पापों और अपराधों से छुटकारा ऋषिः भरद्वाजः । देवता परमेश्वरो विद्वांश्च । छन्दः १. निवृत् साम्नी उष्णिक, २. साम्नी उष्णिक्, ३, ४, ५. प्राजापत्या उष्णिक्,। ६. निवृद् आर्षी उष्णिक्।। १देवकृतस्यैनसोऽवयजनमसि‘मनुष्यकृत॑स्यैनसोऽवयजनमसिपितृतस्यैसोऽव्यज॑नमस्यात्मकृतस्यैसक्यज॑नम्स्येन्सऽएनसेल वयजनमसि। ६ यच्चाहमेनों विद्वाँश्चकार यच्चाविद्वाँस्तस्य सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि॥ -यजु० ८।१३ हे परमात्मन् और योगी विद्वन् ! आप ( देवकृतस्य) विद्वानों के द्वारा किये गये तथा विद्वानों के प्रति किये गये (एनसः) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( मनुष्यकृतस्य) मनुष्यों के द्वारा किये गये तथा मनुष्यों के प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के (अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। (पितृकृतस्य ) पिताओं, पितामहों, प्रपितामहों के द्वारा किये गये तथा इनके प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर … Continue reading पापों और अपराधों से छुटकारा-रामनाथ विद्यालंकार→
विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः दीर्घतमाः । देवता विद्वान् । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् । स्वराडेसि सपत्नहा संत्ररार्डस्यभिमातिहा जनराडसि रक्षोहा सर्वरार्डस्यमित्रहा ॥ -यजु० ५। २४ हे विद्वन् ! आप ( स्वराङ् असि ) स्वकीय पाण्डित्य से जगमगानेवाले हो, ( सपत्नहा ) जो एक साथ मिलकर आपसे शास्त्रार्थ करने आते हैं, उन्हें पराजित कर देनेवाले हो। आप ( सत्रराड् असि ) यज्ञ में ज्योति से ज्योतिष्मान् होनेवाले हो, ( अभिमातिहा ) अभिमानियों को परास्त कर देनेवाले हो। आप ( जनराड् असि ) धार्मिक विद्वज्जनों में चमकनेवाले हो ( रक्षोहा ) राक्षसों का, दुष्टों का हनन या पराजय कर देनेवाले हो। आप (सर्वराड् असि ) सबके बीच अपनी विद्या से प्रकाशमान होनेवाले हो, आप (अमित्रहा ) शत्रुओं को हनन कर देनेवाले हो। … Continue reading विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार→
तू विभू है, प्रवाहण है ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् । विभूरसि प्रवाहणो वह्निरसि हव्यवाहनः।। श्वात्रोऽसि प्रचेतास्तुथोऽसि विश्ववेदाः ॥ – यजु० ५। ३१ हे अग्ने ! हे अग्रनेता तेजस्वी परमेश्वर ! तू ( विभूः असि ) सर्वव्यापक है, (प्रवाहणः ) धन, धर्म, सद्गुण, सत्कर्म, आनन्द आदि की धाराएँ बहानेवाला है, ( वह्निः असि ) विश्व को वहन करनेवाला है, (हव्यवाहनः) सूर्य, वायु आदि देय पदार्थों को हमारे समीप पहुँचानेवाला है। (श्वात्रः१ असि) शीघ्रकारी एवं गतिप्रदाता है, (प्रचेता:) प्रकृष्ट प्रज्ञावाला एवं प्रकृष्टरूप से चेतानेवाला है। ( तुथः असि) ज्ञानवर्धक है, ( विश्ववेदाः ) विश्ववेत्ता है। हे अग्नि! हे मेरे अग्रनेता तेजोमय जगदीश्वर ! तुम ‘विभू’ हो, ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्यापक हो, सर्वान्तर्यामी हो । तुम्हारी … Continue reading तू विभू है, प्रवाहण है -रामनाथ विद्यालंकार→
आत्मा सूर्य, मन सोम ऋषिः अगस्त्यः । देवता सविता सोमश्च । छन्दः क. साम्नी बृहती, र, निवृद् आर्षी पङ्किः। देव सवितरेष ते सोमस्तरक्षस्व मा त्वा दभन् ‘एतत्त्वं देव सोम देवो दे॒वाँ२ ।।ऽउपांगाऽइदमहं मनुष्यान्त्सह रायस्पोषेण स्वाहा निर्वरुणस्य पाशोन्मुच्ये -यजु० ५। ३९ (देव सवितः) हे प्रकाशमान जीवात्मारूप सूर्य ! ( एषः ते सोमः ) यह तेरा मन रूप चन्द्रमा है, ( तं रक्षस्व ) उसकी रक्षा कर। ( मा त्वा दभन्’ ) कोई भी शत्रु तुझे दबा न पायें । ( एतत् त्वं ) यह तू ( देव सोम ) हे दिव्य मन रूप चन्द्र ! ( देवः) जगमग करता हुआ ( देवान्) प्रजाजनों को ( उपागाः ) प्राप्त हुआ है। आगे मन रूप सोम कहता है-( इदम् अहम् ) यह मैं … Continue reading आत्मा सूर्य, मन सोम -रामनाथ विद्यालंकार→
तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े ऋषिः मेधातिथि: । देवता विद्वांसः । छन्दः क. भुरिग् आर्ची त्रिष्टुप्, | र. आर्षी पङ्किः मनस्तऽआप्यायतां वाक् तऽआप्यायतां प्राणस्तऽआप्यायत चक्षुस्तऽआप्यायताछ श्रोत्रे तऽआप्यायताम्। ‘यत्ते क्रूरं यदास्थितं तत्तूऽआप्यायतां निष्ट्यायतां तत्ते शुध्यतु शमहोभ्यः ।ओषधे त्रायस्व स्वर्धिते मैनहिसीः -यजु० ६ । १५ हे शिष्य ! मेरी शिक्षा से ( ते मनः आप्यायाम् ) तेरे मन की शक्ति बढ़े, (तेवाक्आप्यायताम् ) तेरी वाणी की शक्ति बढे, ( ते प्राणः आप्यायताम् ) तेरी प्राणशक्ति बढे, ( ते चक्षुः आप्यायताम् ) तेरी आँख की शक्ति बढ़े, (तेश्रोत्रम्आप्यायताम् ) तेरी श्रोत्र-शक्ति बढ़े। ( यत् ते क्रूरं ) जो तेरा क्रूर स्वभाव था ( यत् आस्थितं ) जो अब स्वस्थ हो गया है। ( तत् ते आप्यायतां ) वह तेरा शान्तस्वभाव बढ़े। यदि … Continue reading तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े-रामनाथ विद्यालंकार→
समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः-दीर्घतमाः । देवता-मनुष्यः । छन्दः-क. साम्नी उष्णिक, ख. स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्, र. भुरिग् आर्षी उष्णिक्,| उ. आर्षी उष्णिक्।। के समुद्रं गच्छु स्वाहाऽन्तरिक्षं गच्छ स्वाहा ख देवसवितार गच्छ स्वाहा मित्रावरुणौ गच्छ स्वाहाऽहोरात्रे गच्छ स्वाहा छन्दांसि गच्छ स्वाहा द्यावापृथिवी गच्छ स्वाहा’यज्ञं गच्छ स्वाहा सोमै गच्छ स्वाहा दिव्यं नभो गच्छ स्वाहाग्निं वैश्वानरं गच्छ स्वाहामनों में हार्दि यच्छदिवे ते धूमो गच्छतु स्वयॊतिः पृथिवीं भस्मनापृण स्वाहा ।। -यजु० ६। २१ | हे मनुष्य ! तू (समुद्रं गच्छ) समुद्र में जा ( स्वाहा ) जलयान रचने की विद्या से सिद्ध समुद्रयान द्वारा। ( अन्तरिक्षं गच्छ ) अन्तरिक्ष में जा ( स्वाहा ) खगोल विद्या से रचित विमान द्वारा। ( देवं सवितारं गच्छ) द्योतमान सर्वोत्पादक परमेश्वर को प्राप्त कर (स्वाहा … Continue reading समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार→
जिसके प्रभु रक्षक हैं -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री। यमग्ने पृत्सु मम वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतरिषः स्वाहा। -यजु० ६ । २९ ( अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर ! आप ( यं मर्त्यम् ) जिस मनुष्य को ( पृत्सु ) संग्रामों में, सङ्घर्षों में ( अवा: ) रक्षित करते हो, ( यम् ) जिसे ( वाजेषु ) आन्तरिक बलों के निमित्त ( जुनाः३) प्रेरित करते हो, ( सः ) वह ( यन्ता ) प्राप्तकर लेता है (शश्वती:इषः५) अविनश्वर इच्छासिद्धियों को, (स्वाहा ) यह कथन सत्य है। जीवन में मनुष्य को अनेक सङ्घर्षों का सामना करना पड़ता है। कभी आध्यात्मिक सङ्घर्षों से जूझना पड़ता है, तो । कभी बाह्य सङ्घर्षों से । काम, क्रोध … Continue reading जिसके प्रभु रक्षक हैं -रामनाथ विद्यालंकार→
हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अम्बा। छन्दः आर्षी उष्णिक्। प्रागपागुर्दगधराक्सर्वतस्त्व दिशऽआधावन्तु।अम्ब निष्पर समरीर्विदाम् -यजु० ६ । ३६ ( अम्ब ) हे माता ! (प्राक् ) पूर्व से, ( अपाक् ) पश्चिम से, (उदक् ) उत्तर से, (अधराक्) दक्षिण से, ( सर्वतः दिशः) सब दिशाओं से, प्रजाएँ ( त्वा आधावन्तु ) तेरे पास दौड़कर आयें। तू ( अरी:१) प्रजाओं को ( निष्पर ) पालित पूरित कर। वे प्रजाएँ तुझे (संविदाम्) प्रीतिपूर्वक जानें। हम सामाजिक मनुष्यों के परस्पर कई प्रकार के सगे या कृत्रिम सम्बन्ध होते हैं। माँ और सन्तानों का बड़ा ही प्यारा मधुर सगा सम्बन्ध है। जब तक पुत्र-पुत्री अल्पवयस्क होते ।। हैं, तब तक माता-पिता के ही आश्रित रहते हैं, किन्तु युवक युवती होकर तथा पढ़-लिख … Continue reading हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार→
प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः। मधुमतीर्नुऽइर्घस्कृधि यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवि । तस्मै ते सो सोमाय स्वाहा स्वाहोर्वन्तरिक्षमन्वेमि॥ –यजु० ७ । २ ( नः इष:१) हमारी इच्छाओं को ( मधुमतीः ) मधुर (कृधि ) कर । ( यत् ते ) जो तेरा (सोम ) हे सोम ( अदाभ्यं नाम ) अदभ्य अमर नाम है, वह हमारे सम्मुख (जागृवि ) सदा जागृत रहे । (तस्मै ते सोमाय ) उस तेरे सोम नाम का ( सोम) हे परमात्मन् (स्वाहा ) हम सुप्रचार करते हैं। ( स्वाहा ) हम तुझे आत्मसमर्पण करते हैं। तेरी कृपा से मैं (उरु अन्तरिक्षं ) विस्तीर्म अन्तरिक्ष में ( अन्वेमि) पहुँच रहा हूँ। हम जो इच्छाएँ करते … Continue reading प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार→
योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गोतमः । देवता मघवा । छन्दः आर्षी उष्णिक्। उपयामगृहीतोऽस्य॒न्तर्यच्छ मघवन् पाहि सोमम्। उरुष्य रायऽएषोयजस्व -यजु० ७।४ हे साधक! तू ( उपयामगृहीतः असि ) यम-नियमों से गृहीत है, (अन्तः यच्छ ) आन्तरिक नियन्त्रण कर। ( मघवन्) हे योगैश्वर्ययुक्त! तू ( सोमं पाहि ) समाधिजन्य आनन्दरस का पान कर। (रायः ) ऐश्वर्यों को ( उरुष्य ) रक्षित कर । ( इष:) इच्छासिद्धियों को ( आ यजस्व) प्राप्त कर।। हे साधक! यह प्रसन्नता का विषय है कि तूने योगमार्ग पर चलना आरम्भ किया है, तू योगप्रसिद्ध यम-नियमों को ग्रहण कर रहा है। योगशास्त्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम कहलाते हैं । अष्टाङ्ग योग में सर्वप्रथम ये ही आते हैं, क्योंकि … Continue reading योगैश्वर्य का पान कर – रामनाथ विद्यालंकार→