जीवन में मधु, विद्या, यश श्री हो -रामनाथ विद्यालंकार

जीवन में मधु, विद्या, यश श्री हो -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषि: विदर्भ: । देवता अश्विसरस्वतीन्द्राः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । अश्विना भेषजं मधु भेषजं नुः सरस्वती ।। इन्द्रे त्वष्टा यशः श्रियरूपश्रूपमधुः सुते॥ -यजु० २० | ६४ ( अश्विना ) प्राणापानों ने ( भेषजं मधु ) मधुरूप औषध प्रदान की है, (भेषजंनःसरस्वती ) वेदमाता सरस्वती ने वेदार्थरूप औषध प्रदान की है। ( त्वष्टा ) जगत्स्रष्टा प्रभु ने ( इन्द्रे ) जीवात्मा में ( यशः श्रियम्) यश और श्री दी है। इस प्रकार उक्त सब देवों ने (सते ) जीवन-यज्ञ में ( रूपम रूपम् ) तरह-तरह का रूप (अधुः१) रख दिया है। हमारे जीवन में जो सरलता, सरसता, समस्वरता, यश, श्री आदि है, वह हमने विभिन्न देवों से प्राप्त की है। अश्वियुगल  के … Continue reading जीवन में मधु, विद्या, यश श्री हो -रामनाथ विद्यालंकार

प्रजननशक्ति-वर्धक हवि -रामनाथ विद्यालंकार

प्रजननशक्ति-वर्धक हवि -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः वैखानसः । देवता अग्नि: । छन्दः निवृद् अष्टिः। इदं हविः प्रजननं मेऽअस्तु दशवीरश्सर्वगणस्वस्तये। आत्मसनि.प्रजासनि पशुसनि लोकुसन्यभयसनि। अग्निः प्रजां बहुलां में करोत्वन्नं पयो रेतोऽअस्मासु धत्त॥ -यजु० १९४८ ( इहं हविः ) यह हवि ( मे ) मेरे लिए (प्रजननम् अस्तु ) प्रजननशक्ति देनेवाली हो, तथा ( सर्वगणं ) सब अङ्गों को पुष्ट करनेवाली हो। यह (आत्मसनि) आत्मिक शक्ति को देनेवाली, ( प्रजासनि) सन्तान देनेवाली, (पशुसनि) पशु देनेवाली, ( लोकसनि) लौकिक सुख देनेवाली और ( अभयसनि ) अभय देनेवाली हो। ( अग्निः ) हवि ग्रहण करनेवाला यज्ञाग्नि ( मे ) मेरे लिए ( बहुलां प्रजां करोतु ) बहुत सन्तान देवे । हे ऋत्विजो ! तुम ( अन्नं ) अन्न, ( पयः ) दूध और ( रेतः ) … Continue reading प्रजननशक्ति-वर्धक हवि -रामनाथ विद्यालंकार

मातृभूमि का आह्वान -रामनाथ विद्यालंकार

मातृभूमि का आह्वान -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः वामदेवः । देवता अदितिः। छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । महीमू षु मातरसुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम। तुविक्षत्रामजन्तीमुरूची सुशर्माणूमदितिसुप्रणतिम्॥ -यजु० २१.५ आओ, ( महीं ) महिमान्विता, ( सुव्रतानां मातरम् ) शुभ व्रतों की माता, (ऋतस्यपत्नीं) सत्य की पालयित्री, ( तुविक्षत्रां’ ) बहुत क्षात्रबलवाली, ( अजरन्तीं ) जीर्ण न होनेवाली, ( उरूच ) बहुत प्रगतिशील, (सुशर्माणं ) सुन्दर भवनोंवाली, बहुत सुख देनेवाली, ( सुप्रणीतिम्) शुभ प्रकृष्ट नीतिवाली (अदितिं ) खण्डित न होनेवाली मातृभूमि को ( अवसे) रक्षा के लिए ( हुवेम) पुकारें। मैं अपनी मातृभूमि को पुकारता हूँ, राष्ट्रभूमि का आह्वान करता हूँ। कैसा प्यारा शब्द है ‘मातृभूमि’! आनन्दमग्न हो जाता हूँ इसे याद करके जब कभी विदेश से स्वदेश को आता हूँ, तब विमान से मातृभूमि पर उतरते … Continue reading मातृभूमि का आह्वान -रामनाथ विद्यालंकार

जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार

जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः । देवता अग्न्यादयः छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् । समिद्धोऽअग्निः समिधा सुसमिद्धो वरेण्यः। गायत्री छन्दऽइन्द्रियं त्र्यविनॊर्वयों दधुः ॥ -यजु० २१.१२ | ( समिधा समिद्धः अग्निः ) ईंधन से संदीप्त अग्नि, ( सुसमिद्धः१ वरेण्यः’) अत्यन्त संदीप्त वरणीय सूर्य, ( गायत्रीछन्दः) गायत्री छन्द, (इन्द्रियं ) अन्तरिन्द्रिय मन, (त्र्यविः। गौः२) शरीर, मन, आत्मा तीनों का रक्षक वेदगायक परमेश्वर, ये सब (वयःदधुः ) जीवन को धारते हैं। मानव माता के गर्भ से उत्पन्न होने के पश्चात् यथासमय माता-पिता से, गुरुजनों से, मित्रों से, सन्तों से, महात्माओं से शिक्षासूत्र, जीवन, जागृति, सन्देश प्राप्त करता हुआ सुयोग्य बनता है। यदि उसे अकेला छोड़ दिया जाए तो वह भेड़िये से पाले गये मानव-शिशु के समान पशुतुल्य ही रहता है। शिक्षा, जीवन, जागृति देने … Continue reading जीवनदायक तत्व-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः । देवता अग्न्यश्वीन्द्रसरस्वत्याद्या लिङ्गोक्ताः ।। छन्दः निवृद् अष्टिः। होता यक्षसमिधाग्निमिडस्पदेऽश्विनेन्द्रसरस्वतीमजो धूम्रो न गोधूमैः कुवलैर्भेषजं मधु शर्यैर्न तेजऽइन्द्रियं पयः सोमः परित्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतंर्यज।। -यजु० २१.२९ ( होता ) हवनकर्ता (इडस्पदे ) यज्ञवेदि में ( समिधा ) समिधा द्वारा (अग्निं ) अग्नि को, (अश्विना ) अश्वियुगल को ( इन्द्रं ) इन्द्र को ( सरस्वतीं ) सरस्वती को ( यक्षत् ) हवन करे। (अजः ) अजशृङ्गी ओषधि, ( धूम्रः न ) और धुमैला गूगल (गोधूमैः ) गेहुओं के साथ और ( कुवलैः ) बेरों के साथ मिलकर ( भेषजं ) औषध होती है। ( शष्पैः न ) अंकुरित धानों के साथ ( मधु) मधुयष्टि, ( तेजः ) तेजपत्र, ( इन्द्रियं ) इन्द्रायण ओषधि, ( पयः … Continue reading यज्ञ सामग्री -रामनाथ विद्यालंकार

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार

अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः प्रजापतिः । देवता अश्वः । छन्दः भुरिग् विकृतिः । विभूर्मात्रा प्रभूः पित्राश्वोऽसिहयोऽस्यत्योऽसि मयोऽस्यवसि सशिरसि वयसि वृषसि नृमणऽअसि।ययुर्नामऽसि शिशुर्ना मास्यादित्यानां पत्वान्विहि देवाऽआशापालाऽएतं देवेभ्योऽश्वं मेधाय प्रोक्षितश्रक्षतेह रन्तिरिह रमतामिह धृतिरह स्वधृतिः स्वाहा ॥ -यजु० २२.१९ हे अश्वमेध के घोड़े! तू (विभूः ) व्यापक बलवाला है। ( मात्रा) माता पृथिवी से, (प्रभूः ) सामर्थ्यवान् है ( पित्रा ) पिता सूर्य से। (अश्वः असि ) तू अश्व है, ( हयः असि ) हय है, (अत्यः असि) अत्य है, (मयः असि ) मय है, (अर्वा असि ) अर्वा है, ( सप्तिः असि ) सप्ति है, (वाजी असि) वाजी है, (वृषा असि) वृषा है, (नृमणाः असि) नृमणाः है, (ययुः नाम असि ) ययु नामवाला है, ( शिशुः नाम असि ) शिशु … Continue reading अश्वमेध का घोड़ा -रामनाथ विद्यालंकार

स्वर्ग की साधना -रामनाथ विद्यालंकार

स्वर्ग की साधना -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः प्रजापतिः। देवता यज्ञः । छन्दः भुरिग् आर्षी उष्णिक्। एकस्मै स्वाहा द्वाभ्यश्चस्वाहा शताय स्वाहैकशताय स्वाहा व्युयै स्वाहा स्वर्गाय स्वाहा।। -यजु० २२.३४  ( एकस्मै ) एक परमेश्वर की प्राप्ति के लिए ( स्वाहा ) स्तुति, प्रार्थना, उपासना और पुरुषार्थ करो। ( द्वाभ्यां ) मन और जीवात्मा दोनों की शुद्धि के लिए ( स्वाहा ) स्तुति, प्रार्थना, उपासना और पुरुषार्थ करो। ( शताय ) शतवर्ष की आयु प्राप्त करने के लिए (स्वाहा ) पुरुषार्थ करो। ( एकशताय) एक सौ एक प्रणवजप और गायत्रीजप के लिए ( स्वाहा ) तत्पर हो। ( व्युष्ट्यै ) अन्धकार दूर करके प्रकाश की प्राप्ति के लिए (स्वाहा ) प्रयास करो। ( स्वर्गाय ) स्वर्गप्राप्ति के लिए ( स्वाहा ) प्रयास करो। बच्चा … Continue reading स्वर्ग की साधना -रामनाथ विद्यालंकार

तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार

तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार   ऋषिः प्रजापतिः । देवता परमेश्वरः । छन्दः निवृद् आकृतिः । उपयामगृहीतोऽसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिः सूर्यस्ते महिमा। यस्तेऽर्हन्त्संवत्सरे महिमा सम्बभूव यस्तै वायावन्तरिक्ष महिमा सम्बभूव यस्ते दिवि सूर्ये महिमा सम्बभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये स्वाहा देवेभ्यः॥ -यजु० २३.२ हे परमेश्वर ! आप ( उपयामगृहीतः असि ) यम, नियम आदि योगाङ्गों से ग्रहण किये जानेवाले हो। (जुष्टं त्वा ) प्रिय आपको (प्रजापतये ) प्राण, इन्द्रिय आदि प्रजा के स्वामी अपने जीवात्मा के लिए ( गृह्वामि ) ग्रहण करता हूँ। ( एषः ) यह जीवात्मा (तेयोनिः ) आपका घर है, निवासस्थान है। ( सूर्यः ते महिमा ) सूर्य आपकी महिमा है। ( यः ते ) जो आपकी ( अहन् संवत्सरे) दिन और वर्ष में ( महिमा सम्बभूव … Continue reading तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार

कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः प्रजापतिः । देवता ब्रह्मा । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् । सशितो रश्मिना रथः सर्शितो रश्मिना हर्यः ।। सशितो अप्स्वप्सुजा ब्रह्मा सोमपुरोगवः ॥ -यजु० २३.१४ (संशित:१) तीव्र हो जाता है ( रश्मिना ) सूर्यकिरण से ( रथः) सौर रथ । ( संशितः ) तीव्र हो जाता है ( रश्मिना) लगाम से ( हयः) घोड़ा। ( संशितः ) तीव्र हो जाता है। (रश्मिना ) ज्ञानरश्मि से ( अप्सुजाः ) वाक्प्रवाहों में प्रसिद्ध, ( सोम-पुरोगवः२) यज्ञ का पुरोधा ( ब्रह्मा ) ब्रह्मा ( अप्सु) कर्मकाण्डों में। बड़े सौभाग्य से हमें उत्तम कार्य करने के लिए मानव शरीर मिला है। समय न्यून है, कार्य बहुत है। अतः गति में तीव्रता लाने से ही कार्य पूर्ण हो सकता है। … Continue reading कार्य में तीव्रता लायें -रामनाथ विद्यालंकार

स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार

स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार   ऋषिः प्रजापतिः । देवता आत्मा। छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् । स्वयं वार्जिंतुन्व कल्पयस्व स्वयं य॑जस्व स्वयं जुषस्व। महिमा तेऽन्येन न सुन्नशे -यजु० २३.१५ ( स्वयं ) स्वयं ( वाजिन्) हे बली आत्मन् ! तू ( तन्वं कल्पयस्व ) शरीर को समर्थ बना, ( स्वयं यजस्व ) स्वयं यज्ञ कर, ( स्वयं जुषस्व ) स्वयं फल प्राप्त कर। ( ते महिमा ) तेरी महिमा ( अन्येन न सन्नशे४) दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। | हे मेरे आत्मन् ! क्या तू इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है। कि कोई तुझे सोते से जगाने आयेगा, उठाने आयेगा, कर्मतत्पर करने आयेगा, सफलता दिलाने आयेगा। यदि ऐसा है, तो तू भूल में पड़ा है। … Continue reading स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)