किस कार्य के लिए कौन योग्य है?-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः नारायणः । देवता राजा । छन्दः स्वराड् अतिशक्वरी । ब्रह्मणे ब्राह्मणं क्षत्राय राज़न्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूद्रं तमसे तस्करं नारकार्य वीरहण पाप्मने क्लीबमाक्रयायऽ अयोगू कामय पूँश्चलूमतिक्रुष्टाय माग्धम् ॥ -यजु० ३०.५ है राजन् ! आप ( ब्रह्मणे ) वेद, ईश्वर और विज्ञान के प्रचार के लिए ( ब्राह्मणं ) वेदेश्वरविज्ञानविद् ब्राह्मण को, ( क्षत्राय ) राज्यसञ्चालन के लिए तथा आपत्ति से रक्षा के लिए ( राजन्यं) क्षत्रिय को, ( मरुद्भ्यः२) वृष्टिजन्य कृषिकर्मऔर पशुपालन के लिए ( वैश्यं ) वैश्य को, ( तपसे ) सेवारूप तप के लिए (शूद्रं ) शूद्र को, ( तमसे ) अन्धकार में काम करने के लिए ( तस्करं ) चोर को, (नारकाय ) नरक के कष्ट के लिए … Continue reading किस कार्य के लिए कौन योग्य है?-रामनाथ विद्यालंकार→
आदित्य पुरुष -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः उत्तरनारायणः । देवता आदित्यपुरुषः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् । श्रीश्चंते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनी व्यात्तम्। इष्णन्निषाणामुं मऽइषाण सर्वलोकं मऽइषाण। – यजु० ३१.२२ हे आदित्य परमेश्वर ! ( श्रीः च लक्ष्मीः च ) श्री और लक्ष्मी ( ते पल्यौ ) मानो तेरी सहचरियाँ हैं, ( अहोरात्रे ) दिन-रात ( पाश्र्वे ) मानो पाश्र्ववर्ती अनुचर हैं, (नक्षत्राणिरूपम् ) नक्षत्र मानो तेरे रूप को सूचित करते हैं। (इष्णन् ) मैं इच्छुक हूँ, अतः (इषाण) तू मुझे दे। ( अमुं मे इषाण ) वह मुक्तिलोक मुझे दे, (सर्वलोकंमेइषाण) सकल लोक, सकल लोक का ऐश्वर्य मुझे प्रदान कर। ध्यान से देखो, आदित्य तो जड़ वस्तु है, उसके अन्दर एक चेतन पुरुष बैठा दिखायी दे रहा है, जो उसका … Continue reading आदित्य पुरुष -रामनाथ विद्यालंकार→
परम पुरुष को प्रसन्न और प्रत्यक्ष स्वरुप-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः नारायणः । देवता पुरुषः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहार्भवत्पुनः। ततो विष्वङ् व्यूक्रामत्साशनाननेऽअभि॥ -यजु० ३१.४ परम पुरुष परमेश्वर ( त्रिपाद्) तीन पादों से, तीन चतुर्थांशों से ( ऊर्ध्वः उदैत् ) संसार से ऊपर उठा हुआ है, लोकातिक्रान्त है, ( इह पुनः ) इस संसार में तो (अस्यपादःअभवत् ) इसका, इसकी महिमा का एक पाद अर्थात् चतुर्थाश ही विद्यमान है। ( ततः ) उसी एक पाद से ( विष्व ) विविध लोकों में गया हुआ वह (साशनानशने अधि) भोग भोगनेवाले चेतन प्राणी-जगत् में और भोग-रहित अचेतन जगत् में (व्यकामत) अभिव्याप्त है। मैं भी पुरुष हूँ और मेरा भगवान् भी पुरुष है। अन्तर केवल इतना है कि मैं तो विशेषणरहित केवल … Continue reading परम पुरुष को प्रसन्न और प्रत्यक्ष स्वरुप-रामनाथ विद्यालंकार→
एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः स्वयंभु ब्रह्म। देवता परमात्मा। छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः ।। -यजु० ३२.१ ( तद् एव ) वही परमात्मा ( अग्निः ) अग्नि कहाता है, ( तद् आदित्यः ) वही आदित्य कहाता है, ( तद् वायुः ) वही वायु कहाता है, ( तद् उ ) वही ( चन्द्रमाः) चन्द्रमा कहाता है। ( तद् एव शुक्रं ) वही शुक्र, ( तद् ब्रह्म ) वही ब्रह्म, ( ता: आपः ) वही आपः, ( स प्रजापतिः ) और वही प्रजापति कहाता है। | वेद में अनेक देवों का वर्णन देख कर बहुदेवतावाद की शङ्का होती है। अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, पूषा, त्वष्टा आदि नानी देवों की चर्चा तथा उनकी … Continue reading एक के अनेक नाम-रामनाथ विद्यालंकार→
प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः स्वयम्भु ब्रह्म। देवता परमात्मा । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् । वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्। तस्मिन्नूिद सं च वि चैति सर्वः सऽओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु॥ -यजु० ३२.८ ( वेनः ) इच्छुक, पूजक, मेधावी मनुष्य ही ( तत् गुहा निहितं सत् ) उस गुहा में निहित अर्थात् गुह्य परब्रह्म परमेश्वर को ( वेद ) जानता है, ( यत्र ) जिसमें ( विश्वं ) ब्रह्माण्ड ( एकनीडं भवति ) एक घोंसले में निहित के समान होता है। ( तस्मिन् ) उस परमेश्वर के अन्दर ( इदं सर्वं ) यह सकल विश्व ( सम् एति ) प्रलयकाल में समा जाता है, और ( वि एति च ) सृष्टिकाल में उससे पृथक् हो जाता है। ( सः विभूः ) वह … Continue reading प्रभु-दर्शन -रामनाथ विद्यालंकार→
गन्धर्व विद्वान् ही गुह्य ब्रह्म का प्रवचन कर सकता है -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः स्वयंभु ब्रह्म। देवता विद्वान् । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् । प्र तद्वोचेदमृतं नु विद्वान् गन्धर्वो धाम विभृतं गुहा सत्। त्रीणि पदानि निहित गुहास्य यस्तानि वेद स पितुः पितासंत्॥ -यजु० ३२.९ | (गन्धर्वः१ विद्वान् ) वेदवाणी को अपने अन्दर धारण करनेवाला विद्वान् ही (गुहानिहितं ) गुहा में रखे हुए अर्थात् गुह्य ( तत् अमृतं ) उस अमर ( धाम ) मुक्तिधाम परमेश्वर का ( नु) निश्चयपूर्वक ( प्रवचेत् ) प्रवचन कर सकता है। ( अस्य ) इस परमेश्वर के ( त्रीणि पदानि ) तीन पद ( गुहा निहितानि ) गुहा में निहित अर्थात् गुह्य हैं। ( यः तानि वेद ) जो उन्हें जान लेता है, अनुभव कर लेता … Continue reading गन्धर्व विद्वान् ही गुह्य ब्रह्म का प्रवचन कर सकता है -रामनाथ विद्यालंकार→
युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः त्रिशोकः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री। बृहन्निदिध्मएषां भूरिशस्तं पृथुः स्वरुः । येषामिन्द्रो युवा सखा । –यजु० ३३.२४ | (एषां ) इनका ( बृहन् इत् ) विशाल ही ( इध्मः ) ईंधन होता है, ( भूरि ) बहुत ( शस्तं ) यश होता है, और ( पृथुः ) विस्तीर्ण ( स्वरुः ) खड्ग होता है, ( येषां ) जिनका (युवाइन्द्रः ) युवा इन्द्र (सखा ) सखा बन जाता है। कोई मनुष्य कैसा है इसकी पहचान इससे होती है कि उसके मित्र कैसे हैं, उसका मेल-मिलाप कैसे लोगों के साथ है। एक बार कोई व्यक्ति हत्या के सन्देह में पकड़ा गया। वह प्रतिदिन एक साधु के यहाँ सत्सङ्ग में जाता था। … Continue reading युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार→
मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः मेधाकाम: । देवता सदसस्पतिः परमेश्वर: ।। छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री । सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधार्मयासिष8 स्वाहा ॥ -यजु० ३२.१३ ( अद्भुतं ) आश्चर्यजनक गुण-कर्म-स्वभाववाले, (इन्द्रस्य प्रियं ) जीवात्मा के प्रिय, (काम्यं ) चाहने योग्य ( सदसः पतिं ) ब्रह्माण्डरूप तथा शरीररूप सदन के अधिपति परमेश्वर से मैं ( सनिं ) सत्यासत्य का संविभाग करनेवाली ( मेधां) मेधा ( अयासिषं ) माँगता हूँ। ( स्वाहा ) यह मेरी प्रार्थना पूर्ण हो । मेधा धारणवती बुद्धि को कहते हैं, जिससे एक बार सुन लेने पर या पढ़ लेने पर सुना-पढ़ा हुआ स्मरण रहता है। ऐसी बुद्धि मैं भी पाना चाहता हूँ। किन्तु, किस दुकान से खरीदें? नहीं, यह किसी दुकान पर मोल नहीं मिलती है। यह … Continue reading मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार→
सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः कुत्सः । देवता सूर्य: । छन्दः आर्षी त्रिष्टप् । तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तावित सं जभार। यदेदयुक्त हुरितः सधस्थदाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै । -यजु० ३३.३७ ( तत् सूर्यस्य देवत्वं ) वह सूर्य का देवत्व है, ( तत् महित्वं ) वह महत्त्व है कि (कर्ते:मध्या’ ) क्रियमाण कर्मों के मध्य में ही ( विततं ) फैले हुए रश्मिजाल को (संजभार ) समेट लेता है। ( यदा इत् ) जब ही सूर्य ( सधस्थात् ) आकाश मण्डप से ( हरित:४) किरणों को ( अयुक्त ) अन्यत्र जोड़ता है, (आत् ) उसके अनन्तर ही (रात्री) रात्रि ( सिममै ) सबके लिए ( वासः तनुते ) अपने अन्धकाररूप वस्त्र को फैलाती है। किसी बूढ़ी माँ ने आँगन की … Continue reading सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार→
राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः कण्वः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् । प्रेतु ब्रह्मणस्पतिः प्रदेव्येतु सूनृत अच्छा वीरं न परिधिसं देवा यज्ञं नंयन्तु नः॥ -यजु० ३३.८९ ( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( ब्रह्मणः पतिः ) महान् राष्ट्र का पालक सम्राट्, ( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( देवी सूनृता ) शुभ गुणों से देदीप्यमान सत्यमधुरभाषिणी महारानी। ( देवाः ) विद्वान् लोग (नः यज्ञम् अच्छ) हमारे राष्ट्रयज्ञ में ( नर्यम् ) परुषाथी, ( पहिराधसम) पंक्तियों के सेवक (वीर) वीर को (नयन्तु ) प्राप्त कराएँ। हम अपने राष्ट्र को महान् बनाना चाहते हैं। उसके लिए वेद का सन्देश है कि सम्राट्, प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति को ‘ब्रह्मणस्पति’ होना चाहिए। ब्रह्मन् शब्द निघण्टु में … Continue reading राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार→