आत्मा की अमरता और मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः विराड् आर्षी जगती । न वाऽऽएतन्प्रिंयसेन रिष्यसि देवाँर ॥ऽइदेषि पृथिभिः सुगेभिः। यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥ -यजु० २३.१६ हे आत्मन् ! ( न वै उ एतत् ) न ही निश्चय से यह तू ( म्रियसे ) मरता है, (न रिष्यसि ) न तेरी हिंसा होती है। | ( सुगेभिः पथिभिः) सुगम योगमार्गों से (देवान्इत्एषि) दिव्यताओं को ही प्राप्त करता है। ( यत्र आसते ) जहाँ स्थित । हैं ( सुकृतः ) सुकर्मा जन, ( यत्र ते ययुः ) जहाँ वे गये हैं। ( तत्र ) उस मुक्तिलोक में (त्वा) तुझे (देवःसविता) प्रकाशक जगदुत्पादक परमेश्वर ( दधातु ) रखे। हे मेरे … Continue reading आत्मा की अमरता और मुक्ति का मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार→
चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः प्रजापतिः । देवता आचार्यब्रह्मचारिणौ ।। छन्दः स्वराड् आर्षी अनुष्टुप् । ताऽउभौ चतुरः पदः सम्प्रसारयाव स्वर्गे लोके प्रोवाथां वृषा वजी रेतो धा रेतों दधातु ॥ -यजु० २३.२० ( तौ उभौ ) वे हम दोनों आचार्य और ब्रह्मचारी ( चतुरः पदः ) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पैरों को ( सम्प्रसारयाव) फैलायें। हे आचार्य और ब्रह्मचारी ! तुम दोनों (स्वर्गे लोके ) ब्रह्मचर्याश्रम रूप स्वर्ग लोक में (प्रोर्णवाथां) एक-दूसरे को आच्छादित करो। हे ब्रह्मचारिन् । ( वृषा) विद्या का वर्षक ( वाजी ) विद्या-बल से युक्त ( रेतोधाः ) विद्या एवं ब्रह्मचर्य रूप वीर्य का आधानकर्ता आचार्य (रेतः दधातु ) तुझमें विद्या एवं ब्रह्मचर्यरूप वीर्य का आधान करे। हे ब्रह्मचारिन् ! तू मुझ आचार्य के आचार्यत्व … Continue reading चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार→
वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः प्रजापतिः। देवता परमात्मा आचार्यश्च । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । दधिक्राव्णोऽअकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।। सुरभि नो मुखा करत्प्र णूऽआयूछषि तारिषत् ॥ -यजु० २३.३२ हमने ( दधिक्राव्णः ) धारण करनेवाले तथा आगे बढानेवाले, (जिष्णोः ) विजयशील, ( अश्वस्य ) व्यापक ज्ञानवाले, ( वाजिनः ) बलवान् परमेश्वर तथा आचार्य की (अकारिषम् ) स्तुति की है। वह ( नः मुखा) हमारे मुखों को ( सुरभि ) सुगन्धित (करत् ) करे, और (नः आयूंषि ) हमारी आयुओं को ( प्रतारिषत् ) बढ़ाये ।। आओ, दधिक्रावा वाजी ‘अश्व’ की स्तुति करें। वह हमारे मुखों को सुरभित करेगा और हमारी आयुओं को बढ़ायेगा। क्या कहा? दधिक्रावन्, वाजिन् और अश्व ये तीनों तो घोड़े के पर्यायवाची नाम है। घोड़ा … Continue reading वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार→
बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गोतमः। देवता यज्ञः । छन्दः निवृद् जगती। एष छार्गः पुरोऽअश्वेन वाजिन पूष्णो भूगो नीयते विश्वदेव्यः। अभिप्रियं यत्पुरोडाशमर्वता त्वष्टेदेनसौश्रवसाय जिन्वति ॥ -यजु० २५.२६ (एषः ) यह (विश्वदेव्यः१) सब इन्द्रियों का हितकर्ता ( छागः२) विवेचक मन (वाजिनाअश्वेन) बलवान् कर्म फलभोक्ता जीवात्मा के साथ ( पूष्णः भागः ) पोषक परमेश्वर का भक्त बनकर उसके प्रति ( नीयते ) ले जाया जा रहा है। ( अर्वता ) पुरुषार्थी जीवात्मा के साथ ( अभिप्रियं) परमेश्वर को प्रसन्न करनेवाले ( पुरोडाशं ) हविरूप ( यत् ) जिस मन को और ( एनं ) इस जीवात्मा को ( त्वष्टा ) सृष्टिकर्ता परमेश्वर ( इत् ) निश्चय ही ( सौश्रवसाय ) उत्तम यश के लिए (जिन्वति) तृप्त करता है। आओ, बकरे … Continue reading बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार→
परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गोतमः। देवता विश्वेदेवाः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् । ये वजिने परिपश्यन्ति पक्वं यऽईमाहुः सुरभिर्निर्हरेति । ये चार्वतो मासभिक्षामुपासतऽउतो तेषामभिगूर्हिर्नऽइन्वतु ।। -यजु० २५.३५ ( ये ) जो विद्वान् लोग ( वाजिनं ) बलवान् ब्रह्मचारी को ( पक्वं ) विद्या और सदाचार से परिपक्व ( परिपश्यन्ति ) देखते हैं, और ( ये ) जो ( ईम् ) इसके विषय में (आहुः ) कहते हैं कि यह ( सुरभिः ) पाण्डित्य और सदाचार से सुरभित हो गया है, हे आचार्यवर ! ( निर्हर इति ) अब इसका समावर्तन संस्कार करके समाजसेवा के लिए इसे गुरुकुल से बाहर निकालिये, ( ये च ) और जो ( अर्वतः१) क्रियाशील उस ब्रह्मचारी के (मांसभिक्षाम् उपासते ) मांसल शरीर … Continue reading परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार→
महेन्द्र जगदीश्वर -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वसिष्ठः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी जगती । महाँ२॥ऽइन्द्रो वज्रहस्तः षोडशी शर्म यच्छतु। हन्तु पाप्मानं योऽस्मान्द्वेष्टि उपयामगृहीतोऽसि महेन्द्राय त्वैष ते योनिर्महेन्द्राय त्वा॥ -यजु० २६.१० ( महान् ) महान् है ( इन्द्रः ) परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर, ( वज्रहस्तः ) वज्र अर्थात् दण्डशक्ति उसके हाथ में है, ( षोडशी ) सोलहों कलाओंवाला अर्थात् पूर्ण है। वह हमें ( शर्म यच्छतु ) सुख देवे। ( हन्तु) विनष्ट करे ( पाप्मानं ) पाप को, (यःअस्मान्द्वेष्टि) जो पाप हमसे द्वेष करता है। हे मेरे आत्मन् ! (उपयामगृहीतःअसि) तूने यम, नियम आदि व्रत ग्रहण किये हुए हैं, ( महेन्द्राय त्वा ) मैं तुझे महेन्द्र के अर्पित करता हूँ। (एष ते योनिः ) यह महेन्द्र तेरा शरणगृह है। (महेन्द्राय त्वा ) … Continue reading महेन्द्र जगदीश्वर -रामनाथ विद्यालंकार→
राजस्थान के ग्राम की बात है। एक अग्रवाल वैश्य पुत्रहीन था। उसे किसी ने कहा कि भैरव जी को भैंसा भेंट करो अर्थात् उसकी बलि दो। भैरव प्रसन्न होकर तुम्हें पुत्र देंगे। सौभाग्य से उसे पुत्र प्राप्ति हो गयी। अब भैरव को उसकी भेंट (भैंसे की बलि) कैसे दें , अहिंसक वैश्य , उसने एक तरकीब सोची। एक भैंसा खरीदा और मोटे रस्से से बांध कर भैरव मूर्ति के पास लाया। उसे उसने भैरव की मूर्ति से बांधा और बोला- भैरव बाबा मैं तो अहिंसक बनिया हूँ , आप की बलि प्रस्तुत है, यथा इच्छा इसका उपयोग करें। वह तो चला गया और भैंसे ने अपने को बंधन से छुटाने के लिए जोर लगाया तो रस्से से बंधी मूर्ति उखड़ … Continue reading मूर्तिपूजा : एक हास्य कथा→
धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः महीयवः । देवता ईश्वरः । छन्दः विराड् आर्षी गायत्री। एना विश्वान्युर्यऽआ द्युम्ननि मानुषाणाम्। सिषासन्तो वनामहे -यजु० २६.१८ ( अर्यः) ईश्वर ने ( मानुषाणां ) मनुष्यों के ( एना विश्वानि द्युम्नानि ) इन सब धनों को ( आ ) प्राप्त कराया है। हम उन्हें (सिषासन्तः१) दान करना चाहते हुए (वनामहे ) सेवन करें। ‘अर्य’ शब्द के दो अर्थ होते हैं, ईश्वर (स्वामी) और वैश्य । ईश्वर अर्थ में यह अन्तोदात्त होता है और वैश्य अर्थ में आद्युदात्त ।’ यहाँ अन्तोदात्त होने से ईश्वर अर्थ है। ‘द्युम्न’ शब्द निघण्टु में धनवाचक शब्दों में पठित है। दीप्त्यर्थक द्युत धातु से इसकी निष्पत्ति होती है। जगत् में धन भरे पड़े हैं। सोना, चाँदी, हीरे, गन्धक, कोयले, नमक … Continue reading धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार→
यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः अग्निः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । सं चेध्यस्वग्नेि प्र चे बोधयैनमुच्च तिष्ठ महुते सौभगाय। मा च रिषदुपसत्ता तेअग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु माऽन्ये॥ -यजु० २७.२ ( अग्ने ) हे यज्ञाग्नि ! (सम् इध्यस्व च ) तू समिद्ध भी हो ( प्रबोधय च एनम् ) और इस यजमान को प्रबुद्ध भी कर। ( उत् तिष्ठ च ) ऊँचा स्थित हो ( महते सौभगाय ) हमारे महान् सौभाग्य के लिए। (अग्ने ) हे यज्ञाग्नि! ( मा च रिषत् ) हिंसा न करे ( ते उपसत्ता) तेरे समीप बैठनेवाला यजमान। ( ते ब्रह्माणः ) तेरे ब्राह्मण पुरोहित, यजमान आदि (यशसः सन्तु ) यशस्वी हों, ( मा अन्ये ) अन्य अयाज्ञिक जन यशस्वी न … Continue reading यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार→