ईश्वर साकार नहीं

(पं० रामप्रसाद तथा पं० वृन्दावन से बदायूं में शास्त्रार्थअगस्त, १८७९)

नोटस्वामी जी ३१ जौलाई, सन् १८७९ को बदायूं में पधारे और १४

अगस्त, सन् १८७९ की दोपहर तक वहां निवास किया । इसी समय के बीच

में यह शास्त्रार्थ हुआ । यघपि शास्त्रार्थ की ठीक तिथि लिखी हुई नहीं है

तथापि ऐसा अनुमान है कि यह शास्त्रार्थ ५ अगस्त के पश्चात् हुआ क्योंकि

४ अगस्त तक के उनके कार्यक्रम का संक्षिप्त विवरण जीवनचरित्र में दिया

हुआ है । उसके पश्चात् शास्त्रार्थ की चर्चा है । यह शास्त्रार्थ दो दिन तक

होता रहा ।

पण्डित रामप्रसाद, पण्डित वृन्दावन, पण्डित टीकाराम, पण्डित रामप्रसाद

दारोगा सभा आदि सज्जन स्वामी जी के निवास स्थान पर शास्त्रार्थ की इच्छा

से पहुंचे । प्रथम पण्डित रामप्रसाद जी ने बातचीत आरम्भ की ।

पण्डित रामप्रसाद ईश्वर साकार है और उस में पुरुषसूक्त की यह

ऋचा प्रमाण है

सहस्रशीर्षा पुरुषः’’ इत्यादि (यजु० अध्याय ३१, मन्त्र १)

यदि ईश्वर साकार नहीं तो उस को सहस्रशीर्षा’’ आदि क्यों लिखा?

स्वामी जीसहस्र कहते हैं सम्पूर्ण जगत् को और असंख्य को । जिस

में असंख्यात शिर, आंख और पैर ठहरे हुए हैं उस परमेश्वर को सहस्रशीर्षा’’आदि

कहते हैं । यह नहीं कि उस की हजार आंखें हों ।

पण्डित जी ने अमरकोश का प्रमाण दिया ।

स्वामी जी ने कहा किवेदों में अमरकोश प्रमाण नहीं प्रत्युत निरुक्त

और निघण्टु आदि प्रमाण हैं ।

पण्डित जी ने कहा कि हम तो वह पढ़े ही नहीं और लक्ष्मी विष्णु

की स्त्री है और साकार है । इस में लक्ष्मीसूक्त का प्रमाण है

अश्वपूर्णां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम् ।

श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी कुप्यताम् ।।३।।

इस में जो विशेषण हैं उन से उस का साकार होना सिद्ध होता है ।

स्वामी जीप्रथम तो यह वाक्य संहिता का नहीं और जो तुम उस को

विष्णु की स्त्री समझकर बुलाते हो तो विष्णु तुम को अपनी स्त्री नहीं देगा

और तुम उस के मांगने से पाप के भागी होगे और वह भी व्यभिचारिणी

ठहरेगी। लक्ष्मी के अर्थ राज्यलक्ष्मी, राज्य की सामग्री और शोभा के हैं और

इसी कारण से इस श्लोक में हाथी, रथ और घोड़े लिखे हैं ।

पण्डित रामप्रसादआप जो कहते हैं कि वेदों के पढ़ने का अधिकार

सब को है, यह अनुचित है । वेद पढ़ने का अधिकार केवल द्विजों को ही

है और उन में से भी मुख्य ब्राह्मणों को है ।

स्वामी जीयथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । इत्यादि ।

इस वेदमन्त्र से स्पष्ट सिद्ध है किवेदों के पढ़ने का अधिकार सब

को है ।

पण्डित जीजो रामचन्द्र और कृष्णादि हुए हैं, ये साक्षात् परमेश्वर के

अवतार हैं ।

स्वामी जीऐसा न समझना चाहिये, यह वेद के विरुद्ध है । परमेश्वर

कभी अवतार नहीं लेता ।

पण्डित जीइस यजुर्वेद के मन्त्र से विष्णु का वामनावतार सिद्ध होता

है इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् ।’’

स्वामी जीइस से वामनावतार सिद्ध नहीं होता । इस का अर्थ यह

है कि परमेश्वर अपनी सामर्थ्य से सब जगत् को तीन स्थानों में स्थापन करके

धारण करता है। यह नहीं कि परमेश्वर ने तीन प्रकार से चरण रखा जैसा

कि तुम कहते हो ।

पण्डित वृन्दावन जी बोले तो इस से विदित हुआ कि विष्णु साकार

नहीं है ।

स्वामी जीविष्णु के अर्थ तो करो, यह किस धातु से बना है ?

पण्डित वृन्दावन जीट्टट्टविष्लृ व्याप्तौ’’ से विष्णु बनता है अर्थात्

जो सर्वव्यापक हो उसे विष्णु कहते हैं ।

स्वामी जीफिर जो व्यापक है वह साकार कैसे हो सकता है ?

पण्डित रामप्रसादइस यजुर्वेद के मन्त्र में

ट्टट्टमृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः’’

जो कुचर’’ शब्द आया है उस से मत्स्य (मच्छ) आदि अवतार सिद्ध

होते हैं क्योंकि ट्टट्टकुचर’’ का अर्थ है पृथिवी पर चलने वाला ।

स्वामी जीकुचर से मत्स्यादि अवतार सिद्ध नहीं होते । ट्टट्टकु’’ के

अर्थ वेद में कभी पृथिवी के नहीं लिये जाते ।

पण्डित रामप्रसादमहीधर की टीका में तो ऐसा ही लिखा है ।

स्वामी जीमहीधर की टीका प्रायः अशुद्ध है । निरुक्त और निघण्टु

आदि के विना वेद का अर्थ शुद्ध नहीं हो सकता ।

पण्डित रामप्रसादफिर आपने अपने पास महीधर की टीका को क्यों

रखा हुआ है ?

स्वामी जीखण्डन के लिए और देखो इस का अशुद्ध अर्थ ट्टट्टगणानां

त्वा गणपति§हवामहे’’ इत्यादि आठ दस मन्त्रों पर । क्या ऐसे अर्थ प्रमाण

योग्य हैं कि यजमान की स्त्री घोड़े के पास सोवे आदि आदि । वेदों पर

जो ऋषियों की टीका हैं वही प्रमाण के योग्य हैं । और अवतारों का न होना

यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र ट्टट्टस पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं

शुद्धम्’’ इत्यादि से सिद्ध है कि सर्वव्यापक परमात्मा कल्याणस्वरूप, काया

अर्थात् शरीर से रहित, नाड़ी नस आदि बन्धन से मुक्त और शुद्धस्वरूप पापों

से न्यारा है । जिसने आदि जगत् में अपनी अनादि प्रजा जीवों के लिए वेदविघा

का प्रकाश किया । शास्त्रार्थ दो दिन में समाप्त हुआ ।

(लेखराम पृष्ठ ४४६—४४७)