(पण्डित श्रीगोपाल जी से फर्रुखाबाद में शास्त्रार्थ२४ मई, १८६९)
जब श्री स्वामी जी महाराज फर्रुखाबाद में धर्म—प्रचार तथा पाखण्ड
का खण्डन कर रहे थे तो वहां के पण्डितों में हलचल मच गई और उन्होंने
जिला मेरठ के रहने वाले पण्डित श्रीगोपाल जी को शास्त्रार्थ के लिए बुलाया।
इस शास्त्रार्थ में पीताम्बरदास जी मध्यस्थ थे और उनके अतिरिक्त दस पांच
पण्डित और भी थे । विश्रान्त घाट पर जहां स्वामी जी उतरे थे सब लोग
एकत्रित हुए और पण्डित श्रीगोपाल जी भी गये । उस समय श्रीगोपाल जी
तथा स्वामी जी के मध्य निम्नलिखित बातचीत हुई
पण्डित जी बोले किट्टट्टभो स्वामिन् मया रात्रौ विचारः कृतः।’’ हे
स्वामी! मैंने रात्रि में विचार किया है । आप मूर्तिपूजा का क्यों और कैसे
खण्डन करते हैं । यह मूर्तिपूजा तो सर्वथा लिखी है ।
स्वामी जीकुत्र लिखितमस्ति तदुच्यताम् ।’’ अर्थात् कहां लिखी है
वह कहो और यह संस्कृत अशुद्ध है ।
पण्डित जी ने संस्कृत की अशुद्धि तो स्वीकार न की परन्तु मूर्तिपूजा
के प्रमाण में मनुस्मृति अध्याय २, श्लोक १७२ पढ़ा
ट्टट्टदेवताभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च ।’
स्वामी जीट्टट्टअस्यार्थः क्रियताम्’’ अर्थात् इसका अर्थ करो ।
पण्डित जीदेवता का पूजन करे, सायं—प्रातः हवन करे और पूजन चूंकि
प्रतिमा का ही हो सकता है और का नहीं इसलिये इससे मूर्तिपूजन सिद्ध है ।
स्वामी जीव्युत्पत्ति द्वारा इसका अर्थ करो । अर्च पूजायाम् अर्थात् अर्चा
पूजा और पूजा सत्कार को कहते हैं । यहां अग्निहोत्र और विद्वानों के सत्कार
का आभिप्राय है, मूर्तिपूजा का नहीं । इस पर कुछ समय तक शास्त्रार्थ चलता
रहा । श्री गोपाल जी निश्चय करके गये थे कि स्वामी जी को परास्त करेंगे
वह बात न हुई और न मूर्तिपूजन का प्रतिपादन हुआ । इस पर स्वामी जी
की विद्वत्ता की ख्याति और भी नगर में फैल गई और इसका कारण भी श्रीगोपाल
हुए क्योंकि उसने उस समय यघपि अपनी भूल न मानी परन्तु दूसरे दिन पण्डितों
से पूछता फिरता था कि पूजा शब्द कहीं नपुंसक भी होता है या नहीं क्योंकि
मैंने वहां भूल से पूजा नपंुसक लिग् बोल दिया है । पण्डितों ने कहा कि
नहीं, वह तो स्त्रीलिग् होता है ।
इस अवसर पर श्रीगोपाल ने अपनी अपकीर्ति देखकर अपनी सफलता
का यह एक उपाय सोचा कि काशी जाकर स्वामी जी के विरुद्ध मूर्तिपूजा
के पक्ष में व्यवस्थापत्र लाउं और उनको शास्त्रार्थ में इस बहाने से हराने का
यत्न करूं । यह निश्चय कर वे बनारस गये । पं० शालिग्राम जी शास्त्री
मुख्याध्यापक गवर्नमेण्ट कालिज अजमेर वर्णन करते हैं कि जब स्वामी जी
ने फर्रुखाबाद हमारे नगर में आकर मूर्तिपूजा का खण्डन आरम्भ किया तब
पण्डित श्रीगोपाल जी बनारस में हमारे पास आये कि आप फर्रुखाबाद नगर
के रहने वाले हैं । आजकल एक स्वामी दयानन्द नामक वहां आये हैं और
मूर्तिपूजा का खण्डन करते हैं, कृपा करके हमें व्यवस्था ले दीजिये । हमने
उनके लिये प्रमाण लिखने का निश्चय किया परन्तु हमारे गुरु पण्डित राजाराम
शास्त्री ने कहा कि तुम क्यों परिश्रम करते हो । पहले भी एक बार दक्षिण
में मूर्तिखण्डन की चर्चा हुई थी उस समय हमने काशी के पण्डितों के हस्ताक्षर
से एक व्यवस्था लिखी थी उसकी प्रतिलिपि भेज दी । मैंने उसकी प्रतिलिपि
करके काशी के पण्डितों के हस्ताक्षर कराने के पश्चात् उनको दे दी । श्रीगोपाल
जी के कुछ रुपये भी हस्ताक्षर कराने में पण्डितों की भेंट पूजा में व्यय हुए
थे । हमने पहली बार श्रीगोपाल के मुख से ही स्वामी जी का नाम सुना
था । (लेखराम १२१, ५७५)