सही बात है। देखिए, कर्म तो स्पष्ट है। कर्म कहते हैं- क्रिया (एक्शन( को। एक मजदूर ने ईटें उठाकर यहाँ डाल दी। मिस्त्री ने ईटों पर ईट रखके,मसाला डालकर दीवार खड़ी कर दी। यह तो कर्म है। यहाँ स्पष्ट है, कि क्रिया हो रही है, उसका नाम है-कर्म। अब विचारने के लिए दो बातें बची-गुण और स्वभाव।
स्वभाव का अर्थ होता है- ‘स्व’ का भाव, अर्थात् किसी द्रव्य के अपने गुण। जैसे-अग्नि में गर्मी। यह गर्मी, अग्नि का अपना गुण है, इसे ‘स्वभाव’ कहेंगे। ‘गुण’ किसी दूसरे द्रव्य से उधार लिया हुआ भी हो सकता है। जैसे- यदि पानी को अग्नि के सम्पर्क से गर्म कर दिया जाये, तो गर्म पानी में ‘गर्मी’ पानी का ‘गुण’ तो कहलाएगा, परन्तु उसका ‘स्वभाव’ नहीं। क्योंकि वह गर्मी, पानी ने अग्नि से उधार ले रखी है। इस प्रकार से- जो किसी द्रव्य की विशेषता केवल अपनी है, उसे ‘स्वभाव’ कह देंगे। और जो बाहर से ले रखी है, उसको ‘गुण’ कह देंगें। गुण और स्वभाव में ज्यादा अंतर नहीं है। स्वभाव में भी गुण ही होते हैं। अंतर केवल इतना है, कि किसी द्रव्य के अपने गुण हैं, पर्सनल प्रापर्टी है ‘स्वभाव’। और यदि किसी दूसरे द्रव्य से उधार ले रखे हों, उन्हें हम ‘गुण’ कह देंगे। गुण-कर्म स्वभाव की यह एक मोटी-मोटी परिभाषा हो गई।
अब ईश्वर की बात करते हैं। क्या ईश्वर कोई गुण दूसरे पदार्थ से भी
धारण करता है, उधार लेता है? नहीं लेता। ईश्वर के जितने भी गुण हैं, वे सारे उसके अपने हैं। इसलिए ईश्वर के संबंध में ‘गुण और स्वभाव’ में कोई अंतर नहीं।
और कर्म तो स्पष्ट ही है। ईश्वर सृष्टि बनाता है, न्याय करता है। लोगों को मनुष्य, पशु-पक्षी बनाता है- ये कर्म हैं। ईश्वर वेद का उपदेश देता है। उपदेश देना एक कर्म है। ईश्वर कर्म से अलग नहीं है। तो सार यह हुआ, कि ईश्वर के गुण और स्वभाव में अंतर नहीं है। परन्तु मनुष्यों में गुण और स्वभाव का अंतर दिखता है। जैसे जीवात्मा में इच्छा गुण है। कुछ इच्छाऐं ऐसी हैं, जो हमारी अपनी हैं, स्वाभाविक इच्छाऐं हैं- वह हमारा स्वभाव है। कुछ इच्छाऐें ऐसी हैं, जो किन्हीं कारणों से उत्पन्न हो गर्ईं, और वो हट भी जायेंगी। उदाहरण के लिए, सुख प्राप्ति की इच्छा है। सुख मिलना चाहिए। यह तो स्वाभाविक इच्छा है। लेकिन खीर, पूड़ी, हलवा,लड्डू की इच्छा स्वाभाविक नहीं है। जब तक खीर, पूड़ी, हलवा में आपको सुख दिखता है, तब तक वह इच्छा रहेगी। जब उसमें दुःख दिखने लगेगा, वह इच्छा समाप्त हो जाएगी। जो नैमित्तिक इच्छाऐं हैं, उन्हें ‘गुण’ कहेंगे। नैमित्तिक यानी किन्हीं कारणों से जो इच्छाऐं पैदा हो गईं, तो वह ‘इच्छा’ गुण कहलाएगा। और जो सदा से अपना गुण हैं, उसका नाम ‘स्वभाव’ है। जो अनादिकाल से जीव का अपना है। इच्छा है, प्रयत्न है, जो हमेशा से उसके अपने हैं, वह स्वभाव है। और जो किन्ही कारणों से उसमें आ जाते हैं, पैदा हो जाते हैं, तो वो है- ‘गुण’। जीवात्मा में ऐसी बात मिल जाएगी, प्रकृति में भी ऐसी बात मिल जाएगी। जैसे अभी बताया था- प्रश्न है- अग्नि के अंदर गर्मी अपनी है या बाहर से ले रखी है। उत्तर है- वह उसकी अपनी गर्मी है। जब चूल्हे के ऊपर पतीला रखकर पानी गर्म करते हैं, तो अब पानी में जो गर्मी आई वो पानी की अपनी है या अग्नि से ली हुई है? उत्तर है- अग्नि से ली हुई है। तो अब देखिए प्रकृति के अन्दर दोनों बातें देख रहे हैं। गर्मी, तापमान अग्नि का अपना है, इसलिए स्वभाव है। और पानी में वो अग्नि से आया हुआ है, इसलिये नैमित्तिक गुण है।
इस तरह हम गुण, स्वभाव, कर्म में अंतर समझ सकते हैं। ईश्वर के मामले में तो गुण और स्वभाव दोनों एक ही जैसे दिखते हैं। उनमें कोई अंतर समझ में नहीं आया। किसी द्रव्य में जो स्वाभाविक गुण होता है, वो उसे कभी नहीं छोड़ता। जो है, वह स्वाभाविक है। अग्नि का गुण गर्मी है, तो क्या वो अग्नि को कभी छोड़ देगी? नहीं छोड़ेगी। स्वाभाविक गुण कभी किसी द्रव्य को नहीं छोड़ता।
अब राग-द्वेष भी जीवात्मा का स्वाभाविक गुण त्र (दोष( मान लें, तो उसको छोड़ेंगे ही नहीं। नहीं छूटेगा, तो मुक्ति नहीं हो सकती। तो मुक्ति होगी, कि नहीं होगी, क्या समझते हैं? होगी न। तभी मुक्ति होगी, जब राग-द्वेष छूट जाऐंगे। राग-द्वेष छूट जाऐगे तो यह स्वाभाविक गुण नहीं हुआ बल्कि नैमित्तिक हुआ।