देखिये, तीन पदार्थ हैं- एक ईश्वर, एक जीवात्मा,एक प्रकृति। इन तीनों के बारे में विचार करेंगे, बारी-बारी से चिंतन करेंगे। फिर कोई न कोई निर्णय हो जाएगा।
पहला प्रश्न- क्या जीवात्मा सृष्टि बना सकता है। उत्तर है- जीवात्मा सृष्टि को नहीं बना सकता। तारों को नहीं बना सकता, पृथ्वी को नहीं बना सकता। यह उसके वश की बात नहीं है। उसमें इतनी शक्ति, बु(ि व योग्यता ही नहीं है। तो तीन में से एक का निर्णय तो हो गया, कि जीवात्मा सृष्टि नहीं बना सकता।
दूसरा प्रश्न- क्या प्रकृति स्वयं पृथ्वी बना सकती है? उत्तर है- कभी नहीं बना सकती। क्योंकि उसमें अक्ल ही नहीं है। सृष्टि की रचना को देखने से पता चलता है, कि कितनी बु(िमत्ता का इसमें प्रयोग किया गया है। बहुत बु(िमता से व्यवस्थित पृथ्वी बनी हुई है। किसी भी पेड़-पत्त्ते को देख लीजिए। वनस्पति शास्त्र पढ़िये। ऊँचे नीचे वृक्षों की रचना को देखिए, तो आपको पता चलेगा, कि कितनी व्यवस्थित है। शरीर विज्ञान पढ़िये। शरीर रचना को देखिए, कि वो कितनी व्यवस्थित है। नस, नाड़ियाँ, पाचन तंत्र, तंत्रिका तन्त्र आदि, सारे सिस्टम कितने व्यवस्थित हैं। इनमें जो इतनी व्यवस्था है- इसको प्रकृति अपने आप नहीं बना सकती। उसमें इतनी अक्ल नहीं है। तीन में से दो का निर्णय हो गया। न तो जीवात्मा बना सकता है। उसमें इतनी विद्या और शक्ति नहीं है। न तो प्रकृति स्वयं बना सकती है, क्योंकि उसमें तो बिल्कुल अक्ल ही नहीं है। अब तीन में से दो का निर्णय हो गया। बाकी कौन बचा? जो बचा है, वही सृष्टिकर्ता है। इसमें वही है- परिशेष न्याय। यानी बचे हुए पदार्थ का नियम। तो तीन में से दो बातें कैंसिल हो गयीं। जीव और प्रकृति ने सृष्टि नहीं बनाई। बाकी ‘ईश्वर’ बचा, उसी ने जगत बनाया। यह अनुमान प्रमाण से सि( हो गया, कि ईश्वर ने ही ‘सृष्टि’ बनाई है। उसमें इतनी बु(ि और इतनी शक्ति है, कि वह अकेला ही सारी सृष्टि बना देता है।
ईश्वर की सि(ि प्रत्यक्ष प्रमाण से कैसे करेंगे? उत्तर है, कि- एक होता है, ‘बाह्य प्रत्यक्ष’, और एक होता है, ‘आंतरिक प्रत्यक्ष’। जब कोई व्यक्ति अच्छा काम करने लगता है, तो उसको अपने अंदर से आनंद, उत्साह, निर्भयता जैसे अनुकूल भाव महसूस होते हैं। और जब बुरा काम करने की योजना बनाता है, तब अंदर से भय, शंका, लज्जा का अनुभव होता है। ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ में लिखा है- यह जीवात्मा की ओर से नहीं, परमेश्वर की ओर से है। अब अगर हमको भय, शंका लज्जा का अनुभव होता है, तो यह प्रत्यक्ष अनुभव है। यह किसकी ओर से है? ईश्वर की ओर से है। यह ईश्वर का आंतरिक प्रत्यक्ष है। परन्तु स्थूल (मोटे( स्तर का प्रत्यक्ष है। इसके बाद का सूक्ष्म प्रत्यक्ष भी होता है, जो सारे जीवों को नहीं होता है। स्थूल प्रत्यक्ष का अनुभव तो सभी लोग कर सकते हैं। जो बुरा काम करेगा, उसके अन्दर भय, शंका, लज्जा होगी। ईश्वर अपना सिग्नल भेज रहा है, कि गलत काम कर रहे हो। यह है- रेड सिग्नल, यानि खतरा है। मत करो। तो इस तरह ईश्वर का आंतरिक स्थूल अनुभव हो सकता है। विशेष सूक्ष्म प्रत्यक्ष करना हो, तो ‘समाधि’ लगाइये। समाधि में ईश्वर का विशेष- (सूक्ष्म( अनुभव या प्रत्यक्ष होता है। उसमें ईश्वर से आनन्द, ज्ञान, बल आदि मिलता है। अब समाधि का अनुभव हम आपको शब्दों से नहीं बता सकते। क्योंकि यह अन्दर से स्वयं ही अनुभव करने की वस्तु है। उदाहरण के लिए, जब आपने रसगुल्ला खाया, तब उसमें कैसा टेस्ट लगा? बढ़िया लगा। आप कैसे समझाओगे? नहीं समझा सकते। आप सभी यही कहेंगे, कि ‘बड़ा अच्छा है, बड़ा स्वादिष्ट है, बहुत मीठा है।’ इतना कहने से क्या मुझे समझ में आ गया, कि यह कैसा स्वाद है। जब आप रसगुल्लों जैसी स्थूल वस्तु का स्वाद नहीं समझा सकते, तो हम आपको भगवान जैसी सूक्ष्म वस्तु का आनंद कैसे समझाऐंगे? वो तो और बहुत कठिन है। तो शास्त्रकार लिखते हैं- ”न शक्यते वर्णयितुं गिरा”अर्थात् वाणी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ”स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते।”
अंतःकरण से, अन्दर से ही ईश्वरानुभूति का आनन्द महसूस होता है। उसको हम अन्दर से ही अनुभव कर सकते हैं, वाणी से नहीं समझा सकते। वाणी से सिर्फ इतना ही बोल सकते हैं- बहुत बढ़िया होता है, बहुत अच्छा है, बहुत आनंद आता है। वाणी से इससे अधिक नहीं कह सकते। तो ईश्वर का आन्तरिक सूक्ष्म प्रत्यक्ष कैसा होता है, समाधि लगाओ तब ही पता चलेगा।