नास्तिक तथा जैन मत
नोटजैनियों के आचार्य पूज्यवर आत्माराम जी पञ्चायत सराओगियां,
लुधियाना और ठाकुरदास जी रईस गूजरांवाला ने स्वामी जी महाराज से पत्र
द्वारा कुछ प्रश्न पूछे थे । उन के उत्तर स्वामी जी ने अपने पत्र मिति ६ नवम्बर,
सन् १८८० मन्त्री आर्यसमाज देहरादून के द्वारा आर्यसमाज गूजरांवाला में भिजवा
दिये, जिन्हें १३ नवम्बर, सन् १८८० को प्रधान आर्यसमाज गूजरांवाला ने
प्रश्नकर्त्ताओं के पास भेज दिया । उपप्रधान आर्यसमाज ने प्रश्नकर्त्ताओं को
निम्नलिखित पत्र भी अपनी ओर से लिखा
ट्टट्टश्रीयुत पण्डित आत्माराम जी और ला० ठाकुरदास जी को नमस्ते!
देहरादून से यहां एक पत्र उन प्रश्नों के उत्तर का जो आप सज्जनों ने स्वामी
जी से किये थे, इस प्रयोजन से पहुंचा था कि इसकी एक प्रतिलिपि आपके
पास भेजी जावे, सो प्रतिलिपि आपके समीप भेजी जाती है और यह भी प्रकट
किया जाता है कि इस की एक प्रतिलिपि स्वामी जी की आज्ञानुसार
लुधियाना के श्रावक सज्जनों के पास भी भेजी गई है । मुन्शी प्रभुदयाल जी
से आपको विदित हुआ होगा ।’’
मिति १३ नवम्बर, सन् १८८० नारायणकृष्ण उपप्रधान आर्यसमाज
गूजरांवाला ।
प्रश्नोत्तर
(पूज्यवर आत्माराम जी पञ्चायत सराओगियां लुधियाना और ठाकुरदास जी
रईस गूजरांवाला जैन मतानुयायी सज्जनों के प्रश्नों के उत्तर)
प्रश्नसत्यार्थप्रकाश में जो श्लोक लिखे हैं जैनियों के किस शास्त्र
व ग्रन्थों के हैं ?
उत्तरये सब श्लोक बृहस्पति मतानुयायी चार्वाक जिनके मत का दूसरा
नाम लोकायत है और वे जैन मतानुयायी हैं, उन के मतस्थ शास्त्र व ग्रन्थों
के हैं ?
श्लोकों का भाष्य निम्नलिखित है
(१) ·जब तक जिये सुख से जिये, मृत्यु गुप्त नहीं, भस्म हुए पीछे
शरीर में फिर आना कहां ? (इसी प्रकार इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत अभ्याणक
का मत है ।
(२) अग्निहोत्र, तीन वेद, त्रिपुण्ड्र भस्म लगाना, यह निर्बुद्धि और साहस
रहित लोगों की जीविका बृहस्पति ने रची है ।
(३) अग्नि उष्ण तथा जल शीतल और छूने वाली ठण्डी वायु किसी
ने इनके बनाने वाले को देखा ? ये अपने स्वभाव से ऐसे हैं ।
(४) न स्वर्ग, न नरक, न कोई और मोक्ष, वर्ण और न आश्रम के
काम फलदायक हैं ।
(५) अग्निहोत्र, तीन वेद, त्रिपुण्ड्र, भस्म लगाना, यह निर्बुद्धि तथा
साहसरहित लोगों की जीविका ब्रह्मा ने बनाई है ।
(६) यदि पशु ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारे जाने से स्वर्ग को जाता है तो
यजमान अपने बाप को इस में क्यों नहीं मार डालता ?
· ये श्लोक जो सत्यार्थप्रकाश प्रथमावृत्ति पृष्ठ ४०२, ४०३ पर हैं । ये समस्त
श्लोक स्वामी जी से पहले सर्वशास्त्र—संग्रह में सायणाचार्य ने और उन की टीका में
तारानाथ वाचस्पति ने लिखे हैं, जो जीवानन्द प्रेस में प्रकाशित हो चुके हैं । (देखो
उसका प्रारम्भ) ।
(७) मरे हुए जीवों को यदि श्राद्ध तृप्ति का कारण है तो मार्ग में लोगों
को भोजन जलादि ले जाना व्यर्थ है ।
(८) स्वर्ग में बैठा हुआ यदि दान से तृप्त होता तो कोठे पर बैठा हुआ
क्यों न होता ?
(९) जब तक जिये सुख से जिये, ऋण लेकर घृत पीये, भस्म हुए
पीछे शरीर में फिर आना कहां ?
(१०) यदि शरीर से निकल कर जीव परलोक को जाता है तो
बन्धुओं के प्रेम से फिर लौटकर क्यों नहीं आता ?
(११) यह सब जीवन—निर्वाह का साधन ब्राह्मणों ने बना लिया है।
मरे हुए जीवों की क्रियादि और कुछ नहीं है ।
(१२) घोड़े का लिग् स्त्री ग्रहण करे भांडों ने इस प्रकार की बातें
बना रखी हैं ।
(१३) तीन वेद के बनाने वाले भांड, धूर्त निशाचर हैं और जर्पQरी और
तुर्पQरी शब्द पण्डितों के कल्पित हैं ।
(१४) मांस खाना राक्षसों का काम है ।
इसी प्रकार ये सब श्लोक इस बात को प्रकट कर रहे हैं कि जैन मत
के सम्प्रदायों ने कठोर निन्दा वेद मत की की है और जो कुछ मैंने सत्यार्थप्रकाश
में लिखा है, वह सब ठीक—ठीक है ।
पहले पत्र के उत्तर में ला० ठाकुरदास आदि को लिख भेजा गया
था कि जैन मत की कई शाखाएं हैं । यदि आप प्रत्येक शाखा के मन्त्र सिद्धान्त
जानते होते तो आपको सत्यार्थप्रकाश के लेख में सन्देह कभी न होता । आप
लोगों के प्रश्नों के उत्तर में विलम्ब इसलिए हुआ कि यदि कोई सज्जन सभ्य
विद्वान् जैसा कि श्रेष्ठ पुरुषों को लेख करना चाहिये वैसा करता है तो उसी
समय उत्तर भी लिखा दिया जाता है क्योंकि सभ्यतापूर्वक लेख के उत्तर
में स्वामी जी विलम्ब कभी नहीं करते । देखिये ! अब पञ्चायत सराओगियां
लुधियाना ने योग्य लेख किया तो स्वामी जी ने उत्तर भी शीघ्र लिखवा दिया
और अब भी लिख दिया गया है कि जितने सत्यार्थप्रकाश विषयक आप लोगों
के प्रश्न हों, सब लिखकर भेज दीजिये ताकि सब के उत्तर एक संग लिख
दिये जावें । जैसा स्वामी जी ने लिखवाया था कि आत्माराम जी को जैन
मत वाले शिरोमणि पण्डित गिनते हैं । इनका स्वामी जी का पत्र—लेखानुसार
समागम होता तो सब बातें शीघ्र ही पूरी हो जातीं परन्तु ऐसा न हुआ । और
यह भी शोक की बात है कि हम ने इस विषयक रजिस्टरी चिट्ठी पञ्चायत
सराओगियां लुधियाना को भेजी, उस का उत्तर भी अब तक नहीं मिला न
प्रश्न भेजे । किन्तु जो ठाकुरदास ने एक बात लिख भेजी थी कि यह श्लोक
जैनमत के किस शास्त्र और किस ग्रन्थ के अनुसार है और जो बात करने
के योग्य आत्माराम जी हैं उन का शास्त्रार्थ करने में निषेध लिख भेजा और
ठाकुरदास जी की यह दशा है कि प्रथम चिट्ठी में संस्कृत और भाषा के
लिखने में अनेक दोष लिखे हैं । अब आप लोग धर्म न्याय से विचार लीजिये
कि क्या यह बात ऐसी होनी योग्य है कि जब—जब चिट्ठी ठाकुरदास ने लिखी
तब—तब स्वामी जी के पास और उस में जो बात शिष्ट पुरुषों के लिखने
योग्य न थी, सब लिखी और जो योग्य है अर्थात् आत्माराम जी उस को बात
करने और लिखने वा चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने से अलग रखते हैं और एक
यह कि ठाकुरदास जी से स्वामी जी का सामना कराते हैं क्या ऐसी बात
करनी शिष्टों को योग्य है ? अब अधिक बात करते हो तो आप अपने मत
के किसी योग्य विद्वान् को प्रवृत्त कीजिये कि जिस से हम और आप को
सत्य और झूठ का निश्चय होकर बहुत उत्तम ज्ञान हो सके । बुद्धिमानों के
सामने अधिक लिखना आवश्यक नहीं किन्तु अपनी सज्जनता उदारता, अपक्षता
तथा बुद्धिमत्ता और विद्वत्ता में थोड़े लिखने से बहुत जान लेते हैं ।
मिति कार्तिक सुदि ४, शनिवार, संवत् १९३७ तदनुसार ६ नवम्बर सन् १८८०
कृपाराम मन्त्री, आर्यसमाजदेहरादून
अपने हस्ताक्षरों से आत्माराम जी ने जो प्रश्न भेजे थे१४ नवम्बर सन्
१८८० को उन के नाम स्वामी जी ने यह पत्र भेजा
पूज्यवर आत्माराम जी, ट्टट्टमिति १४ नवम्बर सन् १८८०’’
नमस्ते । पत्र आप का मिति नवम्बर सन् १८८० का लिखा हुआ १०
नवम्बर सन् १८८० को सायंकाल को मेरे पास पहुंचा, देखकर आनन्द हुआ।
अब आपके प्रश्नों का उत्तर विस्तारपूर्वक लिखता हूं ।
(समाचार पत्र ट्टट्टआफताबे पंजाब,’’ १३ दिसम्बर, १८८०)
प्रश्न नं० १सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास १२ पृष्ठ ३९६, पंक्ति १६ में
लिखा है कि जब प्रलय होता है तो पुद्गल जुदी—जुदी हो जाते हैं ऐसा नहीं है।
उत्तरमैंने ठाकुरदास जी के उत्तर में एक पत्र आर्यसमाज गूजरांवाला
के द्वारा भेजा था, जो आपके पास भी पहुंचा होगा । उस में यह बतलाया
गया है कि जैन और बौद्ध दोनों एक ही हैं चाहे उन को बौद्ध कहो चाहे
जैन कहो । कुछ स्थानों में महावीरादि तीर्थटरों को बुद्ध और बौद्धादि शब्दों
से पुकारते हैं और कई स्थानों पर जिन, जैन, जिनवर, जिनेन्द्रादि नामों से
बोलते हैं । जिन को चार्वाक बुद्ध की शाखाओं में कहते हैं उन्हें लोग बुद्ध,
स्वयं बुद्ध और चारबोधादि कहते हैं । आप अपने ग्रन्थों में देख लीजिये (ग्रन्थ
विवेकसार, पृष्ठ ६५, पंक्ति १३) बिध, बोधयह एक सिद्ध अनेक सिद्ध
भगवान् हैं । (पृष्ठ ११३, पंक्ति ७)
चारबुद्ध की कथा (पृष्ठ १३७, पंक्ति ८) प्रत्येक बुद्ध की कथा (पृष्ठ
१३८, पंक्ति २१) स्वयं बुद्ध की कथा । (पृष्ठ १५२, पंक्ति १४)
चार बुद्ध समकाल मोक्ष को गये । इसी प्रकार और भी आपके ग्रन्थों
से कथा स्पष्ट विघमान है जिनको आप या और कोई जैन श्रावक विरुद्ध
न कह सकेंगे ।
और ठाकुरदास जी पहली चिट्ठी में (उन श्लोकों के साथ जो मैंने
इस से पहले पत्र में लिखकर आपके पास भिजवाये हैं) आप लोग कई श्लोक
स्वीकार भी कर चुके हैं । उस चिट्ठी की प्रतिलिपि मेरठ में है और आप
के पास भी होगी । कल्पभाष्य भूमिका (जिस में राजा शिवप्रसाद जी ने अपने
जैनमतस्थ पितादि पूर्व पुरुषों की परम्परा का वृत्तान्त लिखा है, उन की साक्षी
भी लिख भेजी और इतिहासमितिर नाशक खण्ड ३, पृष्ठ ८, पंक्ति २१ से
लेकर पृष्ठ ९ की पंक्ति ३२ तक) स्पष्ट लिखा है कि जैन और बौद्ध एक
ही के नाम हैं ।
कई स्थानों पर महावीरादि तीर्थटरों को बौद्ध कहते हैं, उन्हीं को आप
लोग जैन और जिनादि कहते हैं । अब रहे बौद्ध की शाखाओं के भेद जो
चार्वाक अभ्याणकादि हैं । जैसा कि आप के यहां श्वेताम्बर, दिगम्बर, ढूंढिया
आदि शाखाओं के भेद हैं कि उन में कोई शून्यवाद, कोई क्षणिक, कोई जगत्
को नित्य मानने वाला, कोई अनित्य मानने वाला, कोई स्वभाव से जगत् की
उत्पत्ति और प्रलय मानते हैं और कोई आत्मा को पांच तत्त्वों (पृथिवी, जल,
अग्नि, वायु और उनके मेल से) बनी हुई मानते हैं और उस का नाश हो
जाना भी मानते हैं । (देखो रत्नावली ग्रन्थ, पृष्ठ ३२, पंक्ति १३ से लेकर
पृष्ठ ४३, पंक्ति १० तक) कि उस स्थान पर सब जगत् की उत्पत्ति स्थिति
और प्रलय ही लिखा है या नहीं ।
इसी प्रकार चार्वाकादि भी कई शाखावाले जिस को आप पुद्गल कहते
हैं, उस को अलूदादि नाम से लिखते हैं और उन के आपस में मिलने से
जगत् की उत्पत्ति और अलग होने से प्रलय होना ही मानते हैं और वे जैन
और बौद्ध से पृथक नहीं हैं प्रत्युत जैसे पौराणिक मत में रामानुजादि वैष्णवों
की शाखा और पाशुपतादि श्ौवों की और वाममार्गियों की दस महदायास
शाखाएं, और ईसाइयों में रोमन कैथोलिक आदि और मुसलमानों में शिया
और सुन्नी आदि शाखाओं के कतिपय भेद हैं और इतने पर भी वेद और
बाईबिल और कुरान के सम्प्रदाय में वे एक ही समझे जाते हैं । वैसे ही आप
के अर्थात् जैन और बौद्ध मत की शाखाओं के भेद यघपि अलग—अलग लिखे
जा सकते हैं परन्तु जैन या बौद्ध मत में एक ही हैं ।
आपने बौद्ध अर्थात् जैन मत के प्रत्येक सम्प्रदाय के तन्त्र सिद्धान्त अर्थात्
भेद वर्णन करने वाले ग्रन्थ देखे होते तो सत्यार्थप्रकाश में जो लेख उत्पत्ति
और प्रलय के विषय में है उस पर शटा कभी न करते ।
प्रश्न नं० २सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ३९७, पंक्ति २४
(प्रश्न) ट्टट्टमनुष्यादिकों को ज्ञान है, ज्ञान से वे अपराध करते हैं, इस
से उन को पीड़ा देना कुछ अपराध नहीं’’यह बात जैनमत में नहीं ।
उत्तरग्रन्थ विवेकसार में पृष्ठ २२८, पंक्ति १० से लेकर पंक्ति १५
तक देख लीजिये, क्या लिखा है अर्थात् गणाभ्योग और स्वजनादि समुद्री की
आज्ञा जैसे विष्णुकुमार ने कुछ की आज्ञा से बौद्धरूप रचना करके निमिची
नाम पुरोहित को कि वह जिन का विरोधी था, लात मारकर सातवें नरक
में भेजा और ऐसी ही और बातें ।
प्रश्न नं० ३सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ३९९, पंक्ति ३ । और उस के ऊपर
(अर्थात् पद्मशिला पर) बैठ के चराचर का देखना ।
उत्तरपुस्तक रत्नसार भाग पृष्ठ २३, पंक्ति १३ से लेकर पृष्ठ २४
पंक्ति २४ तक देख लीजिये कि वहां महावीर और गौतम की पारस्परिक चर्चा
में क्या लिखा है ।
प्रश्न नं० ४सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०१, पंक्ति २३ । और उनके मत में
न हुए वे श्रेष्ठ भी हुए तो भी उस की सेवा अर्थात् जल तक भी नहीं देते ।
उत्तरपुस्तक विवेकसार पृष्ठ २२१, पंक्ति ३ से लेकर पंक्ति ८ तक
लिखा है, देख लीजिये कि अन्य मत की प्रशंसा या उन का गुणकीर्तन, नमस्कार
प्रणाम करना या उन से कम बोलना या अधिक बोलना या उन को बैठने
के लिए आसनादि देना या उन को खाने—पीने की वस्तु, सुगन्ध, फूल देना
या अन्य मत की मूर्ति के लिए चन्दन पुष्पादि देना, ये छः बातें नहीं करनी
चाहियें ।
प्रश्न नं० ५सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०१, पंक्ति २७ । किन्तु साधु जब आता
तब जैनी लोग उस की दाढ़ी मूंछ और सिर के बाल सब नोच लेते हैं ।
उत्तरग्रन्थकल्प भाष्य पृष्ठ १०८, पंक्ति ४ से लेकर ९ तक देख लीजिये
और प्रत्येक ग्रन्थ में दीक्षा के समय (अर्थात् चेला बनाने के समय) पांच
मुट्ठी बाल नोचना लिखा है । यह काम अपने हाथ से अर्थात् चेले या गुरु
के हाथ से होता है और अधिकतर ढूंढियों में है ।
प्रश्न नं० ६सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०२, पंक्ति २० से लेकर जो श्लोक
जैनियों के बनाये लिखे हैं वे जैनमत के नहीं ।
उत्तरमैं इस का उत्तर इस से पहले पत्र में लिख चुका हूं (मिति कार्तिक
सुदि ४, शनिवार) । आपके पास पहुंचा होगा, देख लीजिये ।
प्रश्न नं० ७सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४०३, पंक्ति ११ । अर्थ और काम
दोनों पदार्थ मानते हैं ।
उत्तरयह मत जैनधर्म से सम्बन्धित सम्प्रदाय चार्वाक का है जिस ने
ऐसे—ऐसे श्लोक कि जब तक जिये, सुख से जिये, मृत्यु गुप्त नहीं, भस्म
होकर शरीर में फिर आना नहीं आदि आदि अपने मत के बना लिये हैं। इसी
प्रकार नीति और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ और काम दो ही पदार्थ पुरुषार्थ
और विधि से माने गये हैं ।
यहां संक्षेप से आपके प्रश्नों का उत्तर दिया गया है क्योंकि पत्रों के
द्वारा पूरी व्याख्या नहीं हो सकती थी । जब कभी मेरा और आपका समागम
होवे तब आप को मैं ग्रन्थों के प्रमाण और युक्तियों के साथ ठीक—ठीक निश्चय
करा सकता हूं । आप को और भी जो कुछ सन्देह सत्यार्थप्रकाश के १२वें
समुल्लास में होवें (मेरठ आर्यसमाज के द्वारा) लिखकर भेज दीजिये । सब
का ठीक उत्तर दे दिया जावेगा । अब मैं यहां थोड़े दिन तक रहूंगा और यदि
आप अम्बाला तक आ सकें तो मिति १७ नवम्बर, सन् १८८० तक प्रातः
आठ बजे से पहले—पहले देहरादून में और उसके पश्चात् आगरे में मुझ को
तार द्वारा सूचना देनी चाहिये कि मैं आप से शास्त्रार्थ अर्थात् पारस्परिक बातचीत
के लिए वहां पहुंच सवूंQ । बुद्धिमान् व्यक्ति के लिए इतना ही पर्याप्त है,
अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं । मिति कार्तिक सुदि १३ रविवार, संवत्
१९३७ । हस्ताक्षर दयानन्द सरस्वती (देहरादून)
फिर पं० आत्माराम जी पूज ने ८ माघ, संवत् १९३७ तदनुसार १९
जनवरी, सन् १८८१ को एक पत्र स्वामी जी के पास भेजा । जिस में कुछ
बातों को माना और कई बातों पर फिर आक्षेप किये । स्वामी जी ने उस
का उत्तर भेजा ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का दूसरा पत्र
मिति २१ जनवरी, सन् १८८१
आनन्द विजय आत्माराम जी !
नमस्ते । आपका पत्र ८ माघ का लिखा हुआ मेरे पास पहुंचा । लिखित
वृत्तान्त विदित हुआ । मेरे प्रश्नों के उत्तर में जो आपने लिखा है कि बौद्ध
और जैन एक मत के नाम मानने से हमारी कुछ मानहानि नहीं, इस
को पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । यही सज्जनों का काम है कि सत्य को
मानें और असत्य को न मानें परन्तु यह बात जो आपने लिखी है कि
ट्टट्टयोगाचारादि चार सम्प्रदाय जैन बौद्ध मत के हैं सो वह बौद्धमत जैनमत से
एक पृथक शास्त्र का है।’’ इस का उत्तर मैं आपके पास भेज चुका हूं कि
मत में शाखाओं का भेद थोड़ी बातें पृथक होने से होता है परन्तु मत की
दृष्टि से शाखाएं एक ही मत की होती हैं । देखिये कि उन ही नास्तिकों
में चार्वाकादि नास्तिक हैं। और जो आप उन का इतिहास और जीवनचरित्र
पूछते हैं, सो उस का उत्तर भी मैं दे चुका हूं अर्थात् इतिहास—तिमिरनाशक
के तीसरे अध्याय में देख लीजिये ।
और आप जिन बौद्धों को अपने मत से पृथक कहते हैं, वे आप के
सम्पद्राय से चाहे पृथक हों परन्तु मत की दृष्टि से कदापि पृथक नहीं
हो सकते । जैसे कई जैनी उदाहरणार्थ श्वेताम्बर दूसरे जैनियों जैसे समवेगी
साधुओं पर आक्षेप करके उन्हें पृथक और नया मानते हैं । यह प्रकटरूप
से ट्टट्टहोवेक’’ नामक पुस्तक में लिखा है । इसी प्रकार से आप लोगों ने उन
पर बहुत से आक्षेप करके उनके मत में संयुक्त निर्णय पुस्तक लिखी है फिर
भी इस से वह और आप बौद्ध या जैनमत से अलग नहीं हो सकते ।
और न कोई विद्वान् उनके धार्मिक सिद्धान्तों की दृष्टि से उन्हें अलग मान
सकता है । उनकी समस्याओं में भेद तो अवश्य होगा ।
आपके इस वचन से कि ट्टइस में क्या आश्चर्य है कि महावीर तीर्थटर
के समय में चार्वाक मत था, उन से पीछे नहीं हुआ ।’’ इस से मुझ को
आश्चर्य हुआ । क्या जो महावीर तीर्थटर के पहले २३ तीर्थटर हुए उन सब
के पहले चार्वाक—मत को आप सिद्ध नहीं कर सकते । यदि किसी प्रकार
का सन्देह आपके लिए हो तो प्रश्नकर्त्ता पूछ सकता है कि ऋषभदेव भी
चार्वाक—मत से चले हैं ? फिर आप उस के उत्तर में क्या कह सकते हैं।
क्या चार्वाक १५ जातियों में से एक जाति का भी नहीं है ? और उस में
एक सिद्ध और मुक्त नहीं हुआ ? क्या वे आपके सिद्धान्तों और पुस्तकों
से अलग हो सकते हैं ?
इसके अतिरिक्त आपने भी अपने लेख में बौद्धमत को अपने मत में
स्वीकार कर लिया है क्योंकि करकण्डा आदि को आपने बौद्ध माना है और
मैंने भी अपने पहले पत्र में जैन और बौद्ध के एकमत होने का लिखित
प्रमाण दे दिया है फिर आप का पुनः पूछना निरर्थक और निष्प्रयोजन है ।
जिस अवस्था में स्वयं वादी की साक्षी से मुकदमा ठीक सिद्ध हो जाता है
तो फिर न्यायाधीश को अन्य पुरुषों की साक्षी लेनी आवश्यक नहीं होती ।
भला जिस की कई पीढि़यां जैनमत में चली आई हों अर्थात् राजा शिवप्रसाद
की साक्षी को और वर्तमान काल में जो यूरोपियन लोग बड़े परिश्रम से इतिहास
बनाते हैं उन की साक्षी को आप गलत कह सकते हैं कि जिन्होंने अपने
इतिहासों में बौद्ध और जैन को एक ही लिखा है और साथ ही यह भी लिखा
है कि कुछ बातें आर्यों की और कुछ बौद्धों की लेकर जैनमत बना है ।
दूसरे प्रश्न के बारे में जो आपने लिखा है, वह नमूची नास्तिक जैनमत
का अहितचिन्तक साधुओं को निकालने और कष्ट देने वाला था, उस को
मार कर सातवें नरक में भेजा गया । यह लेख आपने सत्यार्थप्रकाश के लेख
के उत्तर में नहीं समझा । विचार कीजिये कि वह नमूची जैनमत का शत्रु
था, इसलिए मारा गया तो क्या उस ने जानबूझ कर पाप नहीं किया था ।
कितने खेद की बात है कि आप सीधी बात को भी उलटा समझ गये ।
तीसरे प्रश्न के उत्तर में जो आपने प्राकृत भाषा का एक श्लोक लिखा
है परन्तु उसके अर्थ स्वयं नहीं लिखे, केवल मेरे पर उस का समझना छोड़
दिया । उस का यह अभिप्राय होगा कि मैं उसके अर्थ तक नहीं पहुंच सवूंQगा।
हां मैं कुछ सब देशों की भाषा नहीं जानता हूं, केवल कुछ देशों की भाषा
और संस्कृत जानता हूं परन्तु मतों और उनकी शाखाओं तथा सम्प्रदायों के
सिद्धान्त अपनी विघा और बुद्धि और विद्वानों की सग्ति के प्रभाव से जानता
हूं । आप और आप लोगों के पथप्रदर्शकों ने ऐसी भाषा बिगाड़ कर
अपनी भाषा बना ली है जैसे धर्म का धम्म आदि । जिनका मत बौद्धिक
तथा लिखित युक्तियों से सिद्ध नहीं हो सकता, वे ऐसे—ऐसे अप्रसिद्ध शब्द
बना लेते हैं ताकि कोई दूसरा उस को समझ न सके । जैसे मघ का नाम
तीर्थ, मांस का नाम पुष्पादि बना लिया है ताकि उन के अतिरिक्त कोई दूसरा
न जान ले । जो राजा लोग न्यायकारी होते हैं वे तो मार्ग ऐसे सीधे बनाते
हैं कि अन्धा भी निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच जाये परन्तु उन के विरोधी मार्गों
को इस प्रकार बिगाड़ते हैं कि कोई परिश्रम से भी चल न सके । आप पुस्तक
रत्नसार भाग’’ को विश्वसनीय नहीं समझते तो क्या हुआ, बहुत से श्रावक
और जैन लोग उसको सच्चा मानते हैं ।
देखिये आप ऐसे विद्वान् होकर ट्टमूर्ख’ को ट्टमूर्रा’ लिखते हैं, और पत्र
में लिखित शब्दों के ठीक करने में बहुत सी हड़ताल भी लपेटते हैं । कैसे
शोक की बात है कि संस्कृत तो दूर रही, देशी भाषा भी आप लोग नहीं
जानते परन्तु इस लेख के स्थान पर यह लिखना उचित था कि आपकी भूल
का कुछ नहीं क्योंकि मनुष्य प्रायः भूल किया ही करता है ।
चौथे प्रश्न के उत्तर में जो कुछ आपने लिखा है, वह बहुत चकित
करने वाला है । विघा प्राप्ति की इच्छा मनुष्य वहां प्रकट कर सकता है जहां
अपने से अधिक किसी विद्वान् को देखता है । मैंने भी उन्हीं विद्वानों से शिक्षा
पाई है जो मुझ से अधिक बुद्धिमान् तथा विद्वान् थे । आप भी कदाचित् इस
को स्वीकार करते होंगे । क्या आप लोग अन्य मत के विद्वानों को विद्वान्
न समझकर शिष्य के विचार से और मोक्ष के परिणाम का ध्यान रखकर
किसी विपरीत प्रयोजन की प्राप्ति की इच्छा से दान करते हो । क्या ये बातें
अविद्वानों की नहीं हैं कि अपने मत और उस के साधुओं के बड़प्पन का
ध्यान रखना और अन्य मत के विद्वानों के विषय में उस के विपरीत चलना।
ये अच्छे लोगों की बातें नहीं हैं । निश्चयपूर्वक समस्त सृष्टि में से अच्छे
को अच्छा और बुरे को बुरा मानना अन्वेषकों, धर्मात्माओं का काम है और
उस को ही हम मानते हैं और उचित है कि आप भी इस को स्वीकार करें।
मेरे लेख का अभिप्राय ठीक—ठीक आप उस समय समझेंगे जब कि मेरी और
आपकी भेंट होगी । मेरी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश के लेख से कोई मनुष्य यह
परिणाम नहीं निकाल सकता कि जैनमत के लोगों को चिरकाल तक कष्ट
देना और दान न देना और जैनमत बेईमानी की जड़ है । प्रत्युत यह सिद्ध
है कि ट्टअच्छे और ईमानदार लोगों और अनाथों की सहायता करना और बुरे
लोगों को समझाना ।’
परन्तु इन छः निषेधों का कलट आपको ऐसा लिपट गया है कि जब
ईश्वर की दया हो और आप लोग पक्षपात को छोड़कर यत्न करें तब धोया
जा सकता है अन्यथा कदापि नहीं ।
भला यह जब प्रकट रूप में लिखा है कि अन्य मत की प्रशंसा न
करना और दूसरों को रोटी और पानी न देना तो फिर आप उस को अशुद्ध
क्योंकर कर सकते हैं । ये बातें आपके हजारों ग्रन्थों में लिखी हुई हैं और
आप लोग इस को समझ लें कि मुझे ऐसा स्वप्न में विचार नहीं आया है।
हां जो आप लोग कुछ भी विचार कर देखें तो उन का छोड़ देना ही धर्म
है, आगे आपकी इच्छा ।
पांचवें प्रश्न का उत्तरउसके विषय में जो आपने लिखा है उससे मेरे
उत्तर का खण्डन नहीं हो सकता क्योंकि जब बालों के नोचने का प्रमाण
आपकी पुस्तकों में लिखा है, और मैंने उसके उद्धरण से सिद्ध कर दिया।
फिर भला कहीं दार्शनिक युक्तियों का आश्रय लेने से उस बात का अस्वीकार
हो सकता है, कदापि नहीं ।
छठे प्रश्न के उत्तर मेंजब मैं यह सिद्ध कर चुका हूं कि जैन और
बौद्ध जिस मत का नाम है, उसी की शाखा चार्वाकादि हैं फिर यह कैसे
अशुद्ध हो सकता है ।
जो आप जैन लोगों के ग्रन्थों में हमारे धर्म के विषय में लिखा है,
और जिस का हमारी धार्मिक पुस्तकों में कहीं वर्णन नहीं पाया जाता और
इस से हमारे धर्म का अपमान टपकता है । इसलिए आप जैन लोगों से पूछा
जाता है कि लौटती डाक से शीघ्र उत्तर दें कि वे बातें हमारी किन धार्मिक
पुस्तकों में लिखी हुई हैं । ज्ञात रहे कि जिस व्याख्या और ठीक—ठीक पता
दिन मान के साथ पृष्ठ व पंक्त्यादि के उद्धरण सहित मैंने आपके प्रश्नों का
उत्तर दिया है । इसी प्रकार आप भी उत्तर दें अन्यथा आप सज्जनों की बड़ी
हानि होगी। इस बात को आप केवल विहग्म दृष्टि से न देखें, प्रत्युत एक
प्रकार की सावधानता दृष्टिगत रखें ताकि यह लम्बी न हो जावे । उत्तर भेजने
में शीघ्रता करने से कल्याण है ।
ट्टजैनियों के विवेकसार ग्रन्थ के लेख पर कुछ शटाएं’
पहली शटाविवेकसार, पृष्ठ १०, पंक्ति १ में लिखा है कि श्री कृष्ण
तीसरे नरक को गया ।
दूसरी शटाविवेकसार, पृष्ठ ४०, पंक्ति ८ से १० तक लिखा है कि
हरिहर, ब्रह्मा, महादेव, राम, कृष्णादि कामी, क्रोधी, अज्ञानी, स्त्रियों के दूषी,
पाषाण की नौका के समान आप डूबते और सब को डुबाने वाले हैं ।
तीसरी शटाविवेकसार, पृष्ठ २२४, पंक्ति ९ से पृष्ठ २२५ की पंक्ति
१५ तक लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादि सब अदेवता और अपूज्य हैं।
चौथी शटाविवेकसार, पृष्ठ ५५, पंक्ति १२ में लिखा है कि गगादि
तीर्थों और काशी आदि क्षेत्रों से कुछ परमार्थ सिद्ध नहीं होता ।
पांचवीं शटाविवेकसार, पृष्ठ १३८, पंक्ति ३० में लिखा है कि जैन
का साधु भ्रष्ट भी हो तो भी अन्य मत के साधुओं से उत्तम है ।
छठी शटाविवेकसार, पृष्ठ १, पंक्ति १ से लेकर कहा है कि जैनों
में बौद्धादि शाखाएं हैं । इस से सिद्ध हुआ कि जैनमत के अन्तर्गत बौद्धादि
सब शाखाएं हैं । हस्ताक्षर स्वामी दयानन्द सरस्वती, आगरा
मिति माघ बदि ६, शुक्रवार, संवत् १९३७ तदनुसार २१ जनवरी, सन् १८८१
उधर स्वामी जी तो अपने योग्य पण्डित आत्माराम जी के प्रश्नों का
खण्डन लिख रहे थे और आत्माराम जी भी अपने प्रश्न लिखकर जो स्वामी
जी ने उन का उत्तर लिखा था, उस का उत्तर तैयार कर रहे थे कि ठाकुरदास
ने बीच में अपनी हानि समझ और अपनी प्रसिद्धि कम होती जानकर स्वामी
जी के नाम २२ नवम्बर, सन् १८८० को एक नोटिस जारी कर दिया।
जिस में प्रथम तो समस्त पिछले पत्रव्यवहार का अपने विचार के अनुसार
सार था और अन्त में ये असभ्यतापूर्ण शब्द लिखे थे
ट्टट्टयदि आप की अब भी क्षमा मांगने की इच्छा हो तो शीघ्र मांग लो
परन्तु पीछे से यह न कहना कि जैनियों में दया और क्षमा नहीं । अब भी
यदि आप अपना क्षमा—पत्र भेज दें तो आप पीछे से निर्लज्जता उठाने की
आपत्ति से बच सकते हैं, नहीं तो आप को अधिकार है । आप की आज्ञानुसार
हम ने अम्बाला, लुधियाना इत्यादिक स्थानों के बहुत से जैनों को इस काम
में अपने साथ मिला लिया है जो अपना—अपना नोटिस भी आप को देंगे और
आप ने चिट्ठी—पत्री भेजने में ही इतने छल किये हैं कि इस में भी आप
पकड़े जायेंगे क्या आप झूठ लिख—लिखकर औरों को धोखे में फंसाते और
मेरा नाम बदनाम करते हैं । आप स्मरण रखिये कि आप के ये सब कपट
न्यायालय में प्रकट किये जावेंगे और उस का यथायोग्य दण्ड भी आप को
दिलाया जावेगा । इस पत्र का उत्तर चाहे आप भेजें या न भेजें, यह आप
की इच्छा है ।’’
परन्तु यह नोटिस वापस आ गया । स्वामी जी को न पहुंचा क्योंकि
हमारे चालाक ला० ठाकुरदास ने उसे न तो देहरादून भेजा और न आगरा
प्रत्युत अम्बाले भेजा । इसलिए अवश्य वापस आना ही था क्योंकि पता अशुद्ध
था । यघपि आर्यसमाज गूजरांवाला ने भी उन को ठीक—ठीक पता बतला
दिया था । (देखो ट्टआर्य—समाचार’ पृष्ठ ३७३, खण्ड २, संख्या २३) और
यदि न भी बतलाते तो स्वामी जी के पत्र से भी आत्माराम जी और उन को
विदित था कि वे १७ नवम्बर के पश्चात् आगरा जायेंगे और उन का वहां
जाना और उपदेश करना प्रत्युत शास्त्रार्थ करना नसीम’ आगरा और भारती
विलास’ में प्रकाशित हो चुका था । इसलिए यह जान बूझ कर चालाकी
थी या अनपढ़ होने के कारण आगरा का अम्बाला स्मरण रखा । धन्य है।
फिर ला० ठाकुरदास ने २१ दिसम्बर, सन् १८८१ को फारसी अक्षरों
में एक नोटिस लिखा और समाजों के नाम भेजा जिस का विषय यह था
कि ट्टहमारे प्रश्न का उत्तर स्वामी जी के पास नहीं है इस से स्वामी जी छुपकर
बैठे हैं तो आप उन का ठांव ठिकाना बता दो । इसके उत्तर में आर्यसमाज
की ओर से एक नोटिस जारी हुआ जिस के शीर्षक में यह शेर लिखा
गया था
ट्टगर न वीनद बरोज शपर्रा चश्म ।
चश्मये आफताब रा च गुनाह ।।’
अर्थात् यदि दिन के समय में अन्धे को न दिखाई दे तो इस में सूर्य
का क्या दोष है ।
इस में उस की समस्त बातों का उत्तर और स्वामी जी का पता भी
लिखा हुआ था । (देखो समाचार, पृष्ठ ३३७, बुधवार) परन्तु ठाकुरदास चूंकि
स्वयं पढ़ा हुआ नहीं है और कुछ ख्याति का भी इच्छुक है उस को विज्ञापन
में भी पता न मिला अर्थात् न पढ़ सका ।
ट्टउन्मत्त अपने काम में चतुर होता है इस कहावत के अनुसार उसने
१२ जनवरी को एक पत्र आर्यसमाज गूजरांवाला के नाम भेजा जिसमें लिखा
था किट्टस्वामी जी के साथ सत्यासत्य का निर्णय करने के लिए हम २०—२३
जनवरी तक अम्बाला में इकट्ठे होंगे । तुम स्वामी दयानन्द जी को अम्बाला
भेजो ।
परन्तु स्वामी जी के लेखानुसार न तो आत्माराम जी ने उन को लिखा
और न तार दिया और न आत्माराम जी शास्त्रार्थ के लिए उघत हुए और
न ठाकुरदास के अतिरिक्त किसी और विघाप्रेमी जैन ने स्वामी जी को लिखा।
इसलिए वहां कोई शास्त्रार्थ न हुआ क्योंकि आत्माराम जी शास्त्रार्थ से और
फिर स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ करने से अत्यन्त जी चुराते और घबराते
थे । (दिग्विजयार्वQ पृ० २६—३१, लेखराम पृष्ठ ६५०—६८०)