ईसाइयों का ईश्वर चौंक पड़ा

(मोहम्याह नीलकण्ठ घोरी क्रिश्चियन से प्रयाग में संवाद)

बुधवार, १ जौलाई, सन् १८७४ के अन्त तक स्वामी जी प्रयाग में रहे।

मोहम्याह नीलकण्ठ घोरी नामक एक क्रिश्चियन मरहठा जेण्टलमैन प्रोफेसर

मैक्समूलर का किया हुआ ऋग्वेदभाष्य ले आया । यह बतलाने के लिए कि

अग्नि के अर्थ केवल आग के हैं, ईश्वर के नहीं । स्वामी जी ने उसको

यह उत्तर दिया कि यदि प्रोफेसर मैक्समूलर ने वेदमन्त्रों का भाष्य करने के

लिए केवल इन्हीं अर्थों का प्रयोग किया है तो कुछ आश्चर्य नहीं क्योंकि

एक पक्षपातपूर्ण ईसाई होने के कारण उसकी हार्दिक इच्छा है कि वेदार्थ को

बिगाड़े ताकि भारतवासी अज्ञानता में फंसकर वेदों को छोड़ दें और बाइबिल

को ग्रहण करें । अतः उसके पक्षपातपूर्ण होने के कारण उसका भाष्य प्रामाणिक

नहीं हो सकता । तत्पश्चात् स्वामी जी ने हिन्दू मरहठों के सामने जिन्होंने

अपने हिन्दू धर्म से भटके हुए भाई को आपना धार्मिक अगुआ (अधिवक्ता)

बनाया था ईसाइयों के ईश्वर के विषय में अज्ञानतापूर्ण विचारों को प्रकट

करने के लिये तौरेत बाबल के बुर्ज वाली कहानी की ओर सटेत किया जिसमें

यह लिखा है कि प्राचीन पाश्चात्य जातियों ने ईसाइयों की देवमाला में आकाश

पर चढ़ने का यत्न किया । उनके इस साहसपूर्ण निश्चय से ईसाइयों का ईश्वर

चौंक पड़ा । अत्यन्त भयभीत होकर अपने बचाव के लिये बाबल के बुर्ज

बनाने वालों की वाणी में गड़बड़ कर दी जो एक दूसरे की बात को समझने

के अयोग्य होकर काम छोड़ बैठे और ईश्वर मनुष्यों के इस बर्बरतापूर्ण आक्रमण

से बच गया ।

ईसाइयों के ईश्वर का अपनी ही सृष्टि से डर जाना अत्यन्त अद्भुत

और वर्णन से बाहर की बात है । निस्सन्देह वे अत्यन्त ही असभ्य होने चाहियें

जिन्होंने कि आकाश की प्रकट और दिखलावे की महराबदार छत को परिमित

उंचाई समझकर उस पर कृत्रिम साधनों से चढ़ना सम्भव समझा। इससे यह

प्रतीत होता है कि ईसाइयों का विश्वास है कि ईश्वर सर्वत्र व्यापक और द्रष्टा

नहीं प्रत्युत इसके विपरीत वह एक विशेष स्थान में सीमित है जिसके विषय

में वे ठीक—ठीक नहीं बतला सकते ।

ईसाई मरहठे ने इस आक्षेप का कुछ उत्तर न दिया परन्तु उसके और

हिन्दू भाई कुछ बोले और विशेषतया काशीनाथ शास्त्री ने अत्यन्त धृष्टतापूर्ण

शब्दाें में स्वामी जी से पूछा किकिस प्रयोजन के लिये समस्त देश में

कोलाहल कर रखा है ।

स्वामी जी ने उत्तर दिया कि मुझ से पहले पण्डितों ने बड़ी धूर्तता फैलाई

है और उनकी बुद्धि पत्थरों के पूजने से पथरा गई है अर्थात् उनकी बुद्धि

पर पत्थर पड़ गये हैं । जिसके कारण वे सत्य के सिद्धान्त को न समझ

सके । शास्त्री फिर मौन होकर अपने मित्रों सहित चला गया ।

(लेखराम पृष्ठ २४२)