ईश्वर के ज्ञान में केवल आवृत्ति होती रहती है, सर्वज्ञ ईश्वर को इसकी क्या आवश्यकता है?

एक व्यक्ति ने चोरी की तो उसके एकांउट में केवल इतना लिखा जाएगा कि इसने चोरी की। ईश्वर केवल यह आवृत्ति करता है, कि इसने चोरी की। ईश्वर को तो पता है कि मनुष्य चोरी कर सकता है। चोरी के कर्म की आपके कर्मफल के खाते यानी एकाउंट में एन्ट्री (दर्ज) करने की आवश्यकता है।
जीव द्वारा दान दिया जाना ईश्वर के लिए कोई नया कर्म नहीं है। जब कोई व्यक्ति दान देता है, तो ईश्वर दान की, कर्म रूपी आवृत्ति करता है। इस व्यक्ति ने दान दिया, चलो इसके एकांउट में इस काम की एन्ट्री करो। बस इतना ही। एन्ट्री करने के लिए उसको आवृत्ति करनी होती है, और कोई कारण नहीं है।
ईश्वर चेतन तत्त्व है। जब चेतन तत्त्व के सामने कोई कर्म होता है, तब वह उसको देख या जानकर कुछ न कुछ विचार करता ही है। यदि वह कर्म उसकी जानकारी में पहले से हो, तो उसे ‘ज्ञान की आवृत्ति’ कहते हैं। और यदि नई जानकारी हो, तो उसे ‘ज्ञान में वृ(ि’ कहते हैं। ईश्वर के लिये जीवकृत कोई भी कर्म नया तो है नहीं। इसलिए जीवकृत कर्मों को जानकर ईश्वर के ‘ज्ञान की आवृत्ति’ होती रहती है।
यह आवृत्ति इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना ईश्वर ‘कर्मों का हिसाब ठीक से रखना और न्यायपूर्वक कर्मों का ठीक-ठीक फल देना’ नहीं कर पाएगा। इसलिए ईश्वर के ज्ञान की आवृत्ति होती रहती है।

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