विष्णु के कर्म देखो ऋषिः-मेधातिथिः । देवता-विष्णुः । छन्दः-निवृद् आर्षी गायत्री । विष्णोः कर्मणि पश्यतु यतों व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा ।। -यजु० ६।४ हे मनुष्यो ! (विष्णो:१) चराचर जगत् में व्यापक परमेश्वर के ( कर्माणि ) कर्मों को (पश्यत ) देखो, ( यतः ) क्योंकि उसने ( व्रतानि ) व्रतों को, नियमों को ( पस्पशे ) ग्रहण किया हुआ है। वह ( इन्द्रस्य ) जीवात्मा का ( यज्यः )सहयोगी ( सखा) सखा है। क्या तुम जानते हो कि विष्णु’ कौन है, और उसके कर्म क्या है ? विष्णु’ शब्द व्याप्ति अर्थ वाली ‘विष्ल’ धातु से बनता है। अतः जो चराचर जगत् में व्यापक जगदीश्वर हैं, उसका नाम विष्णु हैं । वेद में विष्णु का एक प्रधान कार्य यह बतलाया … Continue reading विष्णु के कर्म देखो -रामनाथ विद्यालंकार→
अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः परमेष्ठी कुत्सो वा। देवता रुद्रः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् । यामिषु गिरिशन्त हस्ते बिभर्व्यस्तवे शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥ -यजु० १६ । ३ ( याम् इषुम् ) जिस बाण को, जिस अस्त्र-शस्त्र को (गिरिशन्त ) हे उच्च पद पर स्थित होकर शान्ति का विस्तार करनेवाले नायक! तू ( अस्तवे ) शत्रु पर छोड़ने के लिए ( हस्ते बिभर्षि ) हाथ में धारण किये है ( ताम् ) उस बाण या अस्त्र-शस्त्र को (गिरित्र ) हे पर्वत पर स्थित होकर रक्षा करनेवाले ! तू ( शिवां कुरु ) शिव बना। (माहिंसीः ) मते हिंसा कर ( पुरुषं ) पुरुषों की, और ( जगत् ) जगत् की। … Continue reading अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार→
तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्। भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः । -यजु० १५ । ३९ हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।। हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी … Continue reading तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार→
पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निद् अनुष्टुप् । पुर्नरासद्य सर्दनमुपश्चं पृथिवीमग्ने। शेषे मातुर्यथोपस्थेऽन्तर्रस्याशिवतमः ॥ -यजु० १२ । ३९ ( अग्ने ) हे जीवात्मन् ! तू एक शरीर छोड़ने के पश्चात् ( पुनः ) फिर ( सदनम् ) मातृगर्भरूप सदन को ( अपः च पृथिवीम्) और जल, पृथिवी आदि पञ्च तत्त्वों को (आसद्य ) प्राप्त करके ( शिवतमः ) अत्यन्त शिव होकर ( अस्याम् अन्तः ) इस पाञ्चभौतिक तनू के अन्दर ( शेषे ) शयन करता रहता है, ( यथा) जैसे कोई बालक (मातुः उपस्थे ) माता की गोद में शयन करता है। क्या तुम समझते हो कि आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो अमर हो, शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी … Continue reading पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार→
हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः सप्त ऋषयः । देवता मरुतः । छन्दः आर्षी उष्णिक। शुक्रज्योतिश्च चित्रज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्माँश्च।। शुक्रश्चंऽऋतुपाश्चात्यहाः -यजु० १७।८० | हे मनुष्य! तू (शुक्रज्योतिः च ) दीप्त ज्योतिवाला हो, (चित्रज्योतिः च ) चित्र-विचित्र ज्योतिवाला हो, ( सत्यज्योतिः च ) सत्य ज्योतिवाला हो, (ज्योतिष्मान् च ) प्रशस्त ज्योतिवाला हो, ( शुक्रः च ) शुद्ध-पवित्र हो, ( ऋतपाः च ) ऋत का पालक हो, (अत्यंहाः ) पाप या अपराध को अतिक्रान्त करनेवाला हो। हे मानव! क्या तू जानता है कि इस संसार में तू किसलिए आया है? तुझे अपना कुछ लक्ष्य निर्धारित करना है और उसे पूर्ण करने के लिए प्राणपण से जुट जाना है। किन्तु लक्ष्य तक पहुँचने का सामर्थ्य प्रत्येक में नहीं होता है। वे ही … Continue reading हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार→
द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वसिष्ठः । देवता विष्णु: । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् । इरावती धेनुमती हि भूतसूर्यवसिनी मनवे दशस्या व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधत्थं पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥ -यजु० ५ । १६ | हे द्यावापृथिवी ! तुम ( इरावती ) अन्न आदि खाद्य सामग्रीवाले, ( धेनुमती ) गौओंवाले, ( सूर्यवसिनी ) उत्तम घास चारे आदि से युक्त, तथा ( मनवे ) मनुष्य के लिए ( दशस्या ) आवश्यक वस्तुओं का दान करनेवाले ( हि ) निश्चय से ( भूतम्) हो गये हो। ( व्यस्कभ्ना:३) थामा हुआ है (विष्णो ) हे विष्णु ! तूने (एते रोदसी ) इन द्यावापृथिवी को ( दाधर्थ ) धारण किया हुआ है ( पृथिवीं ) पृथिवी को, ( अभितः ) चारों ओर से ( … Continue reading द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार→
तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो ऋषिः दीर्घतमाः । देवता यज्ञः । छन्दः आर्षी जगती । ध्रुवासि ध्रुवोऽयं यजमानोऽस्मिन्नायतने प्रजया पशुभिर्भूयात्। घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथामिन्द्रस्य छुदिरसि विश्वज़नस्य छाया॥ -यजु० ५। २८ हे यजमानपत्नी! तू ( धुवा असि ) ध्रुव है, स्थिर है, ( अयं यजमानः ) यह यजमान भी (अस्मिन् आयतने ) इस घर में, ( प्रजया पशुभिः ) प्रजा और पशुओं के साथ (धुवःभूयात् ) ध्रुव होवे। (घृतेन ) घृत से ( द्यावापृथिवी ) हे। आकाश-भूमि ( पूर्येथां ) तुम भर जाओ। हे यजमानपत्नी ! तू (इन्द्रस्य छदिः असि ) इन्द्र की छत है, (विश्वजनस्य छाया) विश्वजनों की छाया है। | हे यजमानपत्नी ! तू पतिगृह में स्थिर गृहपत्नी बनकर आयी है। तेरे पतिगृहनिवास में स्थिरता है, स्वभाव में … Continue reading तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो-रामनाथ विद्यालंकार→
बांके वीर को प्रोत्साहन ऋषिः अगस्त्यः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । अयं नोऽअग्निर्वरिवस्कृणोत्वूयं मृधः पुरऽएतु प्रभिन्दन्। अयं वाजाञ्जयतु वाजसाताव्यशत्रूञ्जयतु जर्हषाणः स्वाहा।। -यजु० ५। ३७ ( अयं ) यह ( नः ) हमारा ( अग्निः ) बांका वीर ( वरिवः१) राष्ट्र का रक्षण (कृणोतु ) करे। ( अयं ) यह ( मृधः ) हिंसक आततायियों को ( प्रभिन्दन् ) छिन्न-भिन्न करता हुआ ( पुरः एतु ) आगे बढ़े। ( अयं ) यह ( वाजसातौ ) बलप्रदर्शन में ( वाजान्’ ) शत्रु-बलों को (जयतु ) जीत ले। ( अयं ) यह ( जर्हषाणः४) अतिशय हृष्ट, उत्साहित होता हुआ ( शत्रून् जयतु ) शत्रुओं को जीते। ( स्वाहा ) इसके प्रति हमारे सुवचन हैं। मरे देश का बांका वीर साक्षात् … Continue reading बांके वीर को प्रोत्साहन -रामनाथ विद्यालंकार→
चतुर्थाश्रमी संन्यासी ऋषिः आङ्गिरसः । देवता आदित्यः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः।। कुदा चुन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी तुरीयादित्य सर्वनं तऽइन्द्रियमार्तस्थामृते दिव्यादित्येभ्यस्त्वा॥ -यजु० ८।३ | क्या आप (कदा चन) कभी ( प्रयुच्छसि ) प्रमाद करते हो ? अर्थात् कभी नहीं करते। ( उभे जन्मनी ) माता-पिता से दिया जन्म और विद्याजन्य जन्म दोनों की (निपासि ) आप रक्षा करते हो, लाज रखते हो। ( तुरीय आदित्य ) हे चतुर्थाश्रमी संन्यासी ! (तेइन्द्रियम् ) आपका प्रत्येक इन्द्रिय-व्यापार ( सवनम् ) यज्ञ होता है। आपका (अमृतम्) अमृतमय उपदेश ( दिवि ) श्रोताओं के आत्मा में (आ तस्थौ ) स्थित हो जाता है, घर कर जाता है। हे संन्यासी-प्रवर! आप तुरीय आदित्य’ हैं। आदित्य का अर्थ है विद्वान्, क्योंकि वह वेदादि शास्त्रों का रस … Continue reading चतुर्थाश्रमी संन्यासी -रामनाथ विद्यालंकार→
गृहाश्रम ऋषिः ब्रह्मा। देवता गृहपतयः । छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,र, निवृद् आर्षी जगती।। के विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथस्तस्मिन् मत्स्व। श्रर्दस्मै नरो वर्चसे दधातन यदाशीर्दा दम्पती वमर्मश्नुतः । पुमान् पुत्रो जायते विन्दते वस्वधा विश्वाहारपएधते गृहे। -यजु० ८ । ५ हे ( विवस्वन्’ ) अविद्यान्धकार को दूर किये हुए ( आदित्य ) आदित्य के समान प्रकाश से युक्त ब्रह्मचारिन् ! ( एषः ) यह गृहाश्रम ( ते ) तेरे लिए ( सोमपीथ:२) सोम आदि पौष्टिक ओषधियों के पान का आश्रम है। ( तस्मिन्) उसमें (मत्स्व ) आनन्दलाभ कर । ( नरः ) हे मनुष्यो ! (अस्मै वचसे ) इस वचन के लिए ( श्रद्दधातन) श्रद्धा रखो ( यत् ) कि ( आशीर्दा ) दूध का दान करनेवाले (दम्पती ) पति पली (वाममु ) … Continue reading गृहाश्रम -रामनाथ विद्यालंकार→