जिसने वृक्ष को योनि माना है, उसका पक्ष ठीक है। वृक्ष एक योनि है, कर्मों का फल है। यह ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ के नौवें समुल्लास में लिखा है, कि जो व्यक्ति शरीर से पाप करता है, चोरी आदि बुरे कर्म करता है, उसको वृक्ष का जन्म मिलता है। यह शारीरिक अपराधों का दंड है।
वृक्ष में भी आत्मा है। जैसे मनुष्यों में आत्मा होती है, वैसे ही वृक्षों में भी आत्मा होती है। जैसे मनुष्यों से उसी जाति की, उसी नस्ल की आगे वृ(ि होती है, ऐसे ही वृक्षों में भी होती है। इससे सि( होता है कि उनमें भी जीवन है, उनमें भी आत्मा है।
वस्तुतः वो भी पूर्वकृत कर्मों का फल भोग रहे हैं। कर्मफल तो सुख-दुःख का अनुभव करना है। अगर यह माना जाये, कि वृक्ष सुख-दुःख अनुभव नहीं करते, तो फिर वो कर्मफल (योनि( नहीं मानी जायेगी। कर्मफल तो वृक्ष अनुभव करते हैं। वृक्ष, पेड़-पौधे, वनस्पति आदि भोग योनि हैं। इनके अन्दर इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि सारे गुण होते हैं। लेकिन वे थोड़ी बेहोशी की अवस्था में है, नशे में हैं, पर आत्मा तो है न उनमें। अगर उनमें कुछ भी कष्ट न माना जाये, जीरो कष्ट मान लें, फिर वो व्यवस्था फेल हो जायेगी, कि कर्मफल नहीं हुआ। वृक्षों के बारे में महर्षि मनु जी ने लिखा है कि- अन्तः संज्ञा भवन्त्येते। सुख दुःखसमन्विताः।
अर्थात् वे वृक्षादि सुख-दुःख से युक्त हैं। वे आंतरिक सुख-दुख भोगते हैं, लेकिन बाहर के स्थूल सुख-दुःख नहीं भोगते। जैसे कुत्ते को डंडा मारो, तो वह चिल्लाता है और भागकर अपनी जान बचाने की कोशिश करता है। वृक्ष को डंडा मारो, तो वह चिल्लायेगा नहीं, भागेगा नहीं, जान बचाने की कोशिश नहीं करेगा। इस प्रकार पशुओं और वृक्षों की बाहरी क्रियाओं में तो अंतर हैं, लेकिन अंदर से बेचारों (वृक्षों( को वहाँ खड़ा करके रखा गया है। वृक्ष मनुष्यादि प्राणियों के समान भाग नहीं सकता, चल नहीं सकता, कुछ कर्म नहीं कर सकता, आँख नहीं खोल सकता, सुन नहीं सकता, देख नहीं सकता। यह सारा दुःख तो उसको आंतरिक रूप से भोगना ही पड़ेगा। नहीं तो कर्मफल क्या हुआ? वो ईश्वर की दण्ड व्यवस्था है। इसलिए वो ही जाने।