(क) सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में वर्णानुसार सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है परन्तु ऋग्वेद में इसका निषेध है- नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ। अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः।। – ऋ. ७-४-८ इस स्थिति में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि महर्षि जी ने किस आधार पर सन्तान-परिवर्तन की व्यवस्था दी है तथा अब समाधान कैसे होगा? २. यजुर्वेद के ‘सत्याःसन्तु यजमानस्य कामाः’ मन्त्रांश को बदलकर कुछ पुरोहित आशीर्वाद रूप में सत्याः सन्तु यजमानायोः अथवा यजमानानां बोलते हैं। मन्त्रों में परिवर्तन का अधिकार उन्हें हैं या नहीं? ३. सन्ध्या के अन्तर्गत मार्जन मन्त्रों में प्रथम कहा है- ओं भूः पुनातु शिरसि अर्थात् हे ईश! आप प्राणों के भी प्राण हैं। मेरा शिर पवित्र करें। इस में शंका है कि प्राणों का सम्बन्ध नासिका से है। भूः का सम्बन्ध नासिकाओं से उचित प्रतीत होता है- ‘ओं भूः पुनातु प्राणयोः’ अथवा ‘ओं भूः पुनातु नासिक्योः।’ कृपया ‘ओं भूः पुनातु शिरसि’ में से भूः व शिरसि की संगति स्पष्ट कीजिएगा। ४. इसी प्रकार मार्जन मन्त्रों के अन्तर्गत तृतीय मन्त्र पर शंका है- ओं स्वः पुनातु कण्ठे। अर्थात् हे सुखस्वरूप प्रभो! अपने उपासकों को सुख प्रदान करने हारे हो। मेरे कण्ठ को सुख प्रदान करो ….। यदि यह मन्त्र ऐसे होते तो अच्छा होवे- ओं स्वः पुनातु शिरसि। शिर में शुद्धि हो, विचारों में शुद्धि हो तो सारी शुद्धि स्वतः होगी। मनुष्य विचारों को अपवित्र बनाता है तो शेष सब अशुद्ध व अपवित्र बनता है। शिर पवित्र बने बिना सुख नहीं आएगा। उपरोक्त दोनों वेद मन्त्रांश नहीं जान पड़ते। अतः इन में परिवर्तन करना वेद में परिवर्तन नहीं माना जाएगा परन्तु ऐसा तब प्रश्न उत्पन्न होगा, जब मेरा विचार संगत माना जाएगा। समाधान दीजिएगा। – इन्द्रजित् देव चूना भट्ठिया, सिटी सैन्टर के निकट, यमुनानगर-१३५००१ (उ.प्र.)

समाधान (क)- आपकी जिज्ञासा, महर्षि के द्वारा वर्णित वर्णानुसार सन्तान होनी चाहिए, इस पर है। यदि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न क्षत्रिय गुण कर्म वाला पुत्र है तो वह क्षत्रिय वर्ण का कहलावे। और ऐसा क्षत्रिय परिवार जिसका पुत्र ब्राह्मण गुण कर्म वाला है, वह ब्राह्मण वर्ण का कहावे। वे दोनों आपस में पुत्रों को बदल लें ऐसा अन्य वर्णों के लिए भी है। दूसरा वेद में कहा अपने गोत्र में उत्पन्न को ही ग्रहण करे। इन दोनों स्थलों को देखने पर आपकी जिज्ञासा स्वाभाविक है।

पहले हम यहाँ महर्षि के दोनों स्थलों को दे रहे हैं।

नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ।

अधा चिदोकः पुनरित्स एत्या नो वाज्यभीषाळेतु नव्यः।।

-ऋ. ७.४.८

पदार्थ- हे मनुष्य! जो (अरणः) रमण न करता हुआ (सुशेवः) सुन्दर सुख से युक्त (अन्योदर्य्यः) दूसरे के उदर से उत्पन्न हुआ हो (सः) वह (मनसा) अन्तःकरण से (ग्रभाय) ग्रहण के लिए (नहि) नहीं मानने योग्य है (चित्, उ, पुनः इत्) भीर भी वह (ओकः) घर को नहीं (एति) प्राप्त होता है (अथ) उसके अनन्तर जो (नव्यः) नवीन (अभीषाड्) अच्छा सहनशील (वाजी) विज्ञान वाला (नः) हमको (आ, एतु) प्राप्त हो।

भावार्थ- हे मनुष्यो! अन्य गोत्र में अन्य पुरुष से उत्पन्न हुए बालक को पुत्र करने के लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि वह घर आदि का दाय भागी नहीं हो सकता किन्तु जो अपने शरीर से उत्पन्न वा अपने गोत्र से लिया हुआ हो वही पुत्र वा पुत्र का प्रतिनिधि होवे।

दूसरा स्थल सत्यार्थप्रकाश से है- ‘‘प्रश्न- जो किसी के एक ही पुत्र वा पुत्री हो, वह दूसरे वर्ण में प्रविष्ट हो जाये तो उसके माँ-बाप की सेवा कौन करेगा और वंशच्छेदन भी हो जायेगा, इसकी क्या व्यवस्था होनी चाहिए? उ     ार- न किसी की सेवा का भंग और न वंशच्छेदन होगा, क्योंकि उनको अपने लड़के-लड़कियों के बदले स्ववर्ण के योग्य दूसरे सन्तान, विद्यासभा और राजसभा की व्यवस्था से मिलेंगे इसलिए कुछ भी अव्यवस्था नहीं होगी।’’ सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४। इन दोनों स्थलों में विरोध दिख रहा है, यथार्थ में कोई विरोध नहीं है। वेद ऊँची स्थिति को कह रहा है और ऋषि आपत् स्थिति में एक अन्य विकल्प दे रहे हैं कि वेद के अनुसार यदि स्वगोत्र की सन्तान न मिल रही हो तो स्ववर्ण के गुण कर्म वाली सन्तान को अपना लें।

इस विषय में व अन्य प्रश्नों के उ   ार के लिए आर्यसमाज के योग्य विद्वान् आचार्य आनन्द प्रकाश जी (अलियाबाद, तेलंगाना) ने जो विचार हमें लिखकर दिये हैं जो कि हमें उचित लग रहे हैं, उनको यहाँ आपके समाधान हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं।

‘‘(१) सबसे अच्छा तो वह है, कि जो अपने वर्ण के गुण कर्मों से युक्त भी हो और आत्मज भी हो अर्थात् अपने से उत्पन्न भी हो, क्योंकि बन्धु-बान्धवों में उससे किसी का विरोध नहीं होता अर्थात् सबको वह स्वीकार्य होता है।

(२) यदि अपना पुत्र न हो, तो जो अपने गोत्र का अपने वर्ण के गुण कर्म से युक्त हो उसे अपना सकते हैं।

(३) तीसरी स्थिति यह है कि यदि अपना वा अपने गोत्र में भी स्ववर्ण के योग्य न हो तो अपने गोत्र से भिन्न दूसरे की सन्तान अपने गुण कर्म से युक्त होने पर, उसे अपना लेवें।’’ यह आपत स्थिति है, श्रेष्ठ स्थिति तो पूर्व-पूर्व वाली है। यह इसलिए कि जो प्रश्न उठाया था- ‘‘जो किसी के एक ही पुत्र……. सेवा कौन करेगा और वंशच्छेदन भी हो जायेगा……।’’ इस स्थिति के लिए महर्षि ने यह व्यवस्था रखी है।

इस प्रकार से यदि दोनों स्थलों को देखेंगे तो जो विरोध दिख रहा है वह विरोध नहीं दिखेगा। फिर भी इस विषय में कोई इससे अच्छा समाधन करना चाहे तो उसका स्वागत है।

(ख) दूसरा प्रश्न आपका ‘सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः’ -य. १२.४४। इस मन्त्रांश के ‘यजमानस्य’ पद पर है। इस मन्त्र के ‘यजमानस्य’ पद में जाति (समूह को शास्त्रीय भाषा में जाति कहते हैं) में एक वचन समझना चाहिए, जिससे एक वा अनेक यजमानों के लिए यह वाक्य ठीक बैठ जाता है। पुनरपि यदि कोई इस पद को ‘व्यक्ति’ (एक इकाई) रूप में बोलना चाहें और ‘जाति’ में एकत्व का ज्ञान न हो, तो ‘यजमानयोः’ या ‘यजमानानाम्’ का प्रयोग भी कर सकते हैं। इसका समाधान व्याकरण महाभाष्य के प्रथम आह्निक में दिया है-

न सर्वैर्लिङ्गैर्न च सर्वाभिर्विभक्तिभिर्वेदे मन्त्रा निगदिताः।

ते चावश्यं यज्ञगतेन पुरुषेण यथायथं विपरिणमयितव्याः।

तान् नावैयाकरणः शक्नोति यथायथं विपरिणमयितुम्

अर्थात् – ‘वेद में मन्त्र सब लिङ्गों ’और सब विभक्तियों से युक्त नहीं पढ़े हैं। उन्हें यज्ञगत पुरुष के द्वारा यथावत् (त    ात् यज्ञ के अनुरूप) विपरिणमित करना (बदलना) होगा। उनको अवैयाकरण नहीं बदल सकता। ऐसा करना मूल मन्त्र के संहितापाठ में परिवर्तन नहीं, अपितु विनियोग में सुविधानुसार परिवर्तन होगा।

(ग) सन्ध्या के मार्जन मन्त्रों में आये ‘ओं भूः पुनातु शिरसि’ पर आपकी शंका है। हे प्रभु- आप प्राणों के भी प्राण हैं मेरे शिर को पवित्र कर दें। इस विषय में हम आपको बता दें कि सम्पूर्ण शरीर में सबसे अधिक प्राणवायु की आवश्यकता मस्तिष्क को होती है। इस तथ्य को आज का आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है। नासिका प्राणवायु लेने का मार्ग है, नासिका मार्ग से लिया गया प्राण सम्पूर्ण शरीर को संचालित करता है। मुख्य रूप से मस्तिष्क को। जब मस्तिष्क को पर्याप्त प्राणवायु नहीं मिलता तब मस्तिष्क काम करना कम कर देता है। उस समय हमें ऊँघ आने लगती है, तमोगुण की वृद्धि होने लगती है और हमें नींद आ जाती है। इसलिए प्राण का अधिक सम्बन्ध मस्तिष्क से होने के कारण ‘भूः पुनातु शिरसि’ कहा है।

दूसरा सभी ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियों का मूल उद्गम शिर (मस्तिष्क) में है। और इन्द्रियों को भी प्राण कह देते हैं। जैसा कि वैदिक साहित्य में कहा है- ‘‘प्राणा इन्द्रियाणि’’ (काठ.सं. ९.१/ताण्ड्य ब्रा. २२.४.३) इसी प्रमाण से महर्षि दयानन्द के सांख्यदर्शन से तथाकथित विरोधाभास का समन्वय भी हो जाता है। क्योंकि सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर के घटकों में ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ गिनाए हैं, जबकि महर्षि दयानन्द ने ५ प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ कहा है। किन्तु प्राण को इन्द्रिय कहने पर यह तथाकथित विरोध समाप्त हो जाता है। पवित्रता के लिए यहाँ प्रार्थना है। यहाँ शिरः पर प्राणरूपी ज्ञान व कर्मेन्द्रियों के मूल उद्गम स्थान मस्तिष्क भाग को संकेतित करता है और ‘सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि’ वाला ‘शिरः’ पद मस्तिष्क स्थानीय मेधा=बुद्धि के लिए प्रयुक्त हुआ है।

(घ) इसी प्रकार ‘स्वः पुनातु कण्ठे’ भी उचित ही है। आप इसको शिर से जोड़ कर देखना चाहते हैं और शिर की पवित्रता से सुख होगा यह भी देख रहे हैं। यह ठीक है किन्तु शिर की पवित्रता के लिए महर्षि ने पृथक् से ‘सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि’ मन्त्र लिखा है। जो तर्क आप ‘स्वः’ के साथ शिर को जोड़ कर दे रहे हैं, वही तर्क ‘सत्यं’ को जोड़ कर भी दिया जा सकता है। इसलिए महर्षि ने जो क्रम रखा है वही अधिक संगत है। ‘सत्य’ सत्यस्वरूप परमेश्वर हमारे शिर को पवित्र करें। अर्थात् हमारे विचारों में सत्यता हो और यही सत्यता ही पवित्रता है। जब हमारे विचारों में सत्यता=पवित्रता होगी तो हम अपने कण्ठ से सुखकारी वचन बोलेंगे, जिससे हमें व अन्यों को सुख मिलेगा। इसलिए ऋषिवर ने ‘स्वः’ को कण्ठ के साथ जोड़ा है और ‘सत्य’ को शिर के साथ, स्वयं एवं दूसरों को सुख व दुःख पहुँचाने में कण्ठ का विशेष मह  व है। विचारों की पवित्रता सत्य से है और कण्ठ की पवित्रता सुखकारक, मधुर वचनों से है।

इसलिए ये मन्त्र भले ही वेद के नहीं है ऋषि वचन हैं फिर भी इनको परिवर्तित करने का अधिकार हम अल्पबुद्धि वालों का नहीं है और जब ये युक्तिसंगत हैं ही तो बदलने की बात भी व्यर्थ है। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर