एक वाक्य लिखा है कि मेरी आत्मा नहीं मानती। यह वाक्य कौन कहता है-मेरी आत्मा नहीं मानती। इसका मतलब, मैं आत्मा से भी अलग चीज हूँ?

प्रश्न यह उठाया है कि यह वाक्य बोला जाता है कि- ‘मेरी आत्मा नहीं मानती’। इससे फिर शंका पैदा होती है कि ‘मैं’ आत्मा से भी कोई और अलग चीज हो गया। जैसे ‘मेरा पेन’, ‘मेरा शरीर’, ऐसे ही ‘मेरी आत्मा’। इसका समाधान हैः-
स मेरे हाथ में पेन है। मैं एक वाक्य बोलता हूँ- यह मेरा पेन है। इस वाक्य का अर्थ क्या हुआ? क्या मैं पेन हूँ या पेन से अलग हूँ ?
उत्तर है – मैं पेन से अलग हूँ।
दूसरा वाक्य है – यह मेरी घड़ी है। तो क्या मैं घड़ी हूँ?
उत्तर है – नहीं, घड़ी से अलग हूँ।
ऐसे ही तीसरा वाक्य – यह मेरा हाथ है। क्या मैं हाथ हूँ?
उत्तर है – नहीं, हाथ से अलग हूँ।
ऐसे ही चौथा वाक्य – यह मेरा शरीर है। क्या मैं शरीर हूँ?
उत्तर है – नहीं, मैं शरीर से अलग हूँ।
तो मैं कौन हूँ? उत्तर है – मैं आत्मा हूँ।
जैसे यह मेरा पेन है, यह मेरी घड़ी है, यह मेरा हाथ है, यह मेरा शरीर है। चारों जगह पर ‘मेरा’ शब्द है। यह मेरा पेन है, मैं पेन से अलग हूँ। यह मेरी घड़ी है, मैं घड़ी से अलग हूँ। यह मेरा हाथ है, मैं हाथ से अलग हूँ। यह मेरा शरीर है, मैं शरीर से अलग हूँ, तो फिर शरीर से अलग रहने वाला मैं कौन हूँ? मैं आत्मा हूँ।
स यह जो शंका लिखी है कि मेरी आत्मा नहीं मानती, यह वाक्य गौण है। यह मुख्य कथन नहीं है। अपने भाषा साहित्य में दो प्रकार के वाक्य होते हैंः- एक मुख्य और दूसरे गौण।
मुख्य-वाक्य का मतलब होता है, जिस वाक्य का सीधा-सीधा अर्थ लिया जाए और गौण-वाक्य का मतलब होता है, जिसका सीधा अर्थ नहीं ले सकते। थोड़ा अर्थ बदल करके लेना पड़ता है। उसमें सीधा-सीधा अर्थ लागू नहीं होता। कैसे? ‘जैसे लोहे के चने चबाना’ एक मुहावरा है। अब लोहे के चने मुँह में डाल के दाँत के नीचे चबाएंगे क्या? फिर भी यह एक प्रचलित मुहावरा है।
स कुछ बोलचाल में ऐसे अजीब-अजीब शब्द होते हैं लेकिन उन वाक्यों का सीधा-सीधा अर्थ नहीं लिया जाता। आप लोग मुम्बई से रेलगाड़ी में बैठे। जब रेलगाड़ी अहमदाबाद पहुँच गई तो आपने क्या बोला, चलो-चलो उतरो, अहमदाबाद आ गया। क्या अहमदाबाद आ गया? अरे ! अहमदाबाद तो वहीं खड़ा है। अहमदाबाद कहाँ चलकर आया? आप चल करके आए हैं अहमदाबाद। दिल्ली वाले भी अहमदाबाद आए, मुम्बई वाले भी अहमदाबाद आए। और बोलते क्या हैं कि उतरो-उतरो अहमदाबाद आ गया। वो तो वहीं खड़ा है, मुम्बई वहीं खड़ी है, दिल्ली वहीं खड़ी है। कोई भी नहीं चलता, पर हम बोलने में ऐसा बोलते हैं। इसको बोलते हैं, गौण-भाषा। यह मुख्य भाषा नहीं है। यहाँ पर अर्थ बदलना पड़ता है। जब आपको ऑटो-रिक्शा पकड़ना होता है, तो क्या आवाज लगाते हैं, ओ रिक्शा! रिक्शा सुनता है क्या? फिर किसको बोल रहे हैं, ओ रिक्शा! जैसे यह गौण कथन है। यह वास्तविक नहीं है, वैसे ही – ‘मेरी आत्मा नहीं मानती’ यह भी गौण कथन है। मुख्य कथन है कि – ”मैं” मानने को तैयार नहीं हूँ। मैं ही तो ‘आत्मा’ हूँ, मेरी आत्मा मुझसे कोई अलग वस्तु नहीं है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *