पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति ती पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।। आ वाचो मध्यमरुहद् भुरण्युरयमग्निः सत्पतिश्चेकितानः। पृष्ठे पृथिव्या निहितो दविद्युतदधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यवः॥ -यजु० १५ ।५१ | ( भुरण्यु:१) राष्ट्र का भरण-पोषण करनेवाला ( अयम् अग्निः ) यह वीर राजा (वाचःमध्यम् अरुहत् ) वाणी के मध्य में आरूढ़ हो गया है, अर्थात् वाणी से स्तुति पा रहा है। यह वीर राजा ( सत्पतिः ) सज्जनों का रक्षक है, (चेकितानः२) विज्ञानवान् है, ( पृथिव्याः पृष्ठे निहितः ) राष्ट्रभूमि के पृष्ठ परआसीन किया हुआ, (दविद्युतद् ) द्युतिमान् होता हुआ (अधस्पदं कृणुतां ) पैरों तले कर दे ( ये पृतन्यवः४) जो सेना लेकर चढ़ाई करनेवाले हैं उन्हें।। आओ, हर्ष मनायें, उत्सव करें, हमारे … Continue reading पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार→
हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः परमेष्ठी। देवता इन्द्राग्नी बृहस्पतिश्च । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् । लोकं पृण छिद्रं पृणाथों सीद धुवा त्वम्।। इन्द्राग्नी त्व बृहस्पतिरस्मिन् योनावसीषदन्॥ -यजु० १५ । ५९ हे नारी ! ( लोकं पृण) इहलोक और परलोक को सुधार, ( छिद्रं पृण ) छिद्रों एवं न्यूनताओं को भर ( अथो ) और ( त्वम् ) तू ( धुवा सीद) स्थिरमति होकर रह। (त्वा) तुझे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि ने ( बृहस्पतिः ) और बृहस्पति ने (अस्मिन्योनौ) इस घर में, इस पद पर ( असीषद) स्थित किया है। हे वैदिक नारी! तेरे ऊपर अपना, अपने घर का और नारी समाज का गुरुतर भार निहित है। तुझे अपने, अपने घर के और … Continue reading हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार→
राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः कुत्सः । देवता रुद्र: । छन्दः निवृद् अतिधृतिः । नमो हिरण्यवाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमो नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते पथीनां पतये नमो नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां पतये नमः ।। -यजु० १६ । १७ ( नमः ) नमस्कार हो ( हिरण्यबाहवे सेनान्ये ) हिरण्यबाहु सेनापति को। (दिशांचपतये नमः ) और दिक्पाल को भी नमस्कार हो। (नमःहरिकेशेभ्यःवृक्षेभ्यः) नमस्कार हो हरे पत्ते रूपी केशोंवाले वृक्षों अर्थात् वृक्षाधिपतियों को । ( पशूनां पतये नमः ) पशुओं के रक्षक को नमस्कार हो। (नमःत्विषीमते शष्पिजराय’ ) नमस्कार हो पशुप्रदर्शनी में नियुक्त, पशुओं के पिंजरे खोलनेवाले दीप्तिमान अध्यक्ष को । ( पथीनां पतये नमः ) मागों के रक्षक को नमस्कार हो। ( नमः ) नमस्कार … Continue reading राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार→
किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः भुवनपुत्रः विश्वकर्मा । देवता विश्वकर्मा ।। छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।। किस्विद्वनं कऽउस वृक्षऽसियत द्यावापृथिवी निष्टतुक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यध्यतिष्ठद्भुव॑नानि धारयन्॥ -यजु० १७। २० ( किं स्विद् वनं ) कौन सा वन था ( कः उ स वृक्षः आस ) कौन सा वह वृक्ष था, (यतः) जिससे [जगत्स्रष्टाओं ने] ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और भूलोक को (निष्टतक्षुः ) गढ़ा, रचा ? ( मनीषिणः ) हे मनीषिओ ! ( मनसा ) मत लगा। कर ( तत् इत् उ पृच्छत ) इसके विषय में भी पूछो कि ( भुवनानि धारयन्) भुवनों को धारण करनेवाला वह कारीगर ( यत् अधि अतिष्ठत् ) जिसके ऊपर बैठा हुआ था। जब मैं द्यावापृथिवी पर दृष्टि डालता हूँ, तब … Continue reading किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार→
दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः विधृतिः। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् । देवहूर्यज्ञऽआ च वक्षत्सुम्नहूर्यज्ञऽआ चं वक्षत्।। यक्षदग्निर्देवो देवाँ२।।ऽआ च वक्षत्॥ -यजु० १७।६२ ( देवहूः ) दिव्य गुणों को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, (आवक्षत् च ) वह हमें दिव्य गुण भी प्राप्त कराये। ( सुम्नहूः) सुख को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, ( आवक्षत् च ) वह हमें सुख भी प्राप्त कराये। ( यक्षत्) प्रशंसा करे (अग्निःदेवः) प्रकाशमय परमेश्वर ( देवान्) दिव्य कर्मों की ( आवक्षत् च) और उन्हें प्राप्त भी कराये। | सुखी जीवन के लिए समस्त सुख-सुविधाओं को जुटाना मानव के लिए अभीष्ट हो सकता है, परन्तु स्वेच्छा से त्यागमय जीवन व्यतीत करना उससे भी … Continue reading दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार→
मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः । छन्दः भुरिक् अति शक्वरी । ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे जीवाति॑श्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे यज्ञेने कल्पन्ताम्॥ -यजु० १८ । ६ | हे प्रजापति परमेश्वर ! ( ऋतं च मे ) मेरा सत्य व्यवहार ( अमृतं च मे ) और मेरा अमरत्व, ( अयक्ष्मं च मे ) और मेरा आरोग्य, ( अनामयच्च मे ) और मेरा आरोग्यकारी पथ्य, ( जीवातुश्च मे ) और मेरा भद्र जीवन, ( दीर्घायुत्वं च मे ) और मेरा दीर्घायुष्य, (अनमित्रं च मे ) और मेरा अजात शत्रुत्व, ( अभयं च मे ) … Continue reading मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार→
मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः देवाः । देवता यज्ञानुष्ठाता आत्मा। छन्दः क. स्वराड् विकृतिः,र, स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्।। के आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पताछ श्रोत्रं यज्ञेन कल्पत वाग्यज्ञेन कल्पां मनो यज्ञेर्न कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पता ब्रह्मा यज्ञेने कल्पत ज्योतिर्यज्ञेने कल्पता स्वर्यज्ञेने कल्पतां पृष्ठं यज्ञेने कल्पतां यज्ञो यज्ञेने कल्पताम्। रस्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च सार्म च बृहच्छ रथन्तरञ्चे।स्वर्देवाऽअगन्मामृताऽअभूम प्रजापतेः प्रजाऽअभूम वेट् स्वाहा। — यजु० १८।२९ | ( आयुः यज्ञेन कल्पत) आयु यज्ञ से समर्थ हो । ( प्राणः यज्ञेन कल्पता ) प्राण यज्ञ से समर्थ हो। (चक्षुः यज्ञेन कल्पत) चक्षु यज्ञ से समर्थ हो। ( श्रोत्रं यज्ञेन कल्पता ) श्रोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( मनः यज्ञेन कल्पत) मन यज्ञ से समर्थ हो। (आत्मायज्ञेनकल्पतां) आत्मा यज्ञ से समर्थ … Continue reading मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार→
प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार ऋषयः देवा: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । पर्यः पृथिव्यां पयऽओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पर्यस्वती: प्रदिशः सन्तु मह्यम् । -यजु० १८ । ३६ | हे अग्रनायक परमेश्वर ! आपने ( पृथिव्यां पयः ) पृथिवी में दूध, ( ओषधीषु पयः ) ओषधियों में दूध, ( दिवि पयः ) द्युलोक में दूध, ( अन्तरिक्षे पयः) अन्तरिक्ष में दूध (धाः ) रखा है। ( प्रदिशः ) प्राची आदि मुख्य दिशाएँ भी ( मह्यं ) मेरे । लिए (पयस्वती) दूध-भरी ( सन्तु) हो जाएँ। देखो, परमात्मा ने विश्व के अनेक स्थानों में दूध रखा हुआ है। पृथिवी में दूध है। पृथिवी में सलोनी मिट्टी का दूध है, स्रोतों-सरिताओं-सरोवरों का दूध है, सोने-चाँदी का दूध … Continue reading प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार→
जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वैखानसः । देवता श्री: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । ये समनाः सर्मनसो जीवा जीवेषु मामूकाः। तेषाश्रीर्मयि कल्पतामस्मिँल्लोके शतसमाः ।। -यजु० १९ । ४६ ( ये ) जो ( जीवेषु ) जीवितों में (समाना:१) सप्राण, सचेष्ट, ( समनसः ) मनोबल से युक्त ( मामकाः) मेरे ( जीवाः ) जीवित पितर हैं, ( तेषां श्रीः ) उनकी श्री (मयिकल्पतां) मुझे प्राप्त होती रहे ( अस्मिन् लोके) इस लोक में ( शतं समाः ) शत वर्ष तक। मैं अपने पितरों पर दृष्टिपात करता हूँ, तो गर्व से मेरा सिर ऊँचा हो जाता है और मैं उनके प्रति नतमस्तक हो जाता हूँ। ये पितर वानप्रस्थ और संन्यासी मेरे पिता, पितामह, प्रपितामह भी हो सकते … Continue reading जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार→