आत्मा हाड़-मांस से बने इस शरीर में रहना क्यों पसंद करती है?

आत्मा को अविद्या के कारण यह हाड़-मांस का शरीर बहुत अच्छा लगता है। जब उसे समझ में आ जाता है तो उसकी अविद्या दूर होनी शुरु हो जाती है। जब अविद्या दूर हो जाती है तो आत्मा इस शरीर में नहीं रहना चाहती। प्रश्न उठता है कि कहाँ जाना चाहती है? उत्तर यह है, फिर ‘मोक्ष’ में जाना चाहती है।
असंपादकीय टिप्पणी-अठारहवें कठिन प्रश्न और उसके उत्तर को समग्र रूप से समझने के लिए इस संसार में मौजूद शरीर, दौलत, शोहरत, परिधान और कोठी आदि सब चीजों को विद्या-अविद्या के दृष्टिकोण से देखना पड़ेगा। इन्हें विवेकपूर्वक देखने से यह ज्ञात होगा कि-तकरीबन सब के सब लोग इन शरीर, शोहरत आदि चीजों को हासिल करने के पीछे लगे हुए हैं, और इनके पीछे लगने की वजह से इन व्यक्तियों के पीछे दुःख लगा हुआ है। और एक दुःख नहीं, बल्कि एक के पीछे दूसरा, और दूसरे के पीछे तीसरा दुःख लगा हुआ है। आइए, इसे समझेंः-
स पहली बात यह है कि – प्रथम दुःख तो इस ‘अनित्य-संसार’ के ‘अस्थायी’ रहने का ‘दुःख’ है। वस्तुतः यह अपनी हरेक पसंदीदा चीजों के ‘बदलने’ और ‘न रहने का’ दुःख है।
इसके बाद इन ‘अस्थायी-चीजों’ से ‘लगातार’ सुख न मिलने का ‘दुःख’ और लगातार सुख लेने के प्रयास में लगे रहने पर उनसे ‘ऊबने’ का ‘दुःख’ है।
इस दुःख की वजह यह है कि – सभी सांसारिक वस्तुओं से सुख मिलना थोड़ी देर के बाद बन्द हो जाता है। इसके बाद आगे उस वस्तु के सम्पर्क से व्यक्ति ऊबने लगता है। यह तो ‘अनित्यता’ की वजह से सांसारिक वस्तुओं से मिलने वाले दुःख की चर्चा हुई।
स दूसरी बात यह है कि- सभी सांसारिक वस्तुओं को कमाने, उन्हें खर्च करने (भोगने), उनकी रक्षा करने और उनकी बढ़ोत्तरी करने का जो काम किया जाता है, वह मेहनत भी कष्टदायक होती है। ‘मेहनत’ करने से ‘कष्ट’ मिलता है। मेहनत चाहे शारीरिक हो या मानसिक, सबको कष्ट देती है।इसी तरह सांसारिक वस्तुओं की ‘अशु(ता’ के कारण ‘दुःख’ मिलता है। जैसे – मनुष्य शरीर के पसीने, मल आदि से निकली बदबू आदमी को दुःखी कर देती है।
सुखदायक वस्तुओं का भोग करने से राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक ‘क्लेश’ पैदा होते हैं। और उनसे फिर हिंसा, झूठ आदि वितर्क पैदा होते हैं। व्यक्ति इन्हें ‘हितकर’ मानकर ग्रहण करता है।
इन राग, द्वेषादि क्लेशों से और हिंसादि वितर्करें से उसे ‘हानि’ होती है। उस हानि से उसे इस जीवन में ‘दुःख’ मिलता है। साथ ही उनसे जाति, आयु और भोग रूपी ‘दुःख’ भी मिलता है। जाति यानी संसार में ‘जन्म’ लेने से फिर दोबारा आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक ‘दुःख’ मिलता है। यह सारे दुःख संसार की, सांसारिक वस्तुओं की ‘अशु(ता’और ‘अहितकरता’ के कारण से मिलने वाले दुःख हैं।
स तीसरी बात यह है कि – अर्जित किए गए अनित्य और अशु( सांसारिक भोगों में सुख लेने के कारण भोगों में अतृप्ति होती है। इस ‘अतृप्ति’ से ‘दुःख’ महसूस होता है। फिर इस अतृप्ति के कारण उस भोग को और ज्यादा मात्रा में भोगने की इच्छा होती है। उस ‘बढ़ी हुई इच्छा’ की मौजूदगी से भी ‘दुःख’ प्राप्त होता है, और उस बढ़ी हुई इच्छा की ‘पूर्ति न होने से’ भी ‘दुःख’। यह दुःख ‘परिणाम दुःख’ कहलाता है। इन सुखदायक पदार्थों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहने पर भी कई बार उनकी प्राप्ति में कोई न कोई बाधा आ जाती है तो इस ‘अड़ंगे’ के आने पर व्यक्ति ‘दुःखी’ हो जाता है। यह दुःख ‘ताप दुःख’ कहलाता है।
चूँकि सारा संसार अनित्य है, इसलिए संसार की कोई भी चीज चाहे वह सजीव हो या निर्जीव या दूसरे से बने हमारे संबंध, चाहे वे पारिवारिक हों या व्यावसायिक, वे सब के सब स्थायी नहीं हैं। इसलिए हमें जो सुख और सुख-साधन पहली बार मिला, वही आगे भी मिले, यह जरूरी नहीं है। ‘सुख के दोबारा न मिलने’ पर ‘दुःख’ यानी उससे वंचित होने पर फिर दुःख मिलता है। इस प्रकार के दुःख को ‘संस्कार दुःख’ कहते हैं।
एक वस्तु के प्रति परस्पर दो तरह के विचार मन में पैदा होने के कारण, ‘विरोधी विचारों’ की वजह से अर्न्तद्वन्द्व या मतभिन्नता होने से हमें ‘दुःख’ होता है। इसे ‘गुण वृत्ति विरोध’ दुःख कहते हैं। यह तीसरे प्रकार की अविद्या यानी ‘दुःख को सुख मानने’ से प्राप्त होने वाले दुःख हैं।
स चौथी बात यह है कि – जो पत्नी, पुत्र, रिश्तेदार, धन, सम्मान, मकान आदि वस्तुएं हमारी आत्मा का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें अपनी आत्मा का हिस्सा मानकर, उनके नष्ट होने पर व्यक्ति अपने आत्मा को ‘नष्ट’ व ‘लुटा-पिटा’ मानकर ‘दुःखी’ होता रहता है।
इतना ही नहीं, अपने माने गये इन पुत्र आदि संबंधियों के पुत्र, पौत्रों, और उनके पास में मौजूद धन-सम्पत्ति और मान-प्रतिष्ठा आदि को भी वह अपना मानता है। जब उनके पुत्र, धन आदि नष्ट होते हैं तो उनके साधनों को अपने साधन मानने वाला वह व्यक्ति ‘पराए के लुटने’ को अपना लुटना मानकर, ‘दुःख’ मनाता है। यह चौथी अविद्या यानी ‘अनात्मा को आत्मा’ मानने के कारण उत्पन्ना होने वाला दुःख है।
स पाँचवी बात यह है किः- जीवात्मा ‘अविकारी’ यानी ‘अपरिणामी’ होने से उसकी मूल स्थिति में कभी भी कोई ‘बदलाव नहीं’ होता है। आत्मा तो दूर से ही सुख व सुखदायक वस्तु को देखता भर है, उसका ज्ञान-मात्र प्राप्त करता रहता है, पर वह उसे अपने अन्दर बिल्कुल भी नहीं लेता है।
इस प्रकार जो भी सुखदायक वस्तु का हम सेवन कर रहे हैं, वह वस्तु तो ज्ञान-इन्द्रिय तक, और उस वस्तु का ज्ञान केवल बु(ि तक आकर के बाहर ही वहीं पर रुक जायेगा। वहाँ से आत्मा के भीतर जाकर नहीं घुसेगा। आत्मा केवल उसे दूर से देखेगा।
यह जो दूध, घी, मिठाई, फल आदि हम खा रहे हैं। इनका कुछ भी हिस्सा हमारी आत्मा में नहीं जाता है। सुख का कोई
साधन या उससे मिलने वाला सुख आत्मा में कुछ भी संग्रह नहीं होता है। अब चाहे एक किलो दूध पी लो या आधा किलो, एक गुलाबजामुन खा लो या फिर दस खा लो, सुन्दर रूप देख लो, पसंदीदा गाना सुन लो, आत्मा में तो कुछ नहीं घुसने वाला। इनको खाने-देखने से आत्मा जरा भी मोटी-ताजी नहीं होगी।
अगर वह सुखद वस्तु या उसका सुख आत्मा से जुड़ जाता तो आत्मा में सदा आनंद बना रहता, पर वह पदार्थ आत्मा में नहीं घुसता, मिश्रित नहीं होता। यही वजह है कि सुखदायक वस्तु से हमारा सम्पर्क खत्म होते ही उससे मिलने वाला आनंद भी समाप्त हो जाता है।
लौकिक सुख-दुःख, हानि-लाभ जो होते हैं, वे हमारी बु(ि में घटित (चित्रित) हो रहे होते हैं। लेकिन व्यक्ति उसे अपनी आत्मा में घटित मानता है। इसलिए सुखद विषय-वस्तु में मौजूद सारे गुण उसे अपने लगने लगते हैं। इसलिए व्यक्ति जब खीर आदि पदार्थों को खायेगा तो महसूस करेगा कि यह जो खीर वह खा रहा है, वह मेरी आत्मा में प्रविष्ट हो रहा है। वह मानने लगता है कि – इसका सुख मेरे अन्दर यानी मेरी आत्मा के अन्दर पहुँचकर, मेरे अन्दर ही मुझे अनुभव हो रहा है। सोचता है – यह सुख मेरे भीतर ही है। तब वह बु(ि में सुख आया न बोलकर, आत्मा में सुख आया बोलता है। इस प्रकार वह बु(ि के विकार को आत्मा का विकार मान कर झूठ-मूठ सुखी-दुःखी होकर अपनी सारी जिन्दगी बिता देता है।
मरते समय जब शरीर और सुख-साधन छूट कर आत्मा से अलग हो जाते हैं तो उसे पता चलता है कि ”सुख और सुख-साधनों के घटने-बढ़ने से मैं आत्मा छोटा-बड़ा, सुखी-दुःखी नहीं होता हूँ।”
इस प्रकार संसार के चक्कर में पड़कर जीवात्मा सब तरफ से लुट-पिटकर लक्कड़ जैसा हतप्रभ खड़ा रह जाता है, भौंचक्का रह जाता है।
इतनी भूमिका को जानकर आइए, अब अगली शंका को समझने की ओर रुख करें :-

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