क्या ‘मन’ पर पड़े ‘संस्कारों’ के विरू( भी ‘आत्मा’ कार्य कर सकता है?

बिल्कुल कर सकता है।
स मन में जो संस्कार है, वो कहता है, चोरी कर लो। आत्मा कहता है- नहीं। आप उसके सामने अड़ जाओ। ठीक वैसे ही जैसे अभिमानी आदमी अड़ जाता है।
स संस्कार अपना स्वभाव जरूर दिखायेंगे। आलंबन उपस्थित होने पर संस्कार जागेंगे। मान लो, अभी आपकी आइसक्रीम खाने की इच्छ नहीं है। लेकिन यदि सामने प्लेट में आइसक्रीम परोस दी जाये, तो इच्छा जाग जायेगी। आइसक्रीम आलंबन है, जिसके सामने उपस्थित होने पर संस्कार जागता और आइसक्रीम खाने की प्रेरणा देता है। उस संस्कार को दबाना, उससे लड़ना, यह आत्मा का काम है। यदि वो चाहे, जोर लगाये, तो वो लड़ सकता है, दबा सकता है, उससे जीत सकता है। इसमें कोई शंका की बात नहीं है। इसी का नाम ‘पुरूषार्थ’ है।
स दार्शनिक-मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि भाग्य से ज्यादा बलवान पुरूषार्थ है। इसलिये पुरूषार्थ करो, इन संस्कारों को दबाओ, इनको मारो। दो में से एक को मार खानी पड़ेगी। अब विकल्प-चयन आपके हाथ में है।

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