किस प्रकार के कर्मों के आधार पर स्त्री या पुरुष का जन्म मिलता है?

भई, ये पूरे-पूरे तो मुझे भी समझ में नहीं आए, तो मैं आपको कैसे बताऊँ कि कौन से कर्म करेंगे तो स्त्री बनेंगे, और कौन से कर्म करेंगे तो पुरुष बनेंगे। मुझे इतना समझ में आया कि बस अच्छे से अच्छा कर्म करो। अब भगवान जो बनाना होगा, बना देगा।
कई लोगों के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि, स्त्री जन्म अच्छा है। कई लोगों के दिमाग में यह बात बैठी है कि पुरुष जन्म अच्छा है। जो सत्य है, वो सत्य है। सत्य को जानना-समझना चाहिए और सत्य को खुलकर स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि उससे हमारी उन्नाति होती है।
स वैसे तो स्त्री और पुरुष दोनों एक ही योनि में हैं, मनुष्य योनि में। मनुष्य योनि की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। इसमें कोई ऊँचा-नीचा नहीं है। क्या स्त्रियों का बस में आधा टिकट लगता है और पुरुषों का पूरा लगता है? नहीं न। इस हिसाब से दोनों भारत के समान नागरिक हैं। दोनों को समान
अधिकार है, वोट देने का अधिकार बराबर है। अधिकार की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। जहाँं स्त्रियों का आधा वोट है, वह गलत बात है। यह वेद के अनुसार अन्याय है। वेद में स्त्री और पुरुष दोनों को बराबर बताया है। अधिकार तो दोनों का एक दूसरे पर बराबर होता है।
व्यावहारिक दृष्टि से किसी-किसी क्षेत्र में स्त्रियाँ ऊपर हैं, पुरुष छोटे हैं। किसी क्षेत्र में पुरुष बड़े हैं तो स्त्रियाँ छोटी हैं। वो अलग-अलग क्षेत्र हैं। कौन सा क्षेत्र है इसमें? अब ये जानेः-
स वेद कहता है – जब बालक के साथ माता-पिता का संबंध हो, तो माता बड़ी और पिता छोटा। माता का नंबर पहला, माता सबसे पहली गुरु है। अगर पहली गुरु बु(िमान हो, तो बच्चा बु(िमान बनेगा। और पहली गुरु ही मूर्ख हो तो बच्चा मूर्ख बनेगा।
स शास्त्रों में स्त्री को ‘पूज्य’ कहा है। उसे अधिक सम्मान देने का विधान है। यहाँ पुरुष छोटा और स्त्री बड़ी। यह एक क्षेत्र है।
स और दूसरा क्षेत्र है, पति-पत्नी का। जब पति-पत्नी का आपस में संबंध हो, तो वहाँ पति बड़ा और पत्नी छोटी। वहाँ यह नियम है। अब बताइए, क्या चाहिए आपको, एक तरफ पुरुष बड़े हैं, एक तरफ स्त्रियाँ बड़ी हैं।
स हाँ, यह ठीक है कि कहीं व्यावहारिक दृष्टि से कुछ समस्याएं पुरुषों के साथ कम हैं, और स्त्रियों के साथ कुछ अधिक हैं। कुछ हमारी जिम्मेदारियाँ रहती हैं व्यवहार की। उसमें स्त्रियों पर बंधन अधिक रहते हैं, पुरुषों
पर उतने नहीं होते हैं। स्त्रियों का जीवन अधिक बाधित रहता है। इनको माँ बनना पड़ता, पुरुष तो बनेगा नहीं। शु(ि की दृष्टि से स्त्री का शरीर ज्यादा गंदा होता है। महीने के कुछ दिन शारीरिक दृष्टि से विवशता रहती है। पुरुष का शरीर अधिक सख्त और बलवान होता है, स्त्री में कोमलता होती है। वातावरण को सहन करने की क्षमता पुरुष में अधिक होती है। पुरुष अधिक कार्य कर सकता है। स्त्री का शरीर जल्दी विकसित होता है और बीस-पच्चीस साल के बाद शिथिल हो जाता लेकिन पुरुषों में चालीस साल तक बढ़ता है। इसलिए विद्या आदि पढ़ने का अवसर पुरुष मे अधिक होगा। ं
स पुरुष तो अकेला घूम लेगा, खा लेगा, कहीं रात को दो बजे प्लेटफार्म पर सो जाएगा, उससे कोई पूछने वाला नहीं। वो तो अकेला ही पूरे देशभर में घूम आएगा। पर स्त्रियों को इतनी सुविधा नहीं है। उस दृष्टि से हमको स्वीकार करना पड़ता है। बाकी तो मनुष्यता की दृष्टि से दोनों बराबर हैं। इसमें कोई ज्यादा हीन भावना (इंफीरियरटी कॉम्पलेक्स( की जरूरत नहीं है।
स आयु के कारण अनुभव में भेद होता है। पति अधिक आयु का होता है। इसलिए उसका अनुभव ज्यादा होता है। परीक्षाफल की दृष्टि से स्त्री आगे है क्योंकि पुरुष उतनी मेहनत नहीं करते। इतिहास देखेंगे तो पुरुष ज्यादा विद्वान रहे हैं। विद्या का आरम्भ हमेशा पुरुषों से हुआ है। वेद हमेशा )षि (पुरुष( को ईश्वर देता है।
स वेद में लिखा है, स्त्रियाँ बेशक पढ़ सकती हैं। ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में महर्षि दयानंद जी ने लिखा – अगर ईश्वर का प्रयोजन स्त्रियों को पढ़ाने में न होता, तो इनके शरीर में आँख और कान क्यों रखता। वे भी वेद पढ़ सकती हैं, वे भी वैराग्य प्राप्त कर सकती हैं, वे भी संन्यास ले सकती हैं। पर वे प्रायः संन्यास लेती नहीं, झगड़े करती हैं, तो हम क्या करें? वे प्रायः झगड़ा ज्यादा करती हैं, राग-द्वेष ज्यादा करती हैं, वेद पढ़ती नहीं हैं, तो दोष इनका है। बाकी इनका चाँस पूरा है।
”ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्” अर्थात् अथर्ववेद में लिखा है कि – ”कन्या को भी ब्रह्मचर्य का पालन करके, वेद पढ़ने का पूरा अधिकार है। और विद्या पढ़कर फिर विवाह करना चाहिए।” तो छूट सबको है, बाकी कोई करे या न करे, वो उसकी मर्जी।
स सामान्यतः पुरुष स्त्री नहीं बनना चाहता, लेकिन स्त्री पुरुष बनना चाहती हैं। इस दृष्टि से पुरुष कुछ बड़ा सि( होता है।

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