इन्द्रियों के सुखों को भोगकर उनसे तृप्त होना अच्छा है, दमन (सप्रेशन) करना अच्छा नहीं, ओशो, फ्रायड ने ऐसी बातें कही हैं। क्या सही है?

हम कहते हैं-ओशो, फ्रायड आदि का यह कहना गलत है। कारण किः-
स सारी दुनिया भोगों को भोग कर इन्द्रियों को तृप्त करने की कोशिश कर रही है। सारी दुनिया यही तो कर रही है। और क्या कर रही है? सुखों को भोगकर क्या किसी की तृप्ति हो गयी? क्या सुख से मन पूरी तरह भर गया?
स क्या यह हमारा पहला जन्म है? पहले कितने ही जन्म हो गए। पिछले जन्मों में हमनें और क्या किया? यही तो किया, खाया-पिया और भोगा। पिछले सैकड़ों-हजारों जन्मों से आज तक तो तृप्ति हुई नहीं। आगे और दो सौ, पाँच सौ, हजार जन्म ले लो, और भोग लो भोगों को, क्या तृप्ति हो जायेगी? नहीं, इसलिए ओशो, फ्रायड की बात गलत है।
स ऋषि लोग और मैं भी यही कहता हूँ कि-”भोगों को भोगने से इच्छाएं शांत नहीं होतीं बल्कि और भड़कती हैं, और बढ़ती जाती हैं।” इसलिए इन लोगों का कहना ठीक नहीं है। यह ऋषियों के, वेद के, मनोविज्ञान के विरु( है। हाँ, अगर कोई परीक्षा की दृष्टि से विषयों का सेवन करे, तो अलग बात है।
स सुख-भोग के दो दृष्टिकोण हैं। एक होता है – अधाधुंध सुख भोगना, यह मानकर भोगना कि विषयों में बहुत सुख है। इस भावना से कभी भी तृप्ति (संतुष्टि) नहीं होगी। और दूसरी प(ति यह है कि विषयों का परीक्षण किया जाए कि- इनमें कितना सुख है। इन विषयों के भोग से तृप्ति होती है कि नहीं होती?
अगर कोई परीक्षण करने की दृष्टि से विषयों का सेवन करे, तो उसको ‘सत्य’ समझ में आ जाएगा। तब तो सुख का भोग करने में लाभ है। दो बार, पाँच बार, पच्चीस बार, पचास बार परीक्षण करेगा और उसको समझ में आ जाएगा कि इनमें तृप्ति नहीं है। इस दृष्टि से तो भोग कर सकते हैं। इसमें आपत्ति नहीं है, पर जैसा कि यहाँ प्रश्न में लिखा है, वो प(ति ठीक नहीं है। ऐसे कोई तृप्ति नहीं होती।

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