आदि सृष्टि में ईश्वर ने संस्कृत भाषा में वेदों का ज्ञान दिया। वेद संस्कृत में थे। तब एक ही भाषा थी, दूसरी कोई भाषा नहीं थी। उस समय संस्कृत में ही लोग बोलते थे, संस्कृत में ही व्यवहार करते थे, संस्कृत में ही वेद मंत्रों के आधार पर ईश्वर की उपासना चलती थी। अब भले ही उसके हिन्दी भाष्य बन गये हैं। परन्तु मूल, मूल ही होता है और भाष्य, भाष्य ही होता है। ईश्वर उपासना मूल मंत्रों से संस्कृत में ही की जानी चाहिए। बाद में आप हिन्दी अनुवाद भले ही कर लें। अगर मूल संस्कृत छूट गई, तो मूल मंत्र छूट जायेगा। और यदि मंत्र छूट गया, तो किसी भी उपासना करने वाले को उपासना करनी ही नहीं आयेगी, वो भटक जायेगा। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने अपनी एक पुस्तक में विदेश की घटना लिखी है। विदेश में एक गड़रिया भेड़, बकरी चराने वाला था। और वो बड़ा ईश्वर भक्त था। वहां ठंड बहुत होती थी। वो ओवरकोट पहनकर के भेड़ चराने बाहर जाता था। एक दिन वो पहाड़ पर जाकर के भगवान से प्रार्थना कर रहा था- ”ऐ भगवान! मेरी बहुत इच्छा है, कि मैं तुम्हारी बहुत सेवा करूं। भगवान, तुम मुझे कभी मिल जाओ, तो तुम्हारी बहुत सेवा करूंगा। जैसे मैं इन भेड़-बकरियों को चराता हूँ। और इन भेड़-बकरियों में कीड़े भी होते हैं, और वो कीड़े मेरे कोट में चिपक जाते हैं। मैं उन्हें साफ करता रहता हॅूँ। तुम भी भेड़-बकरी चराते होगे, तुम्हारे भी कोट में कीड़े चिपक जाते होंगे। तुम मुझे कभी मिल जाओ, तो ऐसी सेवा करुँ, कि एकदम बढ़िया पूरा कोट साफ कर दूँ।” अब बताइये, संस्कृत वेद मंत्र छोड़ दिया, तो परिणाम क्या निकला। लोग क्या समझेंगे, कि भगवान भी हमारी तरह ही भेड़-बकरी चरा रहा है। इस तरह भगवान का ही स्वरुप समझ में नहीं आयेगा, और लोग भटक जायेंगे। इसलिए वेद मंत्रों से उपासना करनी चाहिए, ताकि पता चले, भगवान कोई भेड़-बकरी चराने वाला गड़रिया नहीं है। भगवान सर्वव्यापक है, सर्वशक्तिमान है, कभी शरीर धारण नहीं करता। तो ईश्वर का स्वरुप ठीक बचा रहेगा और उसकी उपासना ठीक हो सकेगी। इसलिए वेद मंत्रों से उपासना करनी चाहिए। आज जो लोग मूर्तियों की पूजा कब्रों की पूजा कर रहे हैं। यह वेद मन्त्रों से ईश्वर उपासना छोड़ देने का ही परिणाम है। देख लीजिये, संसार ईश्वर के सही मार्ग से भटके गया या नहीं!