ईश्वर और जीव का भेद

(पादरी सोलफीट साहब से गुजरावालां में शास्त्रार्थ

१८ से २० फरवरी, १८७८)

१९ फरवरी, सन् १८७८ तदनुसार फागुन बदि २, संवत् १९३५, मग्लवार

को सायंकाल ४ बजे स्वामी जी महाराज गिर्जाघर में शास्त्रार्थ के लिये पधारे।

निम्नलिखित पादरी सज्जन उपस्थित थे

पादरी साहब मिशनरी सियालकोट, पादरी मेकी साहब अमरीकन, पादरी

स्वीफ्ट साहब देशी पादरी जो लाशा के नाम से प्रसिद्ध थे ।

इन के अतिरिक्त मिस्टर मोहनवीर साहब गोरखा ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट

कमिश्नर, मिस्टर ह्यूसन साहब असिस्टैण्ट कमिश्नर, वाकर साहब असिस्टैण्ट

कमिश्नर, डिप्टी गोपालदास साहब ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट कमिश्नर, डिप्टी बर्वQत

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अली साहब ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट कमिश्नर आदि सज्जन तथा नगर के सारे

सम्मानित रईस भी वहां पधारे हुए थे । डिप्टी गोपालदास जी मध्यस्थ बनाये

गये थे । श्रोताओं के लिए टिकिट लगाये गये थे । गिर्जाघर का भीतर बाहर

सब मनुष्यों से भरा हुआ था । डेढ़ दो हजार के लगभग मनुष्य होंगे । शास्त्रार्थ

करने वाले पादरी स्वीफ्ट साहब थे ।

पादरी स्वीफ्ट साहब ने शटा उपस्थित की कियदि जीव भी अनादि

माना जावे और ईश्वर भी तो वे दोनों समान हो गये । दो दिन तक प्रश्नोत्तर

होते रहे ।

स्वामी जी ने इस बात का विघा के प्रमाणों और बुद्धिपूर्ण युक्तियों

द्वारा बड़ी उत्तमता से खण्डन किया कि वे दोनों समान नहीं होते, प्रत्युत स्वामी

सेवक होते हैं । ४ बजे से ८ बजे तक शास्त्रार्थ होता रहा ।

शास्त्रार्थ लिखित था अर्थात् दोनों ओर के प्रश्नोत्तर लिखने वाला गगराम

चोपड़ा था परन्तु वे लिखित पत्र कहीं खो गये, अब नहीं मिलते हैं ।

भाई हजूरासिंह जी कहते हैं कि शास्त्रार्थ के पश्चात् डिप्टी गोपालदास

जी ने पादरी साहब को कहा किस्वामी जी आपके प्रश्नों के पर्याप्त उत्तर दे

चुके हैं, आपका हठ है जो नहीं मानते । और लोगों को भी सम्भवतः उस समय

विश्वास हो गया कि स्वामी जी सच्चाई पर हैं और पादरी साहब भूल पर ।

यह बात भी जतलाने योग्य है कि शास्त्रार्थ के समय स्वामी जी ने

इञ्जील की समस्याओं और मसीह की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में भी निरन्तर

बहुत से आक्षेप किये और इस से ईसाई मत की कलई खुलती रही कि ईसाई

मत कितना निकृष्ट और हीन है परन्तु पादरी साहब रह गये प्रश्नों के उत्तर

से बार—बार बचना और पूर्णतया उपेक्षा करना ही श्रेष्ठ समझते रहे ।

गिर्जाघर चूंकि एक तंग स्थान था जहां से इस शास्त्रार्थ सुनने के सैकड़ों

इच्छुक शास्त्रार्थ के लाभ से वञ्चित रहकर घर को लौट जाते थे । उन की

भीड़ देखकर उन को निराश लौटाने के लिए गिर्जाघर के समस्त द्वार बन्द

कर दिये जाते थे और गिर्जाघर के भीतर मकान की तंगी और श्रोताओं की

अधिकता के कारण लोगों के दम घुटने लग जाते थे । इसलिए लोगों की

इच्छा यह थी कि यह शास्त्रार्थ किसी खुले स्थान पर हो, इसलिए दूसरे दिन

शास्त्रार्थ का समय होने के पश्चात् स्वामी जी ने पादरी लोगों को सम्बोधन

करके कहा किस्थान अत्यन्त संकुचित है, लोगों का एक बड़ा उत्सुक भाग

यहां से निराश जाता है और जो लोग भीतर आकर बैठते हैं वे भी स्थान

के संकुचित होने के कारण बहुत कष्ट पाते हैं और इसके अतिरिक्त यह

स्थान एक पक्ष का धार्मिक—गृह भी है । इसलिए कोई ऐसा स्थान नियत

होना चाहिए जो इन दोषों से रहित हो । पादरी लोगों ने उस समय तो कोई

ठीक उत्तर न दिया परन्तु अगले दिन १२ बजे के लगभग जब स्वामी जी

वेदभाष्य के काम में पूर्णतया संलग्न थे और उन को पहले से बिल्कुल कोई

सूचना नहीं थी और न उन से कोई सम्मति ली गई थी कि शास्त्रार्थ १२

बजे दिन के होगा, स्वयमेव कुछ क्रिश्चन भाइयों को गिर्जाघर में बुलाकर

बिठा लिया और स्वामी जी की ओर मनुष्य भेजा कि वे इस समय गिर्जाघर

आ जायें । स्वामी जी उस की बात को सुनकर बहुत चकित हुए, और कहा

कि जब चार बजे शाम का समय दोनों पक्षों की सम्मति से निश्चित हो चुका

है और लोगों को भी केवल उसी समय की सूचना है और इस १२ बजे

के समय के लिए न तो कोई परस्पर सम्मति हुई है और न पहले से मुझ

को सूचना दी गई है और न लोगों को उसकी सूचना है तो ज्ञात नहीं कि

आपने स्वयमेव १२ बजे दिन का समय किस प्रकार निश्चित कर लिया है।

और हमने कल कहा था किगिर्जाघर पर्याप्त रूप से ख्ुाला स्थान नहीं है

तो क्या उस का यही उत्तर है कि स्थान अच्छा प्रबन्ध करने की जगह अब

समय भी स्वयमेव ऐसा निश्चित कर लेवें जिस को दूसरे पक्ष ने आरम्भ से

ही अस्वीकार कर रखा है । इसलिए ऐसी तुच्छ और गर्वपूर्ण कार्यवाही

के अनुसार चलना मेरे लिए आवश्यक नहीं कि मैं वेदभाष्य जैसे उत्तम

और विशेष कार्य से जिस को कि मैं अब यहां पर बैठा करता हूं छोड़कर

पादरी लोगों के गिर्जाघर में उपस्थित होने के लिए विवश हूं । पादरी लोग

यदि स्थान का कोई समुचित प्रबन्ध नहीं कर सकते तो वह नियत समय

पर (जो कि दोनों की सम्मति से निश्चित हुआ है और जिस की शास्त्रार्थ

के इच्छुकों को पहले से सूचना है) तैयार रहें । चार बजे शाम के लिए प्रबन्ध

का भार मैं स्वयं लेता हूं । यह कहकर क्रिश्चन दूत को स्वामी जी ने विदा

किया और ला० गोपालदास जी ने ऐसा ही उन्हें उत्तर दिया कि इस समय

नियमविरुद्ध मैं उपस्थित नहीं हो सकता ।

नगर का तो मनुष्य इस दिन दोपहर को गिर्जा में न गया परन्तु पादरियों

ने कुछ क्रिश्चन और कुछ लड़के स्कूल के कुर्सियों पर बिठला कर उनको

सुनाया कि चूंकि स्वामी जी अब १२ बजे नहीं आते हैं इसलिए वे हारे हुए

समझे जावें । यह कहकर सभा विसर्जित हुई ।

स्वामी जी पादरियों के इस घृणित कार्य पर बहुत व्रुQद्ध हुए और नगर

के सम्मानित व्यक्तियों ने भी उनके असभ्यतापूर्ण प्रदर्शन की बहुत हंसी की।

और स्वामी जी की प्रार्थना पर नगर के कुछ गण्यमान्य सज्जनों ने ४ बजे

शाम को समाधि के समीप एक खुले स्थान पर दरियां, मेज, कुर्सी आदि

सब सामग्री इकट्ठी करके शास्त्रार्थ का प्रबन्ध कर दिया । और चूंकि वह

स्थान गिर्जाघर के समीप था । (जहंा पहले दो दिन शास्त्रार्थ हुआ था ।)

इसलिए जो लोग नित्य की भांति शास्त्रार्थ सुनने के लिए आये थे वे वहां

पहुंच गये जहां शास्त्रार्थ का आयोजन था । सारांश यह कि लोग पंक्ति

बांध—बांध कर आने लगे और स्थान के खुला होने के कारण अत्यन्त प्रसन्न

थे । पादरी लोगों को कई बार एक बार उनके दूत के मुख से और दूसरी

बार एक और सम्मानित व्यक्ति द्वारा सूचना समय से पूर्व ही दी गई परन्तु

वे अपने घर से बाहर न निकले । पहले स्मरण दिलाने के अतिरिक्त नियत

समय पर भी स्मरण दिलाया गया परन्तु उनका वहां आना अत्यन्त कठिन

हो गया । इसलिए विवश होकर नियत समय के लगभग पौन घण्टा पश्चात्

स्वामी जी ने व्याख्यान देना आरम्भ किया । उस दिन व्याख्यान भी इञ्जील

की शिक्षा पर था, जिस में ईसाई मत का अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण और रोचक ढंग

पर खण्डन किया । आज उपस्थिति सब दिनों से अधिक थी और लोग पादरियों

के मत की वास्तविकता सुनकर बहुत प्रसन्न हुए ।

इस के पश्चात् लगभग दस बारह दिन तक स्वामी जी गुजरांवाला में

रहे परन्तु किसी पादरी को भी सामने आने का साहस न हुआ । व्याख्यान

के पश्चात् कुछ लोग किसी—किसी विषय पर अपनी शटाएं प्रकट किया

करते थे, जिन का उत्तर स्वामी जी अत्यन्त सरल तथा प्रीतिपूर्ण शब्दों में प्रबल

तथा सन्तोषजनक युक्तियों के साथ दिया करते थे । जिन को सुनकर वे सब

बड़ी शान्ति के साथ अपने—अपने घर जाते थे । (लेखराम पृष्ठ ३७७ से ३७९)

एक साथ खानपान

(सेठ हर्भुज जी पारसी से मुलतान में प्रश्नोत्तरमार्च, १८७८)