ईश्वर और जीव दोनों चेतन हैं। जीव में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, क्रिया, सुख-दुःख आदि गुण हैं, क्या ईश्वर में भी ये गुण होते हैं?

हाँ, देखिये विचार कर लेते हैं। ईश्वर में, इच्छा होती है। अच्छा तो यह बताइये, कि ईश्वर सृष्टि बनाता है तो बिना इच्छा के बनाता है क्या? आप जो मकान बनाते हैं, रोटी बनाते हैं, तो क्या बिना इच्छा के बनाते हैं, या इच्छा होने पर बनाते हैं? नहीं। जब आप इच्छा होने पर ही काम करते हैं तो ईश्वर भी इच्छा होने पर ही काम करता है।
स शास्त्रों में लिखा भी है कि ईश्वर में इच्छा होती है। पर वैसी इच्छा नहीं होती, जैसी कि जीवों की इच्छा होती है। ईश्वर की इच्छा में और जीवों की इच्छा में मूलभूत फर्क है। क्या अंतर है?
स जीवों की इच्छा दो प्रकार की होती है। एक, अपनी कमी को पूरा करने के लिये और एक, दूसरे के भले के लिये। जीवों को आनंद चाहिये, सुख चाहिये, रोटी चाहिये, कपड़ा चाहिये, मकान चाहिये। कुछ कमी है हमारे पास, इसलिये हमको अपनी कमी की पूर्ति करने के लिये भी इच्छा होती है और दूसरों की सेवा के लिये भी हमारी इच्छा होती है। हम दूसरों की सेवा भी करते हैं।
स ईश्वर में दो तरह की इच्छा नहीं है। ईश्वर में केवल एक ही प्रकार की इच्छा है- कौन सी? दूसरों के भले की। पहले वाली इच्छा ईश्वर में नहीं है। क्योंकि ईश्वर में स्वयं में कोई कमी नहीं है। जब कमी ही नहीं है तो कमी को पूरा करने का प्रश्न ही कहाँ से आयेगा। परंतु ईश्वर में इच्छा तो है। ईश्वर में परोपकार की इच्छा है। ईश्वर सबका भला करना चाहता है। ‘ईश्वर क्या चाहता है’, सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है, कि ईश्वर सबके लिए सुख और सबकी उन्नति चाहता है।
स क्या ईश्वर में द्वेष भी है। जी हाँ। परन्तु द्वेष क्या होता है, पहले इसको समझ लीजिये। अनिच्छा का नाम द्वेष है। मैं यह चीज नहीं चाहता, मुझे इसकी इच्छा नहीं है, इसका नाम है- द्वेष। तो ईश्वर को पाप-कर्मों से द्वेष है। समझ में आया। क्या ईश्वर पाप करना चाहता है? नहीं चाहता। तो ईश्वर को पाप से, अन्याय से, बुराई से इन सब चीजों से द्वेष है।
स ध्यान दीजियेगा, द्वेष दो प्रकार का होता है। एक द्वेष ऐसा होता है जिससे व्यक्ति दुःखी हो जाता है। और एक द्वेष ऐसा होता है जिससे व्यक्ति दुःखी नहीं होता। एक मनुष्य को एक कुत्ते ने काट लिया, तो उस मनुष्य को कुत्ते से द्वेष होता है, उस पर क्रोध आता है, गुस्सा आता है और वह उससे परेशान रहता है, उससे बदला लेने की बात सोचता है, दुःखी होता है। मनुष्य ऐसे दुःखी हो जाता है। ईश्वर ऐसे दुःखी नहीं होता। ईश्वर का द्वेष दूसरे प्रकार का है। बस वो यह चाहता है, कि मनुष्य को पाप नहीं करना चाहिये, बुराई से बचना चाहिये। बस, इतना ही उसमें द्वेष है। लेकिन इस द्वेष के कारण ईश्वर दुःखी नहीं होता।
स टाइमिंग ईश्वर ने डिसाइड की है कि इतने समय के बाद में प्रलय करूँगा, और इतने समय के बाद दोबारा सृष्टि बनाऊँगा। वो ईश्वर बनायेगा, अपने आप होगा नहीं, ईश्वर करेगा। जैसे हम अपनी योजना बनाते हैं। कल हम ये काम करेंगे, परसों ये काम करेंगे, एक वर्ष तक ये जॉब करेंगे, फिर अगले वर्ष ये जॉब करेंगे। और जैसे हम अपनी योजना बनाते हैं, वैसे ही ईश्वर भी अपनी योजना बनाता है।
स साइंस वालों में और आध्यात्म वालों में यही तो फर्क है। साइंस वाले कहते हैं- सृष्टि बनती है। हम कहते हैं- नहीं, सृष्टि बनती नहीं है बनाई जाती है। ईश्वर का द्वेष दुःखदायक नहीं है। जो स्वभाव से उसका गुण है, वो तो रहेगा।
स सोचियेगा, चिंतन कीजियेगा, जरूरी नहीं है, कि सारी बात आज ही समझ में आ जायेगी। जो बात मुझे चालीस साल में समझ में आई, वो बात आपको चालीस मिनट में कैसे समझ में आ जायेगी? आपको भी मेहनत करनी पड़ेगी, तब जाकर समझ में आयेगी।
स दरअसल जो ईश्वर की इच्छा है, उस बारे में स्वामी दयानंद जी का अभिप्राय स्पष्ट है। पर लोग इसका उल्टा अर्थ यह करते हैं-‘हे ईश्वर! अब मैंने काम किया सो किया, अब मैं मर रहा हूँ, तो तुम्हारी यही इच्छा है, कि मैं मर जाऊँ, तो बस ठीक है, मैं मरता हूँ। तुम्हारी ये इच्छा पूरी हो।’ लोग ऐसा अर्थ करते हैं, यह गलत है। ईश्वर की इच्छा नहीं थी कि स्वामी दयानंद जी मर जायें। ईश्वर की इच्छा थी, कि वेद का प्रचार होना चाहिये, और स्वामी दयानंद जी तो वेद का प्रचार कर रहे थे, वो क्यों मर जायें। और मर जायें, तो ईश्वर की इच्छा के विरू( बात है। यह अनाड़ी लोग ऐसी व्याख्या करते हैं। यह उसका अर्थ नहीं है। सही अर्थ यह है- ईश्वर की इच्छा है, सबकी भलाई और सबकी उन्नति हो। वस्तुतः स्वामी दयानंद का यह विचार है, जो सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है। तो स्वामी दयानंद के इस सि(ांत के अनुसार उस वाक्य का अर्थ लगाइये। स्वामी दयानंद जी ने कहा- ‘मेरा जितना जीवन था मैंने काम किया। देश की, धर्म की सेवा की, और अब मैं शरीर छोड़ के जा रहा हूँ। और ईश्वर की इच्छा है, कि सबको सुख मिले, सबकी उन्नति हो, तो मैंने जितना किया सो किया। बाकी ये दुनिया वाले लोग अब ईश्वर की इच्छा को पूरा करें। सबकी उन्नति करें, सबकी भलाई करें। यह है उसका सही अर्थ। ईश्वर में इच्छा है, द्वेष है, प्रयत्न है। ईश्वर सृष्टि बनाता है, उसमें प्रयत्न है। क्रिया भी है।
स और रही बात फिर सुख-दुःख की। हाँ ईश्वर में सुख तो है, ईश्वर हमेशा आनंद में रहता है। उपनिषद्कार ने लिखा है- ‘रसो वैसः’ स्वर्यस्य च केवलं -अर्थात् जिसमें केवल सुख ही है, दुखः बिल्कुल नहीं है, ऐसा है वह ईश्वर। ईश्वर आनंद स्वरूप है। आनन्दं ब्रहाणों विद्वान् -अर्थात् ईश्वर के आनंद को जानकर के मनुष्य (जीवात्मा( भी सुखी हो जाता है। ऐसे-ऐसे वेद में भी बहुत से मंत्र आते हैं। जिनमें ईश्वर को आनंद स्वरूप बताया गया है। जैस कि रसेन तृप्जः न कुतश्चनोनः ।। अर्थात् ईश्वर आनन्द से परिपूर्ण है, उसमें कोई भी कमी नहीं है। तो ईश्वर में आनंद तो है, पर वो दुःखी नहीं है। दुःख कभी नहीं भोगता। दुःख से हमेशा परे है। इस-इस प्रकार से ईश्वर में भी ये गुण मानने चाहिये।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *