और भी कारण हो सकते हैं।
आँसू खुशी में भी आते हैं। भगवान का ध्यान करने से आनंद मिलता है। सात्त्विक वृत्ति बढ़ती है, उससे भी आंसू आते हैं। उनके पीछे पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड( यही रहती है, कि आज मुझे इतना आनंद मिला। यह अब तक मैने क्यों खोया। खुशी के आंसू के पीछे यही कारण होता है। व्यक्ति सोचता है, कि अब ठीक रास्ते पर आ गया हूँ तो उसमें प्रायश्चित्त का भाव जाग्रत होता है। जिससे आँसू आ जाते हैं। वो कोई बुरी बात नहीं है।
स शुरू में अगर ऐसा हो, दो, पाँच, सात दिन या पंद्रह दिन तो कोई आपत्ति नहीं है। धीरे-धीरे जब व्यक्ति अभ्यास करता जाएगा, तो वो रोना बंद हो जाएगा। आँसू आने बंद हो जाऐंगे। और व्यक्ति में स्थिरता आ जाएगी।