क्या सोचने में दोष होने से, व्यक्ति सुख से जीना चाहने पर भी, सुख से नहीं जी सकता?

हाँ, यह बिल्कुल ठीक बात है। अगर सोचने में दोष है, सोचना ठीक से नहीं आता तो आप कितना ही सुख से जीना चाहें, इच्छा आपकी कुछ भी हो, लेकिन सुख से नहीं जी सकते। सोचने को पहले ठीक करना पड़ेगा।
स जिसका सोचने का ढंग ठीक है, वो सुखी है। और जिसका सोचने का ढंग गलत है, वो दुःखी है।
स प्रश्न उठता है कि – सोचने का सही ढंग क्या है? उत्तर है- वही तीन शब्द “कोई बात नहीं”। आपने ‘गीता सार’ पढ़ा होगा कि-
”क्या हो गया, उसने तुम्हारा क्या छीन लिया, जो कुछ लिया, यहीं से लिया और जो कुछ दिया, यहीं पर दिया, तुम क्या लाये थे, जो तुम्हारा खो गया, तुम्हारा क्या चला गया, तुम क्यों रोते हो, कुछ नहीं गया, सब भगवान का था और छीन लिया तो भगवान का गया, आपका कुछ नहीं गया।”
स ये ध्यान रहे कि, यहाँ आध्यात्मिक-भाषा चल रही है। इसको लौकिक-भाषा में फिट मत कर देना, नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी। आप कहेंगे कि पाकिस्तान, कश्मीर को छीन कर ले गया, तो तुम्हारा क्या ले गया। वहाँ यह नियम नहीं चलेगा। वो लौकिक-क्षेत्र है। वो क्षेत्र अलग है, आध्यात्मिक क्षेत्र अलग है।
स हम जब संसार में आए, जन्म लिया, हमारे पास कुछ भी नहीं था। खाली हाथ आए थे और जब जाएंगे, तब खाली हाथ जाएंगे। फिर हमारा तो कुछ था ही नहीं। आध्यात्मिक दृष्टि से तुम्हारा कुछ नहीं था। और अगर किसी ने थोड़ा बहुत छीन भी लिया, तो भगवान बैठे नहीं हैं क्या? वे देखते नहीं हैं क्या?
स आप संध्या में छह बार तो सुबह बोलते हैं और छह बार शाम को बोलते हैं – “योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः” अर्थात् जो हमसे द्वेष करते हैं, हम पर अन्याय करते हैं, जो भी गड़बड़ करते हैं, उसको हम ईश्वर के न्याय पर छोड़ देते हैं। आप अपने साथ किए गए अन्याय को ईश्वर के न्याय पर तभी तो छोड़ेंगे, जब आप बोलेगें-”कोई बात नहीं।” यह उसी का अनुवाद है। भगवान बैठे हैं, नुकसान या द्वेष को ईश्वर के न्याय पर छोड़ दो। भगवान अपने आप न्याय करेगा।
स हम झगड़े में पड़ेंगे तो हमारा योगाभ्यास बिगड़ जायेगा। हम ध्यान नहीं कर पायेंगे। हर समय हमारे मन में वही व्यक्ति याद आएगा, जिसने हम पर अन्याय किया, जिसने हमसे द्वेष किया। हम बस उसी को याद करते रहेंगे, और संध्या, ध्यान आदि कुछ नहीं होगा।
सीख यही है कि, ठीक ढंग से सोचेंगे, तो हम सुख से जिएंगे। और गलत ढंग से सोचेंगे, तो हम कितना ही सुख से जीना चाहें, नहीं जी पाएंगे। आओ हम, पहले सोचने का दोष ठीक करें।

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