(पं० हलधर ओझा मैथिल से फर्रुखाबाद में शास्त्रार्थ१९ जून, १८६९)
जेठ शुदि दशमी, शनिवार, संवत् १९२६ तदनुसार १९ जून, सन् १८६९
रात्रि को आठ बजे के समय ला० प्रेमदास तथा देवीदास साहूकार, पण्डित
उमादत्त, पण्डित पीताम्बरदास, पण्डित रामसहाय शास्त्री, पण्डित गौरीशटर,
पण्डित ललिताप्रसाद, पण्डित गणेश शुक्ल, पण्डित चरनामल शुक्ल, पण्डित
माधवाचार्य, पण्डित बृजकिशोर, ला० जगन्नाथप्रसाद, पण्डित दिनेशराम,
पण्डित बिहारीदत्त सनाढ्य, पण्डित गगदत्त पुरोहित, पण्डित हलधर ओझा
को साथ लेकर नगर के बाहर गगतट पर स्वामी जी के निवास—स्थान पर
गये । लाला जगन्नाथप्रसाद रईस फर्रुखाबाद ने आगे बढ़कर स्वामी जी को
सूचना दी । (उस समय स्वामी जी पूर्वाभिमुख बैठे हुए खर्बूजा खा रहे थे।)
कि महाराज हलधर आया है । स्वामी जी ने उनकी ओर से दृष्टि नीचे कर
ली और खर्बूजा छोड़ दिया और फिर सिर उठाकर कहा कि आने दो । उक्त
लाला साहब नीचे आकर उनको ले गए । हलधर ने जाकर प्रणाम किया।
स्वामी जी ने उत्तर में कहाअरे हलधर आनन्द है ?
…. हलधर आनन्दो जातः ?’’
उसने कहा महाराज आनन्द है ।
यह पहले निश्चय हो गया कि शास्त्रार्थ मूर्तिपूजा पर हो परन्तु मूर्तिपूजा
पर आरम्भ होते ही बात सुरापान पर जा पड़ी क्योंकि यह हलधर तान्त्रिक
पण्डित था जो मांस—मघ खाता—पीता था और उसे उचित समझता था । मैथिल
ब्राह्मण प्रायः तान्त्रिक होते हैं और मांस—मघ खाते—पीते हैं । हलधर ने प्रमाण
दिया
ट्टट्टसौत्रामण्यां सुरां पिबेत् ।’’
अर्थात्सौत्रामणि यज्ञ में सुरा पीनी चाहिये । स्वामी जी ने कहा कि
सुरा शब्द से अच्छे फल की रसरूप औषधि का वर्णन है, मघ का नहीं ।
मघ अर्थ करने वालों का अच्छी तरह खण्डन किया और कहा कि इसका
अर्थ यह है कि सौत्रामणि यज्ञ में सोमरस अर्थात् सोमवल्ली का रस पीवे।
फिर हलधर ने स्वामी जी से संन्यासी के लक्षण पूछे । स्वामी जी
ने सब लक्षण बतला दिये । तत्पश्चात् स्वामी जी ने हलधर से पूछा कि आप
ब्राह्मण के लक्षण कहें । परन्तु वह उससे न बन सका और संस्कृत में गड़बड़
करने लगा । तब स्वामी जी ने कहा कि हलधर ट्टट्टभाषायां वद, भाषायां वद’’
अर्थात् भाषा में बात कर, भाषा में बात कर । इस पर वह बहुत घबरा गया
और प्रकरण छोड़कर दूसरी ओर जाने लगा । तब स्वामी जी ने कहा कि
हे हलधर ! प्रकरण छोड़कर मत जाओ, प्रकरण पर रहो ।
ट्टट्टभो हलधर प्रकरणं विहाय मा गच्छ ।’’ हलधर ने इसका उत्तर दिया
ट्टट्टअहं तु न प्रकरणं विहाय गच्छामि परन्तु श्रीमान् पुनः पुनः प्रकरणमभिनयते,
प्रकरणशब्दस्य कथं सिद्धिः’’ ?
अर्थात् मैं तो प्रकरण छोड़कर नहीं जाता परन्तु आप बार—बार प्रकरण
शब्द कहते हैं । बतलाइये प्रकरण शब्द किस प्रकार सिद्ध होता है ?
स्वामी जीट्टट्टप्रपूर्वात् कृधातोर्ल्युट् प्रत्यये कृते सति प्रकरणशब्दस्य
सिद्धिर्भवति’’ अर्थात् ….’’ धातु से …..’’ प्रत्यय करने से प्रकरण शब्द
सिद्ध होता है ।
हलधरट्टट्टकृ धातुः समर्थो भवति किं वाऽसमर्थो भवति’’ अर्थात् ….’
धातु समर्थ होती है या असमर्थ ?
स्वामी जीट्टट्टसमर्थो भवति । समर्थः पदविधिः’’ अर्थात् …..’ धातु
समर्थ होती है और इस सूत्र में समर्थ—पदविधि है जितने पद प्रसिद्ध होते
हैं ।
हलधरयह तो कहिये कि समर्थ किस को कहते हैं और असमर्थ
किस को कहते हैं ?
स्वामी जीट्टसापेक्षोऽसमर्थो भवति’ अर्थात् अपेक्षा करने वाला असमर्थ
होता है । यह महाभाष्य का वाक्य है ।
हलधरयह वाक्य महाभाष्य में नहीं लिखा हैयह तो केवल आपकी
संस्कृत है ।
स्वामी जी बृजकिशोर पण्डित से बोले कि दूसरे अध्याय का पहला
अंक महाभाष्य का निकालिये । जब निकाला और देखा गया तो वही बात
निकली जो स्वामी जी कहते थे ।
अन्त में निरुत्तर होकर हलधर ओझा ने कहा कि महाभाष्यकार भी
पण्डित है और मैं भी पण्डित हूं । मैं क्या उससे कम हूं ।
स्वामी जी ने कहा कितुम तो उसके बाल के समान भी नहीं
हो । यदि हो तो कहो कि कल्म संज्ञा किस की है ?
हलधर इसका कुछ उत्तर न दे सके । जब हलधर से कुछ उत्तर न
बन सका तब स्वामी जी ने कहा कि महाभाष्य में ट्टट्टअकथितं च’’ इस सूत्र
को देख लो कि कल्म संज्ञा कर्म की है । इस पर सब लोग जान गये कि
हलधर ओझा की कितनी विघा है । इसी प्रकार शास्त्रार्थ व्याकरण पर होते—होते
एक बजे रात का समय हो गया । अन्त में यह निश्चय पाया कि ट्टट्टसमर्थः
पदविधिः’’यह सूत्र यदि सर्वत्र लगे तो हलधर जी की हार हो गई और
यदि एक स्थान पर लगे तो स्वामी जी की । यह निश्चय होने से सब लोग
हलधर सहित चले आये ।
ला० जगन्नाथप्रसाद तथा पण्डित मुन्नीलाल जी ने कहा कि हम और
सब पण्डित लोग एक साथ ही चले जाते थे । मार्ग में सब पण्डितों ने कहा
किस्वामी जी ने बड़ा हठ किया क्योंकि यह केवल सूत्र में लगता है, सर्वत्र
नहीं लगता । चूंकि हम स्वामी जी के हितचिन्तक थे इसलिये प्रातःकाल हम
दोनों स्वामी जी के पास गये । वह एकादशी का दिन था । हमने स्वामी
जी से अलग जाकर कहा कि महाराज ! अब यहां तक ही रहने दो । उन्होंने
कहा कि क्यों ? हमने कहा किरात को सब पण्डित कहते थे कि ट्टट्टसमर्थः
पदविधिः।’’ यह सूत्र केवल सूत्र में ही लगता है, सर्वत्र नहीं । अभी न हमारी
हार है और न उनकी । यदि बात बनी रहे तो अच्छा है। तब स्वामी जी ने
क्रोध करके कहा कि गोवध का पाप तुझे है यदि उसे न लावे और गोवध
का पाप उसे है यदि वह न आवे । तब हमारा मुंह बिगड़ गया और हमने
जान लिया कि स्वामी जी अपनी खोज तथा सत्य पर बड़े दृढ़ हैं अतः
हम चले आये ।
उस दूसरी रात के लिये दरियों का प्रबन्ध हो गया था परन्तु स्वामी
जी चटाई पर ही बैठे रहे । आठ बजे रात के सब एकत्रित हुएरात चांदनी
थी । कुशल क्षेम पूछकर बैठ गये । सब के सामने स्वामी जी ने कहा कि
भाई कल हमारा तुम्हारा किस बात पर शास्त्रार्थ था । क्या इसी बात पर था
या नहीं कि यदि केवल सूत्र पर लगे तो हमारी पराजय और यदि सर्वत्र लगे
तो तेरी पराजय । वह मौन रहा परन्तु पीताम्बरदास ने कहा कि हां महाराज!
कल यही बात निश्चित हुई थी जिसे सब पण्डितों ने स्वीकार किया । इस
रात शास्त्रार्थ आरम्भ होने से पहले यह ज्ञात हुआ कि कुछ लोगों का विचार
कोलाहल करने का है इसलिये सब को सुनाकर कह दिया गया कि
जिस किसी को स्वामी जी से बात करने की इच्छा हो वह अकेला—अकेला
करे । यदि कोई बीच में बोलेगा तो उठा दिया जायेगा । पण्डितों के अतिरिक्त
जो और लोग थे उनको कहा गया कि आप लोग यहां से उठकर नीचे चबूतरे
पर सुनें । इस पर गौरीशटर कशमीरी ब्राह्मण क्रोधित होकर अपने घर को
चला गया और उसी दिन से स्वामी जी के विरुद्ध हो गया ।
शास्त्रार्थ आरम्भ होने से पहले स्वामी जी ने हलधर से कहा कि
हलधर तू अभी नवीन पढ़कर आया है और गृहस्थी है । तू अब यदि समझ
ले कि मेरी हार हो गई तो कुछ हानि नहीं परन्तु तुम्हारी हार होने में तेरी
हानि है । हलधर ने इस बात की कुछ परवाह न की और उसी हठ पर अड़ा
रहा । तब स्वामी जी ने पं० व्रजकिशोर को आवाज दी कि व्रजकिशोर !
महाभाष्य लाओ । दीपक भी पास मंगा लिया । महाभाष्य खोलकर इस
सूत्र को सब के सामने सर्वत्र लगा दिया । जिस पर हलधर बिल्कुल मौन
हो गया । पण्डित लोग और बातें करने लगे स्वामी जी ने कहा कि नहीं
जिस बात पर हमारा शास्त्रार्थ हुआ है पहले उसका निर्णय कर दो कि किसकी
हार हुई । तब सब चुप हो गये । ला० जगन्नाथप्रसाद जी ने कहा कि जो
बात हो वह सच—सच कह दो तब सब ने स्वीकार किया कि कल यही ठहरी
थी किट्टट्टसमर्थः पदविधिः।’’यह सूत्र सर्वत्र लगता है या एक स्थान
पर । जो बात कल हलधर ने कही थी वह अशुद्ध सिद्ध हुई । इतना सुनकर
हलधर निश्चेष्ट सा हो गया और दुःख से गिरने लगा । उसके साथियों ने
उसे संभाल लिया । उस रात को पहली रात से बहुत अधिक मनुष्य थे ।
अन्ततः हलधर को पराजित होने के पश्चात् लोग उठा ले गये । शेष पण्डित
भी चले गये । केवल पण्डित पीताम्बरदास, उमादत्त, रामसहाय शास्त्री,
मुन्नीलाल तथा ला० जगन्नाथप्रसाद जी बैठे रहे । रात एकादशी की थी ।
कुछ पुण्योपार्जन के विचार से और कुछ सत्योपदेश के लिये वहां रात भर
जागते रहे । आज भी एक बजे तक शास्त्रार्थ होता रहा ।
फिर उसी रात को स्वामी जी का पण्डित उमादत्त जी से मित्रतापूर्वक
वार्तालाप हुआ । बीच में पण्डित रामसहाय जी बोलने लगे । स्वामी जी ने
उन्हें कहा कि आप बूढ़े हैं, शास्त्रार्थ में अपमान हो जाता है, आप सुनते रहें
जिस पर वह बुद्धिमानी से फिर मौन रहे । प्रातःकाल सब गगस्नान करके
अपने घर को चले गये और उनके चले जाने के पश्चात् विना किसी को
सूचना दिये स्वामी जी भी कानपुर की ओर चले गये ।
(लेखराम पृ० ५८३—५८६)