क्या ईश्वर दयालु है और हम सबका भला चाहता है, तो उसने जीव को काम करने में स्वतंत्र क्यों बनाया? उसने सभी को सुबु(ि क्यों नहीं दी, ताकि कोई बुरा काम कर ही न सके?

प्रश्न है, कि ईश्वर ने हमको स्वतंत्र क्यों बनाया? इसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने हमको स्वतंत्र नहीं बनाया है। बल्कि जीवात्मा स्वभाव से ही स्वतंत्र है। ईश्वर ने उसको छूट नहीं दी है। वह अनादिकाल से स्वतंत्र है। जब वह स्वभाव से स्वतंत्र है तो ईश्वर उसकी स्वतंत्रता में बाधक क्यों बने? यह तो अन्याय है। जो अनादिकाल से हमारा गुण-कर्म- स्वभाव है, ईश्वर उस पर लगाम (ब्रेक( क्यों लगाये, उस पर प्रतिबंध क्यों लगाये? तो जीव स्वभाव से स्वतंत्र है, इसीलिये वो स्वतंत्रता से कर्म करता है।
स हाँ, फल भोगने में वो परतंत्र है। इसलिये वेद में ईश्वर क्या कहता है कि- ”सच बोलो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, दान दो, सेवा करो, परोपकार करो, अच्छे काम करो”। यह सब ईश्वर का आदेश नहीं है, बल्कि ये उसके सुझाव (सजेशन( हैं। ईश्वर कहता है ये अच्छे काम हैं, इन्हें करो। और ये बुरे काम हैं, इन्हें मत करो। अच्छे करोगे, तो ‘ईनाम’ दूँगा। बुरे करोगे, तो ‘दंड’ दूँगा। आपकी इच्छा है, जो चाहे सो करो। इस तरह फल भोगने में आप परतंत्र हैं।
स अगर ऐसे ईश्वर हमको स्वतंत्र ही न छोड़े, हमारी स्वतन्त्रता पर प्रतिबंध लगा दें, तो फिर हम बुरे काम कर ही नहीं पायेंगे। और बुरे नहीं कर पायेंगे, तो फिर सृष्टि बनाने का उद्देश्य ही क्या रहा? अगर एक विद्यार्थी को कहा जाय, कि आप यहाँ बैठो और तीन घंटे परीक्षा दो और परीक्षा में हम जो कहेंगे, वो ही लिखना है, अपनी मर्जी से कुछ नहीं लिखना। तो बताइये परीक्षा का लाभ क्या रहा, परीक्षा का उद्देश्य ही क्या रहा? जब कोई उद्देश्य ही नहीं रहा, तो सब बेकार है। तो फिर परीक्षा क्यों हुई? जब विद्यार्थी अपनी मर्जी से कुछ लिख ही नहीं सकता, तो फिर परीक्षा व्यर्थ हुई? यही तो परीक्षा है, कि उसको छूट दी जाये। वो जो चाहे सो लिखे, बाद में अगर गलत लिखा पायेगा, तो आप उसके नंबर भले ही काट लेना, पर उसको अभी तो लिखने दो, तभी तो वो परीक्षा है। इसलिये संसार में, यह जीवन भी एक परीक्षा है। जैसे कॉलेज और स्कूल की तीन घंटे की परीक्षा होती है। ऐसे ही यह जीवन की भी तीन घंटे की परीक्षा है। स्कूल, कॉलेज की परीक्षा में तीन घंटे (180 मिनिट( का समय होता है। जबकि हमारे जीवन की परीक्षा में घंटा कई वर्षों का होता है।
स पहला घंटा- बचपन है, दूसरा घंटा- जवानी है, और तीसरा घंटा- बुढ़ापा है। उसके बाद मृत्यु की घंटी बजने वाली है। उसके बाद नंबर मिलेंगे। अच्छे उत्तर लिखे अर्थात् अच्छे कर्म किये, तो अच्छा जन्म, और बुरे उत्तर लिखे अर्थात् बुरे कर्म किये, तो बुरा जन्म मिलेगा। स्कूल की परीक्षा में ईश्वर वाली परीक्षा में एक और अन्तर भी है। स्कूल की परीक्षा में तीन घंटे पूरे होने के बाद परीक्षा पूरी हो जाती है। तब घंटी बजती है। घंटी के बाद गणना (मार्किंग( होती है। बीच में मार्किंग नहीं होती। तीन घंटा जब तक पूरा न हो जाये तब तक नंबरिंग नहीं होती। परन्तु जीवन की परीक्षा में तो बीच में भी मार्किंग होती है। बीच में ही नम्बर मिलने शुरू हो जाते है। तात्पर्य है कि चालू (इसी( जीवन में ही कुछ कर्मों का फल मिलना शुरू हो जाता है। बचे हुये कर्मों का फल अगले जन्मों में धीरे- धीरे मिलता रहता है। जैसे ईश्वर की फल देने की व्यवस्था होती है, उसी के अनुसार फल मिलता रहता है। इसलिये ईश्वर ने हमको ‘स्वतंत्र’ छोड़ रखा है। वो हमारा स्वाभाविक धर्म है, हमारा स्वाभाविक अधिकार है। ईश्वर सबको अच्छी बु(ि देता है। सुझाव तो अच्छा ही देता है। फिर हमारी मर्जी है, हम उसे सुनें या नहीं सुनें।

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