चित्त परिवर्तनशील है। कभी सत्त्व गुण, कभी तमोगुण, कभी रजोगुण प्रधान होता रहता है। क्या खान-पान से ऐसा होता है? कहते हैं- ‘जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन’।

यह बात ठीक है। चित्त परिवर्तनशील है। इस पर खान-पान का असर पड़ता है।
स अगर कोई व्यक्ति शराब पी लेगा, कोई भांग खा लेगा, तो उसका असर होगा। तब चित्त तामसिक हो जाएगा। कोई तेज मिर्ची मसाले खाएगा, तो उसका असर होगा। उनका चित्त फिर उतना सात्त्विक नहीं रहेगा, बिगड़ जाएगा। राजसिक भोजन खाएगा-पिएगा, मन बिगड जाएगा। मन में चंचलता आएगी।
स इसलिए सात्त्विक भोजन खाना चाहिए। घी, दूध, फल, मिठाई, शु(, साफ भोजन खायें। उचित मात्रा में खाएँ। दो सूत्र याद रखें-
पहला- थोड़ा खाओ, सुखी रहो।
दूसरा- थोड़ा खाओ, लंबा जीओ।
इस तरह से चलेंगे तो मन ठीक रहेगा। योगाभ्यास ठीक चलेगा और व्यक्ति सुख से जीएगा।
स मन सृष्टि के आरंभ में एक बार उत्पन्न होता है, और शीघ्र नष्ट नहीं होता। ईश्वर ने एक बार मन को बना दिया, अब वो प्रलय काल तक चलेगा। वही मन हर जन्म में बार-बार चलता रहेगा। उसमें थोडी बहुत घिसावट होती है। जो चीज बनती है, वह बिगड़ती ही है, यह नियम है। चित्त भी उत्पन्न हुआ है, तो इसमें भी थोड़ी-थोड़ी घिसावट अवश्य होगी। परन्तु इसमें घिसावट की दर (मात्रा या गति( बहुत कम है।
स चित्त या मन दो ही अवस्थाओं में पूरी तरह नष्ट होता है। या तो उसका मोक्ष हो जाए या तो प्रलय हो जाए। तब आत्मा से मन अलग हो जाएगा। अन्यथा सृष्टि के प्रारंभ से अंत तक वही एक मन आत्मा के साथ हर जन्म में चलता रहेगा।
स जब सृष्टि का प्रलय होगा, तो हर चीज जो बनती है, वो टूटेगी। इसलिए मन भी टूटेगा, बु(ि भी टूटेगी। सब चीजें नष्ट हो जाएँगी। नई सृष्टि में फिर दोबारा बनेगी। प्रकृति वाला मन मोक्ष में साथ में नहीं जाएगा।

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