(घ) आत्मा ससीम, अणुस्वरूप है, इस कारण उसकी कुछ न कुछ तो लबाई-चौड़ाई होगी ही इसलिए उसको साकार कह सकते हैं। यह कहने वाला इसी कारण उसको साकार मानता है तो वह मानता रहे क्योंकि ऐसा मानने वाला साकार-निराकार की परिभाषा ही नहीं जानता। वह तो महत्स्वरूप को निराकार और अणु स्वरूप को साकार मानता है, जो कि इस आधार पर साकार, निराकार की परिभाषा ठीक नहीं है।
(1) साकार वह है जो प्रकृति से बना हुआ है, इससे अतिरिक्त निराकार।
(2) साकार वह जिसमें रूप, रस, गन्ध आदि पाँचों गुण प्रकट हों, इनसे भिन्न अर्थात् जिसमें ये पाँचों प्रकट न हों, वह निराकार।
(3) साकार वह जिसमें रूप गुण प्रकट रूप में हो, इससे भिन्न निराकार।
उपरोक्त साकारा-निराकार की किसी भी परिभाषा से आत्मा साकार सिद्ध नहीं हो रहा और यदि इन परिभाषाओं
की अवहेलना करके कोई व्यक्ति आत्मा को साकार मानता है तो आत्मा सदा नित्य और चेतन सिद्ध न हो पायेगा जो कि वह सदा नित्य और चेतन है। इसलिए उपरोक्त ऋषि प्रमाणों व साकार-निराकार की परिभाषा के अनुसार आत्मा साकार नहीं अपितु निराकार ही है।