(साधु कृष्णेन्द्र सरस्वती से रामघाट पर शास्त्रार्थसन् १८६७
अगहन १९२४ वि०)
खेमकरन जी भूतपूर्व ब्रह्मचारी वर्तमान संन्यासी कर्णवास निवासी ने
वर्णन किया किअगहन मास, संवत् १९२४ में स्वामी जी रामघाट में आये।
वहां एक साधु कृष्णेन्द्र सरस्वती रहते थे । लोगों ने उनसे जाकर कहा कि
एक स्वामी आया है जो गगदि तीर्थ, महादेवादि की मूर्ति और भागवत,
वाल्मीकि आदि सब का श्रुति और स्मृति के अतिरिक्त खण्डन करता है ।
ग्राम में कोलाहल मच गया । अन्त में कृष्णेन्द्र को लोग उसके बार—बार
अस्वीकार करने पर भी वहां वनखण्डी पर ले आये जहां स्वामी जी ठहरे
हुए थे और शास्त्रार्थ आरम्भ किया । इतने में एक व्यक्ति ने कृष्णेन्द्र से पूछा
कि महाराज ! मैं महादेव पर जल चढ़ा आउँ तो स्वामी जी बोले कि वहां
तो पत्थर है, महादेव नहीं । ट्टट्टमहादेवो कैलासे वर्तते’’ अर्थात् महादेव कैलास
में है । तब कृष्णेन्द्र ने कहा कि यहां महादेव नहीं है ?
स्वामी जी ने कहा कि वह महादेव मन्दिर के अतिरिक्त यहां भी है,
वहां जाना व्यर्थ है । तब कृष्णेन्द्र ने गीता के इस श्लोक का प्रमाण दिया
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर निराकार है, अवतारवादी नहीं बन सकता।
देह धारना केवल जीव का धर्म है ।
इसका कोई उत्तर कृष्णेन्द्र से न आया । वह स्वामी जी के सामने
बैठा—बैठा ही घबरा गया और घबराकर वही गीता का श्लोक बार—बार लोगों
की ओर मुख करके (मुख से कफ निकलता था) पढ़ने लगा । तब स्वामी
जी ने कहा कि तू लोगों से शास्त्रार्थ करता है या मुझ से शास्त्रार्थ करता
है ? मेरे सामने होकर बात कर ।
फिर जब इस पर भी वह बात न कर सका और कुछ दशा भी ठीक
न रही तो ट्टट्टगन्धवती पृथिवी’’ ट्टट्टधूमवती अग्निः’’ इस प्रकार की न्याय की
बात चली, जिस पर उसने कहा कि लक्षण का भी लक्षण होता है । स्वामी
जी ने कहा कि लक्ष्य का तो लक्षण होता है परन्तु लक्षण का लक्षण
नहीं होता । पूज्य का पूज्य और चून (आटा) का चून क्या होगा ?
इस पर सब लोग हँस पड़े और वह घबराकर उठ खड़ा हुआ । सब
लोग कहने लगे और जान गये कि स्वामी जी की जीत हुई ।
(लेखराम पृष्ठ १००, १०३)