उप+आसना त्र उपासना। सीधा-सीधा तो शब्दार्थ है- ‘पास में बैठना’ उप माने ‘पास’ और ‘आसन माने बैठना’। किसी वस्तु के पास श्र(ापूर्वक बैठना ही उसकी उपासना कहलाती है।
स अच्छा हम कैसी वस्तु के पास बैठेंगे, अच्छी वस्तु के या खराब वस्तु के? अच्छी वस्तु के पास बैठेंगे। तो उपासना का अर्थ हो गया अच्छी वस्तु के पास बैठना। अच्छा, जब अच्छी वस्तु के पास बैठेंगे तो उसका गुण हमें प्राप्त होगा या नहीं होगा? होगा न। तो अच्छी वस्तु के गुण को प्राप्त करना यह ‘उपासना’ का फल हो गया। और खराब वस्तु के पास आप बैठेंगे नहीं। कहीं कचरा पेटी में कूड़ा-कचरा पड़ा हो, दुर्गंध आदि आती हो तो वहाँ तो आप बैठेंगे नहीं। तो खराब वस्तु के पास कोई नहीं बैठना चाहता। जब उसके बैठेंगे नहीं, तो वहाँ की दुर्गंध को भी हम नहीं प्राप्त करेंगे। उस वस्तु को छोड़ देंगे। तो इतनी सारी बातें इस उपासना के अंतर्गत छिपी हुई हैं।
स अब शरीर से किसी वस्तु के पास बैठना, तो उपासना है ही । जैसे-अग्नि के पास बैठना। इसके अतिरिक्त दूसरी उपासना मानसिक है। अर्थात् मन से किसी वस्तु का चिन्तन करना, उसे प्रिय या सुखदाई मानना। यह भी उपासना है। यह मानसिक उपासना है। जैसे-मन से धन को या ईश्वर को प्रिय मानना । व्यक्ति सारा दिन या तो भौतिक वस्तुओं = (धन, भोजन, वस्त्र, सोना चाँदी आदि( की उपासना करता है, या जीवों = (भाई, बहिन, बेटा-बेटी, पत्नी, मित्र आदि( की उपासना करता है, या ईश्वर की । इन तीनों में से किसी न किसी की उपासना सारे दिन चलती रहती है।
स वेद आदि शास्त्रों के आधार पर )षियों का कथन यह है, कि -भौतिक वस्तुओं और जीवों की उपासना नहीं करनी चाहिये । इससे दुख मिलता है और व्यक्ति का बन्धन बना रहता है। इसके स्थान पर ईश्वर की उपासना करनी चाहिये। इससे व्यक्ति जीते जी आनन्दित रहता है, और उसका मोक्ष भी हो जाता है।