“महाभारतोत्तर काल के देशी-विदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द”

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ओ३म्

महाभारतोत्तर काल के देशीविदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

आईये, पौर्वीय एवं पाश्चात्य वेदों के भाष्यकारों पर दृष्टि डालते हैं। महाभारत काल के बाद से अब तक लगभग 5,115 वर्षों से कुछ अधिक समय व्यतीत हो चुका है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के अध्ययन व अध्यापन की परम्परा में बड़ा व्यवधान उपस्थित हुआ। युद्ध के बाद प्रायः ऐसा हुआ ही करता है। आजकल भी यदि घर में किसी को खर्चीला रोग हो जाये या फिर कोई मुकदमा आदि ऐसा हो जाये जिसमें उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में मुकदमा लड़ना पड़े तो अति व्यय साध्य होने से अच्छे अच्छे को पसीने आ जाते हैं मुख्यतः सामान्य व मध्यम वर्गीय व्यक्तियों को। महाभारत काल व बाद के समय में देश की आज कल की तरह वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नति भी नहीं थी। हम अनुभव करते हैं कि वेदों का अध्ययन हो व सामान्य सांसारिक अध्ययन, हस्त-लिखित पुस्तकों से अध्ययन व अध्यापन किया जाता था। पुस्तकें हो सकता है कि ताड़पत्रों या भोज पत्रों पर होती रही हांगी। यह आजकल की तरह से किसी पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक से सुलभ व उपलब्ध भी नहीं होती होंगी? यही स्थिति वेदों व वैदिक साहित्य की कही जा सकती थी। देश की ऐसी स्थिति में महाभारत काल के बाद मध्यकाल व उससे कुछ पूर्व हमारे अज्ञानी व स्वार्थी धर्माधिकारियों द्वारा स्त्री व शूद्रों को वेद व वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से ही वंचित कर दिया गया। जब समाज में वैदिक ज्ञान को जानने व समझने वाले लोगों की कमी या अभाव सा हुआ तो हमारे शीर्ष ब्राह्मण धर्माधिकारियों ने अपना अध्ययन, पुरूषार्थ व तप करना छोड़ दिया या कम कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि वेदाध्ययन की परम्परा प्रायः टूट गई। दूसरी ओर ऐसे अन्धकार के समय में भी हमारे देश में पाणिनी, पतंजलि व महर्षि यास्क जैसे वेदों के विश्व-विश्रुत विद्वान हुए जिन्होंने अपनी साधना व योग की प्रतिभा व पुरूषार्थ के बल पर अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं निरूक्त आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। यहां हम अनुमान करते हैं कि इन गुरूओं व शिष्यों ने मिलकर इन ग्रन्थों की एक-एक प्रति तैयार की होंगी। फिर उन शिष्यों ने मिलकर एक से अनेक प्रतियां बनाई होगी। यह कार्य आसान नहीं था। अतः महर्षि पाणिनी, पतंजलि एवं यास्क जी का अध्ययन व अध्यापन क्षेत्र विकसित व उन्नत होकर भी सामाजिक प्रभाव की दृष्टि से अति सीमित प्रतीत होता है। समय के साथ-साथ पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे ग्रन्थ भी विलुप्त व अप्राप्य हो गये। देश बहुत बड़ा है। दूरस्थ भागों में जब समस्यायें आयीं होंगी तो हमें लगता है कि वहां के विद्वानों ने अपनी ज्ञान व क्षमता के अनुसार व्याकरण व अन्य ग्रन्थ तैयार किये हांेगे। संस्कृत के यह व्याकरण ग्रन्थ शेखर, मनोरमा, लघुकौमुदी, सिद्धान्त कौमुदी आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनका आज भी उपयोग किया जा रहा है। ऋषिकृत व विद्वान के ग्रन्थों में अन्तर हुआ करता है जैसे कि एक बहुत बड़ा विद्वान या आचार्य किसी महाविद्यालय में पढ़ायें और कहीं एक अल्प शिक्षित विद्वान किसी साधारण विद्यालय में अध्ययन व शिक्षण कराये। अतः अष्टाध्यायी, महाभाष्य व निरूक्त, निघण्टु आदि वैदिक संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ ऋषियों व उच्च कोटि के विद्वानों के द्वारा बनाये हुए थे और अन्य मनोरमा, कौमुदी आदि ग्रन्थ साधारण विद्वानों के बनाये ग्रन्थ थे। हम समझते हैं कि यह सभी हमारे आदर के पात्र हैं परन्तु यहां एक नियम लागू होता है कि जब दिन निकल आता है तो बुद्धिमान लोग दीपक या प्रकाश के वैकल्पिक साधनों बल्ब आदि का प्रयोग न कर सूर्य के प्रकाश से लाभ उठाते हैं परन्तु धार्मिक व विद्वत जगत में अष्टाध्यायी व महाभाष्य एवं निरूक्त आदि सूर्य के समान उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त हो जाने पर भी हमारे पूर्वज महानुभावों ने उन्हें न अपना कर अति अल्प महत्व के व्याकरण ग्रन्थों का आश्रय लेना जारी रखा जो अब भी बदस्तूर जारी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वेद व्याख्या के क्षेत्र में वेद मन्त्रों के सत्य अर्थों को करने की क्षमता इन लौकिक व्याकरणाचार्यों में नहीं है। इनकी पहुंच रामायण, महाभारत व गीता आदि लौकिक ग्रन्थों तक श्लोकों का अनुवाद करने की ही है।

महाभारत काल के बाद से अब तक तथा महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों को छोड़कर जितने भी वेद भाष्यकार हुए हैं उनमें सायण व महीधर का नाम मुख्य है। इन दोनों ही वेद भाष्यकारों ने जो वेदार्थ किया है वह सत्य वेदार्थ को प्रकाशित व उद्घाटित करने में सर्वथा असमर्थ रहा है। इसके विपरीत इन भाष्यों में अर्थ का अनर्थ किया गया है जिसका प्रमाण-पुरस्सर प्रकाश महर्षि दयानन्द ने अपने साहित्य में किया है। इन मध्यकालीन भाष्यकारों ने तो एक कल्पना की कि वेदों का मुख्य व एकमात्र प्रयोजन केवल यज्ञों को करने वा कराने में ही हैं। इनका हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि वेद मनुष्य का धर्म ग्रन्थ न होकर एक प्रकार से यज्ञ, अग्निहोत्र या संस्कार आदि कर्मों को करने वा कराने वाला ग्रन्थ ही है, इससे अधिक कुछ नहीं। इसके विपरीत जो आर्ष विद्वान महर्षि पाणिनी, महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि तथा महर्षि यास्क आदि हुए हैं, उन्होंने वेदों को ईश्वर ज्ञान मानने के साथ इस ज्ञान को जीवन के सभी अंगों व क्षेत्रों पर व्यापक रूप से विचार, ज्ञान व विज्ञान देने वाला सभी विद्याओं का प्रकाशक ग्रन्थ स्वीकार किया है। पौराणिकों, लौकिक व्याकरणाचार्यों एवं अनार्ष विद्वानों के ग्रन्थों के कारण ही वेद विलुप्ति के कागार पर पहुंचे और देश में अनेकानेक अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न हुईं थीं। दूसरी ओर महर्षि दयानन्द अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती के मार्गदर्शन एवं शिक्षण से आर्ष ग्रन्थों को ढूढ्ने व खोजने में सफल हुए। उन्होंने गुरूजी की सहायता, मार्गदर्शन, अपने पुरूषार्थ एवं योग की उपलब्धियों व सिद्धियों का उपयोग वेद के यथार्थ रहस्य, सत्य वेदार्थ व संसार के रहस्यों को जानने में किया और इसमें वह सफल हुए। उन्होंने वैदिक धर्म, संस्कृति व प्राचीन परम्पराओं को पुनर्जीवित करने के लिए जहां आरम्भ में सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ लिखें वही वेदों के जो अनुचित, त्रुटिपूर्ण वा अश्लील अर्थ किये गये थे उनका निराकरण कर सत्य वेदार्थ को ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व ऋग्वेद आंशिक एवं यजुर्वेंद सम्पूर्ण वेदभाष्य करके पूरा किया। आज उनका किया हुआ यह समस्त वेद भाष्य एवं उनके अनुयायी विद्वानों के किए हुए अनेक वेदभाष्य न केवल हिन्दी भाषा में ही अपितु अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध हैं। वेदों के सत्यार्थ का वर्तमान में उपलब्ध होना आर्य जनता, देशवासियों एवं सारे संसार के लोगों का परम सौभाग्य है। वेदों की महत्ता इस कारण से है कि यह धर्म के आदि स्रोत होने के कारण सत्य धर्म व सच्ची आध्यात्मिकता के ग्रन्थ हैं। इनसे हमें अपने जीवन के सत्य लक्ष्य का ज्ञान होने के साथ उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी होता है। संसार के अन्य मतों से जीवन के लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का भली प्रकार से ज्ञान नहीं होता। योग दर्शन एक ऐसा ग्रन्थ है जो इस विषय में सहायक है एवं इसका आधार भी वेद ही है। यदि वेद न होते तो योग दर्शन न होता और योग दर्शन न होता तो ईश्वर की सही विधि से उपासना का ज्ञान संसार में किसी को न हो पाता। वेदों का महत्व इस कारण से भी है कि वेद संसार का सबसे प्राचीनतम ज्ञान है और यह हमारे आदिकालीन अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों को सीधा सर्वव्यापक व सृष्टिकत्र्ता से प्राप्त हुआ था। वेद सभी सत्य विद्याओं के भण्डार होने के कारण हमारे सभी के पूर्वजों की एक प्रकार से सम्मिलित थाती व पूंजी है। आज भी सभी बच्चे अपने माता-पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी बनते ही हैं। इसी प्रकार से वैदिक ज्ञान का उत्तराधिकार भी सभी सन्तानों व देशवासियों को ग्रहण करना चाहिये। यदि नहीं करते तो वह पूर्वजों की योग्य सन्ताने व सन्तति नहीं हैं। अब कुछ चर्चा पाश्चात्य वेदों के विद्वानों की भी कर लेते हैं।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबर के आक्रमण करने पर भारत मुगलों का गुलाम हुआ। उन्होंने देश के लोगों का शोषण किया, उन पर अत्याचार किये और भारी संख्या में धर्मान्तरण किया तथा हमारे मन्दिरों आदि को तोड़ा और उनको मस्जिद के रूप में बदला। हमारे तक्षशिला व नालन्दा सहित देश के पुस्तकालयों को अग्नि के समर्पित कर दिया गया। हमें लगता है कि देश में यदि सरदार वल्लभ भाई पटेल गृहमंत्री व उपप्रधान मंत्री न हुए होते तो विध्वंसित सोमनाथ मन्दिर दुबारा अस्तित्व में कदापि न आता। भारत माता के इस भक्त सरदार पटेल को स्मरण कर अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। इसके बाद अनेक पीढि़यों के बीत जाने के बाद मुगल शासन भी अपनी ही विसंगितों व अत्याचारों आदि के कारण कमजोर हुआ तो उनसे अधिक बुद्धिमान व बलवान अंग्रेजों ने अपनी बुद्धिचातुर्य से देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अत्याचारों में कहीं कोई कमी नहीं की। इन्होंने भी अनुभव किया कि भारत पर स्थाई शासन करने के लिए भारत के वैदिक धर्मी आर्य व हिन्दुओं को ईसाई बनाना सबसे अच्छा व निरापद तरीका हो सकता है। पर्दे के पीछे षडयन्त्र व योजनायें बनी और छल व कपट से काम लिया गया। इसी योजना का एक भाग वेदों का मिथ्या व अनेक दोषों से पूर्ण भाष्य वा अनुवाद करना था जिससे वेद विश्वासी भारतीयों को अपने वैदिक धर्म से घृणा हो जाये। उनका कार्य हमारे सायण व महीधर के वेदों के भाष्यों ने कर दिया। अतः उन्हें अधिक परिश्रम व कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ा। उनका किया गया वेदों का भाष्य एक प्रकार से सायण आदि वाममार्गी वेद भाष्यकारों के भाष्यों का अंग्रेजी में अनुवाद ही है। उनमें किसी के पास यथार्थ वेदभाष्य या वेदार्थ की योग्यता भी नहीं थी। प्रो. मैक्समूलर जर्मनी मूल के अंगे्रज विदेशी वेद भाष्यकारों एवं वेदों पर कार्य करने वालों लोगों के अग्रणीय प्रमुख व्यक्ति हैं। इतना ही नहीं उन्होंने व उनके विदेशी सहयोगियों ने काल्पनिक सिद्धान्त प्रस्तुत कर प्रचारित किये। जैसे कि वेदों को धर्म ग्रन्थ मानने वाले आर्य व हिन्दू भारत के मूल निवासी नहीं हैं। यह मध्य एशिया व विश्व के किसी अन्य स्थान पर रहते थे और वहां से भारत आये, यहां के मूल निवासियों जो काले रंग रूप वाले थे, उन पर आक्रमण किया, विजय प्राप्त की और उन पर शासन किया। वह अपने इस षडयन्त्र व मनोरथ में आंशिक रूप से सफल भी हुए। आज हम भारत के अनेक स्थानों पर जिन ईसाई मतावलम्बियों को देखते हैं वह इन्हीं षडयन्त्रों व छल-कपट से धर्मान्तरण का परिणाम हैं। इसमें कुछ व पर्याप्त कारण भारत की गरीबी, अशिक्षा, अज्ञान व अन्धविश्वास, धार्मिक पाखण्ड, मूर्ति पूजा, जन्म पर आधारित जन्मना जाति व्यवस्था, छुआछुत, फलित ज्योतिष आदि मुख्य रूप से रहे हैं। ईश्वर की कुछ ऐसी दैवीय कृपा भारतवासियों पर रही कि यह दोनों विदेशी आक्रान्ता अपने षडयन्त्रों में पूर्णतः सफल नहीं हो सके। इसी बीच 15 फरवरी, 1825 को भारत में महर्षि दयानन्द जी का गुजरात राज्य के राजकोट से लगभग 25 किलोमीटर दूरी पर स्थित टंकारा नामक एक ग्राम व कस्बे में जन्म होता है। शिवरात्रि को अन्ध विश्वास की घटना घटती है जिससे मूर्तिपूजा से उन्हें वैराग्य हो जाता है। उसके कुछ काल बाद बहिन व चाचाजी की मृत्यु की घटनाओं से उन्हें अपनी मृत्यु का डर सताता है। वह सत्य ज्ञान की खोज एवं मृत्यु पूजा पर विजय पाने के लिए घर से भाग जाते हैं और नवम्बर, सन् 1860 तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए सच्चे योगियों व विद्वानों के सम्पर्क में आकर अपनी सभी धार्मिक, आध्यात्मिक व सामाजिक शंकाओं की चर्चा कर उनके समाधानों पर विचार करते हैं। इस प्रयास व पुरूषार्थ में वह एक सिद्ध योगी बनने के साथ संस्कृत व्याकरण के अपूर्व विद्वान और वेदों के भी अपूर्व विद्वान तथा साक्षात्कृतधर्मा ऋषि भी बन जाते जाते हैं। गुरू विरजानन्द जी के परामर्श व आज्ञा से वह अपने जीवन का उद्देश्य सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन निर्धारित करते हैं। गुरू जी से सत्य व असत्य को जानने की कसौटी उन्हें पहले ही प्राप्त हो चुकी होती है। अब वह एक-एक करके मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, वेदाधिकार, वेद किन-किन ग्रन्थों की संज्ञा है, छुआछूत शास्त्रीय है वा मनघड़न्त अथवा कपोल कल्पित है, इस पर वेद आदि शास्त्रों की आर्ष दृष्टि के आधार पर विचार कर निर्णय करते हैंै। उनके अनुसंधान के परिणाम के अनुसार वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है जो सृष्टि की आदि में इस संसार को रचने वाली चेतन, आनन्द से पूर्ण, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एक सत्ता ईश्वर से आविर्भूत हुए थे। देश-विदेश के सभी धार्मिक व सामाजिक संगठनों एवं सम्प्रदाय आदि को सत्य व असत्य का निर्णय करने में सहायता करने के लिए वह अपने युग का अपूर्व क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का लेखन व प्रकाशन करते हैं और सबको सत्य व असत्य के निर्णयार्थ शास्त्रार्थ करने की चुनौती देते हैं। इस ग्रन्थ में वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुसार धार्मिक जीवन कैसा होता है, इसका उल्लेख करते हैं और इसके साथ समाज में व्याप्त सभी पाखण्डों का दिग्दर्शन कराकर उनका खण्डन करते हैं। समाज के पवित्र जीवन जीने वाले निर्भीक बुद्धिजीवी व्यक्ति उनकी बातों को सुनते, समझते, उनसे वार्तालाप व शंका समाधान आदि करते हैं। बहुत से उनकी बातों को सत्य स्वीकार कर उनके अनुयायी बन जाते हैं और उनके द्वारा 10 अप्रैल, 1875 को स्थापित भारत के अपने प्रकार के प्रथम धार्मिक व क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़कर देश का भाग्य बदलने के लिए आगे आते हैं। यह आन्दोंलन आंशिक रूप से सफल होता है। उनके द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सन् 1875 में की गई प्रेरणा से ही स्वतन्त्रता वा स्वराज्य प्राप्ति का आन्दोलन आरम्भ होता है। कालान्तर में घार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक नेताओं की किन्ही अदूरदर्शिताओं से देश का विभाजन व खण्डित देश आजाद होता है। उन्होंने अपने समय में देश भर में घूम-घूम कर सत्य वैदिक धर्म का प्रचार किया। असत्य व पाखण्डों तथा अन्धविश्वासों का खण्डन किया। उनके अनुयायी ने देशभर में गुरूकुलों व डीएवी कालेजों की स्थापना कर समाज का कायाकल्प कर दिया। आज के आधुनिक भारत में महर्षि दयानन्द का कार्य स्पष्ट दृष्टि गोचर होता है। देश की उन्नति के लिए जो कार्य उन्होंने किया वह अन्य किसी सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक व्यक्ति विशेष, पुरूष या महापुरूष ने नहीं किया। वह भारतमाता के सर्वोत्तम व योग्यतम पुत्र सिद्ध हुए।

महर्षि दयानन्द के वेद भाष्य की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनका भाष्य न केवल महाभारत युद्ध के बाद का सर्वोत्तम वेद भाष्य है अपितु हमारा अनुमान है कि यह सृष्टि की आदि से अब तक का सर्वोत्तम भाष्य है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यह संस्कृत के साथ हिन्दी में भी किया गया है। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने में महर्षि दयानन्द के कार्याें का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपने ज्ञान व चर्म चक्षुओं से हिन्दी के महत्व को बहुत पहले जान व समझ लिया था। स्वामीजी ने देश को क्षेमचन्द्र दास त्रिवेदी, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. आर्यमुनि, पं. तुलसी राम स्वामी, पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार आदि ऋषि श्रेणी के वेदभाष्यकार विद्वान दिये हैं। इनका वेदभाष्य समस्त मानव जाति की घरोहर है। महाभारत काल के बाद पहली बार यह स्वर्णिम दिन भारत में आयें हैं कि जब वेदभाष्य घर-घर में विद्यमान है। महर्षि दयानन्द के साहित्य व इन आर्य वेद भाष्यकारों के ग्रन्थों का अध्ययन कर ही मनुष्य जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य सहित उसकी प्राप्ति के साधनों को जानकर अपना जीवन सफल कर सकता है। अन्य कोई मार्ग जीवन को सफल करने का किसी मत आदि में नहीं है। सभी मतानुयायियों को देव व सवेर महर्षि दयानन्द की शरण में आना ही पड़ेगा। हम यह भी कहना चाहते कि महर्षि दयानन्द के देशहित के कार्यों के अनुरूप देश के लोगों व धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक नेताओं ने उनके साथ न्याय नहीं किया है। वेद भाष्य कर व वैदिक मान्यताओं का प्रचार करके महर्षि दयानन्द ने वैदिक धर्म की सबल व समर्थ विरोधी विधर्मियों से रक्षा की। हम समझते हैं कि परमात्मा के अलावा उनकी सेवाओं का मूल्यांकन कोई मनुष्य शायद कभी नहीं पायेगा। महर्षि दयानन्द की जय के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

2 thoughts on ““महाभारतोत्तर काल के देशी-विदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द””

  1. Utam evam anukarniya lekhan hetu kotishh Dhanyavad.
    Pratidin vedaadhyayan karate hue rishi ke runa se uruna ho
    Sakate hai.

  2. I believed confidently that now the Arya samaj is playing very dominant role in today’s present society.
    This is very great true that only Maharishi Dayanand alone can become Ideal of our youth.

    Swapnil Arya
    Namstey

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