मौलवी अब्दुल रहमान साहब न्यायाधीश से उदयपुर में शास्त्रार्थ
११ तथा १३ व १७ सितम्बर, १८८२ ई०
पण्डित बृजनाथ जी शासक मेवाड़ देश (जो उस समय इस
शास्त्रार्थ के लिखने वाले थे) ने कथन किया कि मैं उस समय स्वामी जी
के मध्य दुभाषिया भी था । अर्बी के कठोर शब्दों का अर्थ स्वामी जी को
और संस्कृत के कठिन शब्दों का अर्थ मौलवी को बता दिया करता था ।
यह शास्त्रार्थ मैंने उस समय अपने हाथ से लिखा जिसका मूल लेख पेंसिल
का लिखा हुआ अभी तक विघमान है ।
तीन मनुष्य इस शास्त्रार्थ के लिखने वाले थे । एक पण्डित बृजनाथ
जी शासक साइर, दूसरे मिर्जा मोहम्मद अली खां भूतपूर्व वकील वर्तमान सदस्य
विधान सभा टौंक, तीसरे मुन्शी रामनारायण जी सरिश्तेदार, बागकलां सरकारी
जिन में से १ व ३ सज्जनों के मूल लेख हम को मिल गये हैं । और जिनका
मौलवी साहब ने भी समर्थन किया है परन्तु उन की बुद्धिमानी तथा ईमानदारी
पर खेद है कि उस समय तो कोई युक्तियुक्त उत्तर न दे सके और पीछे
से दिसम्बर सन् १८८९ में निर्मूल और झूठे—झूठे उद्धरण देकर मूललेख के
विरुद्ध कुछ का कुछ प्रकाशित करके अपनी धार्मिकता का चमत्कार दिखाया।
इस शास्त्रार्थ के दिन सामान्य तथा विशेष हिन्दू तथा मुसलमान सुनने वालों
की बहुत अधिकता थी यहां तक कि श्री दरबार वैकुण्ठवासी महाराजा
सज्जनसिंह भी शास्त्रार्थ सुनने के लिए पधारे हुए थे ।
स्वामी दयानन्द जी महाराज और मौलवी अब्दुर्रहमान साहब
सुपरिण्टेण्डैण्ट पुलिस तथा न्यायाधीश न्यायालय उदयपुर मेवाड़ देश
के मध्य में होने वाला शास्त्रार्थ’’
११ सितम्बर, सन् १८८२ तदनुसार भादों बदि चौदश,
संवत् १९३९, सोमवार ।
मौलवी साहब(प्रथम प्रश्न) ऐसा कौन सा मत है जिस की मूल
पुस्तक सब मनुष्यों की बोलचाल और समस्त प्राकृतिक बातों को सिद्ध
करने में पूर्ण हो ? जब बड़े—बड़े मतों पर विचार किया जाता है जैसे भारतीय
वेद, पुराण या चीन वाले चीनी, जापानी, बर्मी बौद्ध वाले, फारसी जिन्द वाले,
यहूदी तौरेत वाले, नसरानी इञ्जील वाले, मौहम्मदी कुरान वाले तो प्रकट होता
है कि उन के धार्मिक नियम और मूल विशेष एक देश में एक भाषा के
द्वारा एक प्रकार से ऐसे बनाये गये हैं जो एक दूसरे से नहीं मिलते और इन
मतों में से प्रत्येक मत के समस्त गुण और विशेष चमत्कार उसी देश तक
सीमित हैं जहां वह बना है । जिन में से कोई एक लक्षण तथा चिह्न उसी
देश के अतिरिक्त दूसरे देश में नहीं पाया जाता, प्रत्युत दूसरे देश वाले अनभिज्ञता
के कारण उसे बुरा जानकर उस के प्रति मानवी व्यवहार तो क्या उस का
मुख तक देखना नहीं चाहते । ऐसी दशा में सब मतों में से कौन—सा मत
सत्य समझना चाहिये ।
उत्तर स्वामी जी कामतों की पुस्तकों में से विश्वास के योग्य एक
भी नहीं क्योंकि पक्षपात से पूर्ण हैं । जो विघा की पुस्तक पक्षपात से रहित
है वह मेरे विचार में सत्य है और ऐसी पुस्तक का साधारण प्राकृतिक नियमों
के विरुद्ध न होना भी आवश्यक है । मैंने जो खोज की है उस के अनुसार
वेदों के अतिरिक्त कोई पुस्तक ऐसा नहीं है जो विश्वास के योग्य हो क्योंकि
समस्त पुस्तकें किसी न किसी देश विशेष की भाषा में हैं और वेद की भाषा
किसी देश विशेष की भाषा नहीं, केवल विघा की भाषा है। क्योंकि यह
विघा की पुस्तक है, इसी कारण से किसी मत विशेष से सम्बन्ध नहीं रखती।
यही पुस्तक समस्त देशीय भाषाओं का मूल कारण है और पूर्ण होने से प्रसिद्ध
भलाइयों तथा निषिद्ध बुराइयों की परिचायक है और समस्त प्राकृतिक नियमों
के अनुकूल है ।
प्रश्न मौ०क्या वेद मत की पुस्तक नहीं है ?
उत्तर स्वा०वेद मत की पुस्तक नहीं है प्रत्युत विघा की पुस्तक है।
प्रश्न मौ०मत का आप क्या अर्थ करते हैं ?
उत्तर स्वा०पक्षपात सहित को मत कहते हैं इसी कारण से मत की
पुस्तक सर्वथा मान्य नहीं हो सकतीं ।
प्रश्न मौ०हमारे पूछने का अभिप्राय यह है कि समस्त मनुष्यों की
भाषाओं पर तथा समस्त मनुष्यों के आचारों पर और समस्त प्राकृतिक नियमों
पर कौन—सी पुस्तक पूर्ण है सो आपने वेद निश्चित किया । सो वेद इस योग्य
है वा नहीं ?
उत्तर स्वा०हां है ।
प्रश्न मौ०आपने कहा कि वेद किसी देश की भाषा में नहीं । जो
किसी देश की भाषा नहीं होती उसके अन्तर्गत समस्त भाषाएं कैसे हो सकती
हैं ?
उत्तर स्वा०जो किसी देश विशेष की भाषा होती है वह किसी दूसरी
देश भाषा में व्यापक नहीं हो सकती क्योंकि उसी में बद्ध (सीमित) है।
प्रश्न मौ०जब एक देश की भाषा होने से वह दूसरे देश में नहीं मिलती
तो जब वह किसी देश की है ही नहीं तो सब में व्यापक कैसे हो सकती
है ?
उत्तर स्वा०जो एक देश की भाषा है उसका व्यापक कहना सर्वथा
विरुद्ध है और जो किसी देश विशेष की भाषा नहीं वह सब भाषाओं में
व्यापक है जैसे आकाश किसी देश विशेष का नहीं है इसी से सब देशों में
व्यापक है। ऐसे वेद की भाषा भी किसी देश विशेष से सम्बन्ध न रखने
से व्यापक है ।
प्रश्न मौ०यह भाषा किसकी है ?
उत्तर स्वा०विघा की ।
प्रश्न मौ०बोलने वाला इसका कौन है ?
उत्तर स्वा०इसका बोलने वाला सर्वदेशी है ।
मौलवीतो वह कौन है ?
स्वामीवह परब्रह्म है ।
मौलवीयह किस को सम्बोधन की गई है ?
स्वामीआदि सृष्टि में इस के सुनने वाले चार ऋषि थे जिन का नाम
अग्नि, वायु, आदित्य और अग्रिा था । इन चारों ने ईश्वर से शिक्षा प्राप्त
करके दूसरों को सुनाया ।
मौलवीइन चारों को ही विशेष रूप से क्यों सुनाया ?
स्वामीवे चार ही सब में पुण्यात्मा और उत्तम थे ।
मौलवीक्या इस बोली को वे जानते थे ?
स्वामीउस जानने वाले ने उसी समय उन को भाषा भी जना दी थी
अर्थात् उस शिक्षक ने उसी समय उन को भाषा का ज्ञान दे दिया ।
मौलवीइस को आप किन युक्तियों से सिद्ध करते हैं ?
स्वामीविना कारण के कार्य कोई नहीं हो सकता ।
मौलवीबिना कारण के कार्य होता है या नहीं ?
स्वामीनहीं ।
मौलवीइस बात की क्या साक्षी है ?
स्वामीब्रह्मादि अनेक ऋषियों की साक्षी है और उन के ग्रन्थ भी
विघमान हैं ।
मौलवीयह साक्षी सन्देहात्मक और बुद्धिविरुद्ध है । कारण कथन
कीजिये ।
स्वामीवेद की साक्षी स्वयं वेद से प्रकट है ।
मौलवीइसी प्रकार सब मतवाले भी अपनी—अपनी पुस्तकों में कहते
हैं ।
स्वामीऐसी बात दूसरे मतवालों की पुस्तकों में नहीं है और न वे सिद्ध
कर सकते हैं ।
मौलवीपुस्तक वाले सभी सिद्ध कर सकते हैं ?
स्वामीमैं पहले ही कह चुका हूं कि मतवाले ऐसा सिद्ध नहीं कर
सकते (और यदि कर सकते हैं तो बताइये कि मौहम्मद साहब के पास कुरान
कैसे पहुंचा) ।
मौलवी जैसे चारों ऋषियों के पास वेद आया ।१
नोट१. खेद है कि मौलवी साहब ने विना सोचे समझे ऐसा कह दिया ।
यह किसी प्रकार ठीक नहीं । न तो कुरान आदि सृष्टि में मौहम्मद साहब की आत्मा
में प्रकाशित हुआ और न उस में वर्णित कहानियां ही ऐसी हैं जो आदि सृष्टि से
सम्बन्धित हों और न उस की भाषा ही ऐसी है । मौहम्मद साहब और खुदा के मध्य
में तीसरा जबराइल और असंख्य फरिश्तों की चौकीदारी और पहरा और आकाश
से उतरना आदि समस्त बातें ऐसी हैं जिन में कोई मौहम्मदी भाई इन्कार नहीं कर
सकता । इसलिये कुरान किसी प्रकार भी इस विशेषण का पात्र नहीं हो सकता और
उस्मान और कुरानों के बदलने की कहानी इसके अतिरिक्त है । सम्पादक
दूसरा प्रश्न
प्रश्न मौलवीसमस्त संसार के मनुष्य एक जाति के हैं अथवा कई
जातियों के ?
उत्तर स्वामीजुदी—जुदी जातियों के हैं ।
मौलवीकिस युक्ति से ?
स्वामीसृष्टि की आदि में ईश्वरीय सृष्टि में उतने जीव मनुष्य—शरीर
धारण करते हैं कि जितने गर्भ सृष्टि में शरीर—धारण करने के योग्य होते
हैं और वे जीव असंख्य होने से अनेक हैं ।
मौलवीइस का प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है ?
स्वामीअब भी सब ही अनेक मां—बाप के पुत्र हैं ।
मौलवीइस के विश्वसनीय प्रमाण कहिये ।
स्वामीप्रत्यक्षादि आठों प्रमाण ।
मौलवीवे कौन से हैं ?
स्वामीप्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, ऐतिह्य, सम्भव, उपमान, अभाव,
अर्थापत्ति ।
मौलवीइन आठों में से एक—एक का उदाहरण देकर सिद्ध कीजिये।
प्रश्न मौलवीये जो आकार मनुष्यों के हैं, इनके शरीर एक प्रकार
के बने अथवा भिन्न—भिन्न प्रकार के बने ?
उत्तर स्वामीमुख आदियों में एक से हैं, रंगों में कुछ भेद है ।
मौलवीकिस—किस रंग में क्या—क्या भेद है ?
स्वामीछोटाई—बड़ाई में किञ्चिन्मात्र अन्तर है ।
मौलवीयह अन्तर एक देश अथवा एक जाति में एक ही प्रकार के
हैं अथवा भिन्न—भिन्न देशों में भिन्न—भिन्न प्रकार के हैं ?
स्वामीएक—एक देश में अनेक हंै । जैसे एक मां—बाप के पुत्रों में
भी भिन्न—भिन्न प्रकार के होते हैं ।
मौलवीहम जब संसार की अवस्था पर दृष्टिपात करते हैं तो आपके
कथनानुसार नहीं पाते । एक ही देश में कई जातियां जैसे हिन्दी, हब्शी, चीनी,
इत्यादि देखने में पृथक —पृथक विदित होती हैं अर्थात् चीन वाले दाढ़ी नहीं
रखते और तिकौने मुंह के होते हैं । हब्शी, मलन्गई, चीनी, तीनों की आकृतियां
परस्पर नहीं मिलतीं । एक ही देश में यह भेद क्योंकर है ?
स्वामी उन में भी अन्तर है ।
मौलवी दाढ़ी न निकलने का क्या कारण है ?
स्वामी देशकाल और मां—बाप आदि के शरीरों में कुछ—कुछ भेद है।
समस्त शरीर रज वीर्य के अनुसार बनते हैं । वात, पित्त, कफ आदि धातुओं
के संयोग वियोग से भी कुछ भेद होते हैं ।
मौलवीहम समस्त संसार में तीन प्रकार के मनुष्य देखते हैं जिन का
विभाजन इस प्रकार हैदाढ़ी वाले, बिना दाढ़ी के, घुंघरू बाल वाले । दाढ़ी
वाले भारतीय, फिरंगी, अर्बी, मिश्री आदि । बेदाढ़ी वाले चीनी, जापानी,
कैमिस्टका के । घुंघरू बाल वाले हब्शी । इन तीनों की बनावट और प्रकार
में बहुत—सा भेद है । एक दूसरे से नहीं मिलता और यह भेद आपके कथनानुसार
ऊपर वाले कारणों से है । यदि एक देश के रहने वाले ये तीनों प्रकार के
मनुष्य दूसरे देश में जाकर रहें तो कभी भेद नहीं होता । जाति समान है ।
इस अवस्था में संसार के मूलपुरुष आपके कथनानुसार तीन हुए, अधिक
नहीं ।
स्वामीभोटियों को किस में मिलाते हैं । वे किसी से नहीं मिलते।
इस प्रकार तीन से अधिक सम्पत्ति विदित होती हैं ।
मौलवीजैसा भेद इन तीनों में है वैसा दूसरे में नहीं । तीनों जातियों
का परस्पर मिल जाना इस थोड़े भेद का कारण है परन्तु इन तीनों की आकृति
एक दूसरे से नहीं मिलती ।
तीसरा प्रश्न
प्रश्न मौलवीमनुष्य की उत्पत्ति कब से है और अन्त कब होगा?
स्वामीएक अरब छयानवे करोड़ और कितने लाख वर्ष उत्पत्ति को
हुए और दो अरब वर्ष से कुछ ऊपर तक और रहेगी ।
मौलवीइसका क्या कारण और प्रमाण है ?
स्वामीइस का हिसाब विघा और ज्योतिष शास्त्र से है ।
मौलवीवह हिसाब बतलाइये ?
स्वामीभूमिका के पहले अट में लिखा है और हमारे ज्योतिषशास्त्र
से सिद्ध है, देख लो ।
चौथा प्रश्न
(१३ सितम्बर, सन् १८८२, बुधवार तदनुसार भादों सुदि एकम्,
संवत् १९३९ विक्रमी)
प्रश्न (मौलवी जी की ओर से)आप धर्म के नेता हैं या विघा के
अर्थात् आप किसी धर्म के मानने वाले हैं या नहीं ?
उत्तर (स्वामी जी की ओर से)जो धर्म विघा से सिद्ध होता है
उस को मानते हैं ।
प्रश्न मौलवीआपने किस प्रकार जाना कि ब्रह्म ने चारों ऋषियों को
वेद पढ़ाया ?
उत्तर स्वामीप्रदान किये गये वेदों के पढ़ने से और विश्वसनीय विद्वानों
की साक्षी से ।
मौलवीयह साक्षी आप तक किस प्रकार पहुंची ?
स्वामीशब्दानुक्रम से और उन के ग्रन्थों से ।
मौलवीप्रश्नों से पूर्व परसों यह निश्चित हुआ था कि उत्तर बुद्धि के
आधार पर दिए जायेंगे, पुस्तकों के आधार पर नहीं । अब आप उसके विरुद्ध
ग्रन्थों की साक्षी देते हैं ।
स्वामीबुद्धि के अनुकूल वह है जो विघा से सिद्ध हो चाहे वह लिखित
हो अथवा वाणी द्वारा कहा जावे । समस्त बुद्धिमान् इस को मानते हैं और
आप भी ।
मौलवीइस कथन के अनुसार ब्रह्म का चारों ऋषियों को वेद की
शिक्षा देना विघा अथवा बुद्धि द्वारा किस प्रकार सिद्ध होता है ?
स्वामीविना कारण के कार्य नहीं हो सकता इसलिये विघा का भी
कोई कारण चाहिये और विघा का कारण वह है कि जो सनातन हो । यह
सनातन विघा परमेश्वर में उस की कारीगरी को देखने से सिद्ध होती है ।
जिस प्रकार वह समस्त सृष्टि का निमित्त कारण है उसी प्रकार उस की विघा
भी समस्त मनुष्यों की विघा का कारण है । यदि वह उन ऋषियों को शिक्षा
न देता तो सृष्टि—नियम के अनुकूल यह जो विघा की पुस्तक है, इस का
क्रम ही न चलता ।
मौलवीब्रह्म ने वेद चारों ऋषियों को पृथक —पृथक पढ़ाया अथवा एक
साथ क्रमशः शिक्षा दी अथवा एक काल में पढ़ाया ?
स्वामीब्रह्म व्यापक होने के कारण चारों को पृथक —पृथक और क्रमशः
पढ़ाता गया क्योंकि वे चारों परिमित बुद्धि वाले होने के कारण एक ही समय
कई विघाओं को नहीं सीख सकते थे और प्रत्येक की बुद्धिप्राप्ति की शक्ति
भिन्न—भिन्न होने के कारण कभी चारों एक समय में और कभी पृथक —पृथक
समझकर एक साथ पढ़ते रहे । जिस प्रकार चारों वेद पृथक —पृथक हैं उसी
प्रकार प्रत्येक मनुष्य को एक—एक वेद पढ़ाया ।
मौलवीशिक्षा देने में कितना समय लगा ?
स्वामीजितना समय उन की बुद्धि की दृढ़ता के लिए आवश्यक था।
१मौ०पढ़ाना मानसिक प्रेरणा के द्वारा था अथवा शब्द अक्षर आदि
के द्वारा जो वेद में लिखे हुए हैं अर्थात् क्या शब्द अर्थ सम्बन्ध सहित पढ़ाया?
स्वा०वही अक्षर जो वेद में लिखे हुए हैं शब्दार्थ सम्बन्ध सहित पढ़ाये
गये ।
मौ०शब्द बोलने के लिए मुख, जिह्वादि साधनों की अपेक्षा है । शिक्षा
देनेवाले में यह साधन हैं या नहीं ?
स्वा०उस में ये साधन नहीं हैं क्योंकि वह निराकार है । शिक्षा देने
के लिए परमेश्वर अवयवों तथा बोलने के साधनादि से रहित है ।
मौ०शब्द कैसे बोला गया ?
स्वा०जैसे आत्मा और मन में बोला सुना और समझा जाता है ।
मौ०भाषा को जाने विना शब्द किस प्रकार उन के मन में आये ?
स्वा०ईश्वर के डालने से क्योंकि वह सर्वव्यापक है ।
मौ०इस सारे वार्तालाप में दो बातें बुद्धि के विरुद्ध हैं प्रथम यह कि
ब्रह्म ने केवल चार ही मनुष्याें को उस भाषा में वेद की शिक्षा दी जो किसी
देश अथवा जाति की भाषा नहीं । दूसरे यह कि उच्चारित शब्द जो पहले
से जाने हुए न थे, दिल में डाले गए और उन्होंने ठीक समझे । यदि यह
स्वीकार किया जावे तो फिर समस्त बुद्धिविरुद्ध बातें जैसे चमत्कारादि सब
मतों के सत्य स्वीकार करने चाहियें ।
स्वा०ये दोनों बातें बुद्धिविरुद्ध नहीं क्योंकि ये दोनों ही सच्ची हैं।
जो कुछ जिह्वा से अथवा आत्मा से बताया जावे वह शब्दों के विना नहीं
हो सकता । उसने जब शब्द बतलाये तो उनमें ग्रहण करने की शक्ति थी।
उसके द्वारा उन्होंने परमेश्वर के ग्रहण कराने से योग्यतानुसार ग्रहण किया।
और बोलने के साधनों की आवश्यकता बोलने और सुनने वाले के अलग
अलग होने पर होती है क्योंकि जो वक्ता मुख से न कहे और श्रोता के कान
न हों तो न कोई शिक्षा कर सकता है और न कोई श्रवण । परमेश्वर चूंकि
सर्वव्यापक है इसलिए उनके आत्मा में भी विघमान था, पृथक न था । परमेश्वर
ने अपनी सनातन विघा के शब्दों को उन के अर्थात् चारों के आत्माओं में
प्रकट किया और सिखाया । जैसे किसी अन्य देश की भाषा का ज्ञाता किसी
अन्य देश के अनभिज्ञ मनुष्य को जिस ने उस भाषा का कोई शब्द नहीं सुना,
सिखा देता है उसी प्रकार परमेश्वर ने जिस की विघा व्यापक है और जो
नोट१. (इस से आगे मौलवी साहब के स्थान पर मौ० और स्वामी के स्थान
पर स्वा० लिखा जायगा) ।
उस विघा की भाषा को भी जानता था, उन को सिखा दिया । ये बातें बुद्धिविरुद्ध
नहीं । जो इन को बुद्धिविरुद्ध कहे वह अपने दावे को युक्तियों द्वारा सिद्ध
करे । पुराण जो पुरानी पुस्तकें हैं अर्थात् वेद के चार ब्राह्मण हैं, वे वहीं तक
सत्य हैं । जहां तक वेदविरुद्ध न हाें । और जो अठारह पुराण नवीन हैं जैसे
भागवत, पद्मपुराणादि, वे प्राकृतिक नियमों और विघा के विरुद्ध होने से सत्य
नहीं, नितान्त झूठे हैं ।
मौ०पुराण मत की पुस्तकें हैं या विघा की ?
स्वा०वे प्राचीन पुस्तकें अर्थात् चारों ब्राह्मण विघा की और पिछली
भागवतादि पुराण मत की पुस्तकें हैं जैसे कि अन्य मत के ग्रन्थ ।
मौ०जब वेद विघा की पुस्तक हैं और पुराण मत की पुस्तकें हैं और
आपके कथनानुसार असत्य हैं तो आर्यों का धर्म क्या है ?
स्वा०धर्म वह है जिसमें निष्पक्षता, न्याय और सत्य का स्वीकार
और असत्य का अस्वीकार हो । वेदों में भी उसी का वर्णन है और
वही आर्यों का प्राचीन धर्म है और पुराण केवल पक्षपातपूर्ण सम्प्रदायों अर्थात्
श्ौव, वैष्णवादि से सम्बन्धित हैं जैसे कि अन्य मत के ग्रन्थ ।
मौ०पक्षपात आप किस को कहते हैं ?
स्वा०जो अविघा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, कुसंग से किसी अपने
स्वार्थ के लिए न्याय और सत्य को छोड़कर असत्य और अन्याय को धारण
करना है, वह पक्षपात कहलाता है ।
मौ०यदि कोई इन गुणों से रहित हो, आर्य न हो तो आर्य लोग उसके
साथ भोजन और विवाहादि व्यवहार करेंगे या नहीं ।
स्वा०विद्वान् पुरुष भोजन तथा विवाह को धर्म अथवा अधर्म
से सम्बन्धित नहीं मानते प्रत्युत इसका सम्बन्ध विशेष रीतियों, देश तथा
समीपस्थ वर्गों से है । इस के ग्रहण अथवा त्याग से धर्म की उन्नति अथवा
हानि नहीं होती परन्तु किसी देश अथवा वर्ग में रहकर किसी अन्य मतवाले
के साथ इन दोनों कार्यों में सम्मिलित होना हानिकारक है इसलिए करना
अनुचित है। जो लोग भोजन तथा विवाहादि पर ही धर्म अथवा
अधर्म का आधार समझते हैं उनका सुधार करना विद्वानों को आवश्यक
है । और यदि कोई विद्वान् उन से पृथक हो जावे तो वर्ग को उस से घृणा
होगी और यह घृणा उस को शिक्षा का लाभ उठाने से वञ्चित रखेगी । सब
विघाओं का निष्कर्ष यह है कि दूसरों को लाभ पहुंचाना और दूसरों को हानि
पहुंचाना उचित नहीं ।
पंाचवां प्रश्न
(रविवार १७ सितम्बर, सन् १८८२ तदनुसार भादों सुदि पञ्चमी
संवत् १९३९ विक्रमी)
प्रथम मौ०समस्त धर्म वाले अपनी धार्मिक पुस्तकों को सब से उत्तम
और उन की भाषा को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं और उस को उस कारण का कार्य
भी कहते हैं । जिस प्रकार की बौद्धिक युक्तियां वे देते हैं उसी प्रकार आपने
भी वेद के विषय में कहा । कोई प्रमाण प्रकट नहीं किया, फिर वेद में
क्या विशेषता है ?
स्वा०पहले भी इसका उत्तर दे दिया गया है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों
और प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध विषय जिन पुस्तकों में होंगे वे सर्वज्ञ की
बनाई हुई नहीं हो सकतीं और कार्य का होना कारण के विना असम्भव है।
चार मत जो कि समस्त मतों का मूल हैं अर्थात् पुराणी, जैनी, इञ्जील तौरेत
वाले किरानी, कुरानी इन की पुस्तकें मैंने कुछ देखी हैं और इस समय भी
मेरे पास हैं और मैं इन के बारे में कुछ कह भी सकता हूं और पुस्तक भी
दिखा सकता हूं । उदाहरणार्थपुराण वाले एक शरीर से सृष्टि का आरम्भ
मानते हैं यह अशुद्ध है क्योंकि शरीर संयोगज है, इसलिए वह कार्य है उस
के लिए कर्त्ता की अपेक्षा है ।
जिन्हाेंने इस कार्य को इस प्रकार सनातन माना है कि कोई इस का
रचयिता नहीं, वह भी अशुद्ध है क्योंकि संयोगज पदार्थ स्वयं नहीं बनता ।
इञ्जील और कुरान में अभाव से भाव माना है । ये चारों बातें उदाहरणार्थ
विघा के नियमों के विरुद्ध हैं, इसलिए इनकी वेद से समता नहीं कर सकते।
वेदों में कारण से कार्य को माना है और कारण को अनादि कहा है । कार्य
को प्रवाह से अनादि और संयोगज होने के कारण सान्त बताया है । इस को
समस्त बुद्धिमान् मानते हैं । मैं सत्य और असत्य वचनों के कारण वेद की
सत्यता और मतस्थ पुस्तकों की असत्यता कथन करता हूं । यदि कोई सज्जन
इस को प्रकट रूप में देखना चाहें तो मैं किसी दिन तीन घण्टे के भीतर
उन मतों की पुस्तकों को प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध सिद्ध करके दिखा सकता
हूं । यदि कोई नास्तिक वेद में से प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कोई बात दिखायेगा
तो उसको विचार करने के पश्चात् केवल अपनी अज्ञानता ही स्वीकार करनी
पड़ेगी । इसलिए वेद सत्यविघाओं की पुस्तक है न किसी मत विशेष की।
छठा प्रश्न
प्रश्न मौ०क्या प्रकृति अनादि है ?
उत्तर स्वा०उपादान कारण अनादि है ।
मौ०अनादि आप कितने पदार्थों को मानते हैं ?
स्वा०तीन । परमात्मा, जीव और सृष्टि का कारणये तीनों स्वभाव
से अनादि हैं । इन का संयोग, वियोग, कर्म तथा उन का फल भोग प्रवाह
से अनादि है । कारण का उदाहरणजैसे घड़ा कार्य, उस का उपादान कारण
मट्टी, बनाने वाला अर्थात् निमित्त कारण कुम्हार चक्र दण्डादि साधारण कारण,
काल तथा आकाश समवाय कारण ।
मौ०वह वस्तु जिस को हमारी बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती, हम उस
को अनादि क्योंकर मान सकते हैं ?
स्वा०जो वस्तु नहीं है वह कभी नहीं हो सकती और जो है वही
होती है । जैसे इस सभा के मनुष्य जो थे तो यहां आये । यहां हैं तो फिर
भी कहीं होंगे । विना कारण के कार्य का मानना ऐसा है जैसे वन्ध्या के
पुत्र उत्पन्न होने की बात कहना । कार्य वस्तु से चारों कारण जिन का ऊपर
वर्णन किया है पहले मानने पड़ेंगे । संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिस के
पूर्वकथित चार कारण न हों ।
मौ०सम्भव है कि जगत् का कारण जिसे आप अनादि कहते हैं,
कदाचित् वह भी किसी अन्य वस्तु का कार्य हो । जैसे कि बिजली के बनने
में कई साधारण वस्तुएं मिलकर ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो अत्यन्त
महान् है । इस वार्तालाप के परिणाम से प्रकट है कि प्रत्येक वस्तु के लिए
कोई कारण चाहिए तो कारण के लिए भी कोई कारण अवश्य होगा ।
स्वा०अनादि कारण उसका नाम है जो किसी का कार्य न हो । जो
किसी का कार्य हो उस को अनादि अथवा सनातन कारण नहीं कह सकते
किन्तु वह परम्परा और पूर्वापर सम्बन्ध से कार्य कारण नाम वाला होता है।
यह बात सब विद्वानों को जो पदार्थविघा को यथावत् जानते हैं, स्वीकरणीय
है । किसी वस्तु को चाहे जहां तक अवस्थान्तर में विभक्त करते चले जावें,
चाहे वह सूक्ष्म हो चाहे स्थूल, जो उस की अन्तिम अवस्था होगी, उस को
कारण कहते हैं और जो यह बिजुली का दृष्टान्त दिया, वह भी निश्चित कारणों
से होता है जो उस के लिए आवश्यक है । अन्य कारणों से वह नहीं हो
सकती ।
सातवां प्रश्न
मौ०यदि वेद ईश्वर का बनाया होता तो अन्य प्राकृतिक पदार्थों
सूर्य, जल तथा वायु के समान संसार के समस्त साधारण मनुष्यों को लाभ
पहुंचाना चाहिए था ।
स्वा०सूर्यादि सृष्टि के समान ही वेदों से सब को लाभ पहुंचता है
क्योंकि सब मतों और विघा की पुस्तकों का आदिकारण वेद ही हैं । और
इन पुस्तकों में विघा के विरुद्ध जो बातें हैं वे अविघा के सम्बन्ध से हैं क्याेंकि
वे सब पुस्तकें वेद के पीछे बनी हैं । वेद के अनादि होने का प्रमाण यह
है कि अन्य प्रत्येक मत की पुस्तक में वेद की बात गौण अथवा प्रत्यक्ष रूप
से पाई जाती है और वेदों में किसी का खण्डन मण्डन नहीं । जैसे सृष्टि
विघा वाले सूर्यादि से अधिक उपकार लेते हैं वैसे ही वेद के पढ़ने वाले
भी वेद से अधिक उपकार लेते हैं और नहीं पढ़ने वाले कम ।
मौ०कोई इस दावे को स्वीकार नहीं करता कि किसी काल में वेद
को समस्त मनुष्यों ने माना हो और न किसी मत की पुस्तक में प्रत्यक्ष अथवा
गौण रूप से वेदों का खण्डन मण्डन पाया जाता है ।
स्वा०वेद का खण्डन मण्डन पुस्तकों में है, जैसे कुरान में बेकिताब
वाले और एक ऊती ईश्वर के मानने वाले जैसे बाइबिल में पिता पुत्र और
पवित्रात्मा, होम की भेंट, ईश्वर को प्रिय, याजक, महायाजक, यज्ञ, महायज्ञ
आदि शब्द आते हैं । जितने मतों के पुस्तक बने हुए हैंबीच के काल के
हैं । उस समय के इतिहास से सिद्ध है कि मुसलमान, ईसाई आदि जंगली
थे तो जंगलियों को विघा से क्या काम । पूर्व के विद्वान् पुरुष वेदों को मानते
थे और वर्तमान समय में शब्द विघा (फिलालोजी) के परीक्षक मोक्षमूलर
आदि विद्वान् भी संस्कृत भाषा तथा ऋग्वेदादि को सब भाषाओं का
मूल निश्चित करते हैं । जब बाइबिल कुरान नहीं बने थे तब वेद के अतिरिक्त
दूसरी मानने योग्य पुस्तक कोई भी नहीं थी । मनुष्य की उत्पत्ति का आदि
काल ही ऋषियों की वेदप्राप्ति का समय है जिस को १९६०८५२९९७ वर्ष
हुए । इससे प्राचीन कोई पुस्तक नहीं है ।
पाण्डे मोहनलाल जी ने कहा कि मौलवी साहब के शास्त्रार्थ के प्रथम
दिन तो राणासाहब नहीं आये थे परन्तु उन्होंने शास्त्रार्थ लिखित होना स्वीकार
किया था । अन्तिम दिन श्री महाराज पधारे और मौलवी साहब की हठ देखकर
श्री दरबार साहब ने कहा कि जो कुछ स्वामी जी ने कहा है वह निस्सन्देह
ठीक है । फिर शास्त्रार्थ नहीं हुआ । कविराज श्यामलदास जी ने भी इस
का समर्थन किया ।