Category Archives: वेद मंत्र

युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार

युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः त्रिशोकः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री।

बृहन्निदिध्मएषां भूरिशस्तं पृथुः स्वरुः । येषामिन्द्रो युवा सखा ।

–यजु० ३३.२४ |

(एषां ) इनका ( बृहन् इत् ) विशाल ही ( इध्मः ) ईंधन होता है, ( भूरि ) बहुत ( शस्तं ) यश होता है, और ( पृथुः ) विस्तीर्ण ( स्वरुः ) खड्ग होता है, ( येषां ) जिनका (युवाइन्द्रः ) युवा इन्द्र (सखा ) सखा बन जाता है।

कोई मनुष्य कैसा है इसकी पहचान इससे होती है कि उसके मित्र कैसे हैं, उसका मेल-मिलाप कैसे लोगों के साथ है। एक बार कोई व्यक्ति हत्या के सन्देह में पकड़ा गया। वह प्रतिदिन एक साधु के यहाँ सत्सङ्ग में जाता था। साधु के साथ इसकी मैत्री है, यह हत्यारा नहीं हो सकता, यही सोचकर उसे छोड़ दिया गया। किसी की राजमन्त्री के साथ मैत्री होती है, किसी की समाधि लगानेवाले महात्मा के साथ मैत्री होती है, किसी की चोर-डाकुओं और अतिङ्कवादियों के साथ मैत्री और सहानुभूति होती है। उन्हीं से उसका चरित्र परखा जाता है। |

आओ, हम युवा इन्द्र के साथ मैत्री करें। उससे मैत्री करके हम उसी के सदृश बन जायेंगे। इन्द्र की एक विशेषता यह है कि वह अन्धकार और अत्याचार के प्रेमी वृत्र’ का संहार करता है। यदि हम इन्द्र से मैत्री स्थापित करेंगे तो हमें भी वृत्रे-जैसे आततायी लोगों का संहार करने का उत्साह और बल प्राप्त होगा। इन्द्र की दूसरी विशेषता यह है कि वह ग्रीष्म के ताप से तपती प्यासी भूमि पर शुद्ध मेघ-जल की वर्षा करती है। इन्द्र के मित्र बनकर हम भी प्यासों को पानी पिलायेंगे, सहायता की बाट जोहते लोगों की सहायता में तत्पर होंगे, दु:खियों के दु:ख मिटा कर उन पर सुख की वर्षा करेंगे। वेदों में जो भी बल के कर्म हैं, उन्हें इन्द्र करता है। इन्द्र के मित्र होकर हम भी बल के कर्म करेंगे। इन्द्र ने सूर्य विद्युत् और अग्नि को ज्योति दी है। हम भी अन्धकार में ज्योति उत्पन्न करेंगे। इन्द्र सृष्टि की उत्पत्ति करता है और सृष्टि को धारण करता है। हम भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनायेंगे, उन्हें क्रियान्वित करेंगे और उन्हें चिरस्थायी बनाये रखने के लिए उनका धारण भी करेंगे।

मन्त्र में युवा इन्द्र जिसका सखा हो जाता है, उसके लिए तीन बातें कही गयी हैं। प्रथम यह कि उसका ईंधने विशाल होता है। युवा इन्द्र सर्वस्वत्यागी है, उसने अपने लिए कुछ न रख कर ब्रह्माण्ड की समस्त सम्पदा दूसरों के लिए स्वाहा की हुई है। इन्द्र का सखा बनकर मनुष्य भी न केवल अपनी सम्पत्ति गरीबों के लिए स्वाहा करने को उद्यत हो जाता है, अपितु स्वयं को भी अपने राष्ट्र के लिए स्वाहा कर देता है। इन्द्र के सखाओं के लिए दूसरी बात यह कही गयी है कि उनका भूरि-भूरि यश होता है, क्योंकि वे इन्द्र के सदृश स्तुत्य कर्म करते हैं। इन्द्र के सखा मनुष्यों को तीसरी उपलब्धि यह होती है कि उनका खड्ग बहुत विशाल होता है। छोटी-छोटी तलवारें छोटे-छोटे अस्त्र-शस्त्र तो बहुतों के पास होते हैं, परन्तु इन्द्र के वज्र-जैसा वज्र उन्हीं के पास होता है, जो इन्द्र के प्रेमी हैं। इन्द्र का मित्र भी ‘इन्द्र’ बनकर आततायी शत्रुओं पर खड्ग-प्रहार करता है, तोप के गोले बरसाता है, आग्नेयास्त्र से उन्हें भून डालता है। यह विध्वंसलीला वह उनकी करता है, जो शान्ति में बाधक होते हैं, जो अशान्ति और उपद्रव को अपना ध्येय मानते हैं। | आओ, हम भी इन्द्र के सखा बनकर उक्त सब उपलब्धियों को पाने का सौभाग्य प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणी

१. शस्तं यशः, शसि इच्छायाम्, भ्वादिः

युवा इन्द्र जिनका सखा बनता है-रामनाथ विद्यालंकार

मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

medha ki yachna1मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मेधाकाम: । देवता सदसस्पतिः परमेश्वर: ।। छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधार्मयासि8 स्वाहा ॥

-यजु० ३२.१३

( अद्भुतं ) आश्चर्यजनक गुण-कर्म-स्वभाववाले, (इन्द्रस्य प्रियं ) जीवात्मा के प्रिय, (काम्यं ) चाहने योग्य ( सदसः पतिं ) ब्रह्माण्डरूप तथा शरीररूप सदन के अधिपति परमेश्वर से मैं ( सनिं ) सत्यासत्य का संविभाग करनेवाली ( मेधां) मेधा ( अयासिषं ) माँगता हूँ। ( स्वाहा ) यह मेरी प्रार्थना पूर्ण हो ।

मेधा धारणवती बुद्धि को कहते हैं, जिससे एक बार सुन लेने पर या पढ़ लेने पर सुना-पढ़ा हुआ स्मरण रहता है। ऐसी बुद्धि मैं भी पाना चाहता हूँ। किन्तु, किस दुकान से खरीदें? नहीं, यह किसी दुकान पर मोल नहीं मिलती है। यह तपश्चर्या, ध्यान और योगाभ्यास द्वारा प्रभु से प्राप्त होती है। किस प्रभु से प्राप्त होती है? उस प्रभु से प्राप्त होती है, जो ‘सदसस्पति’ है, ब्रह्माण्डरूप तथा शरीर रूप सदन का स्वामी है, अधीश्वर है। वह सकल विशाल ब्रह्माण्ड को भी सञ्चालित करता है। और यह जो मनुष्यादि का शरीररूप सदन है, इसकी सब गतिविधि को भी क्रियान्वित करता है। देखो, आकाश के सूरज, चाँद, सितारे किसके इशारे पर चल रहे हैं ? अन्तरिक्ष में ये घनघोर बादल बनते और बरसते हैं, यह किसका कौशल है ? नदियाँ समुद्र को भरती रहती हैं, यह किसका कर्तृत्व है ? पेड़-पौधे, लताएँ फूल-फल पैदा करते हैं, भूमि पर हरियाली छाती है, पर्वतों पर बर्फ जमती हैं, यह सब किसकी महिमा से हो रहा है? इस छोटे-से मानव-शरीर में आँख की पुतली दश्यों को देखती है, कान का परदा शब्द को सनता है. नासिका गन्ध पूँघती है, रसना खट्टे-मीठे-तीखे-कड़वे रस का स्वाद पता लगाती है, त्वचा स्पर्श से कोमल-कठोर का ज्ञान करती है, भुजाएँ, हाथ, पैर, मस्तिष्क, आमाशय, रक्तसंस्थान अपना-अपना काम करते रहते हैं, इसकी चौकसी कौन करता है? जो इन सब व्यापारों को कर-करा रहा है, वही सदसस्पति’ परमेश्वर मेधा का प्रदाता भी है। वह अद्भुत है, अनोखे गुण कर्म-स्वभाववाला है। वह ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान पानेवाले और कर्मेन्द्रियों से कर्म करनेवाले जीवात्मा का परम प्रिय सखा है। उसकी महिमा से आकृष्ट होकर सब उसे पाना चाहते हैं। उसी परम मेधावी यशस्वी प्रभु से मैं मेधा की याचना करता हूँ। वह मेधा ‘सनि’ है, क्या सत्य है और क्या असत्य है, इसका विवेक करनेवाली है। हे सदसस्पति प्रभु ! अपने विशाल मेधा के भण्डार में से थोड़ी-सी मेधा मुझे भी दे दो। मैं भी उस मेधा के बल पर ज्ञान-विज्ञान के अचरज-भरे कार्य कर सकें। ‘स्वाहा’! यह मेरी प्रार्थना पूर्ण करो।

पाद-टिप्पणी

१. (सदसः) सभाया ज्ञानस्य न्यायस्य दण्डस्य वा (पतिं) पालकंस्वामिनम्। (अद्भुतप्) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावम्। (इन्द्रस्य) इन्द्रियाणां स्वामिनो जीवस्य। (सनिम्) सनन्ति संविभजन्ति सत्यासत्य यया ताम् (मेधाम्) संगतां प्रज्ञाम्-द० ।।

मेधा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

surya aur ratri ka niyam palan1सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कुत्सः । देवता सूर्य: । छन्दः आर्षी त्रिष्टप् ।

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तावित सं जभार। यदेदयुक्त हुरितः सधस्थदाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ।

-यजु० ३३.३७

( तत् सूर्यस्य देवत्वं ) वह सूर्य का देवत्व है, ( तत् महित्वं ) वह महत्त्व है कि (कर्ते:मध्या’ ) क्रियमाण कर्मों के मध्य में ही ( विततं ) फैले हुए रश्मिजाल को (संजभार ) समेट लेता है। ( यदा इत् ) जब ही सूर्य ( सधस्थात् ) आकाश मण्डप से ( हरित:४) किरणों को ( अयुक्त ) अन्यत्र जोड़ता है, (आत् ) उसके अनन्तर ही (रात्री) रात्रि ( सिममै ) सबके लिए ( वासः तनुते ) अपने अन्धकाररूप वस्त्र को फैलाती है।

किसी बूढ़ी माँ ने आँगन की धूप में अनाज सूखने रखा है, वह अभी उसे समेट नहीं पायी है। वह चाहती है सूर्य तब अस्त हो जब मैं अनाज उठा लूं। वह सूर्य से कहती है-भैया ! जरा अस्त होने से रुक जाओ, मेरा काम फैला पड़ा है, तो वह हँसकर उसकी बात अनुसुनी कर देता है। वह नियमपालन के प्रति दृढ़ है, समय पर उदित होता है, और समय पर अस्त होता है। मन्त्र कह रहा है कि इसी में सूर्य का देवत्व और महत्त्व है कि वह किये जाते हुए कर्मों के मध्य में ही फैले हुए रश्मिजाल को समेट लेता है। यदि वह सबकी इच्छा पूरी करने लगे, तो कभी अस्त न हो पाये। कोई चाहेगा आधे घण्टे बाद अस्त हो, कोई चाहेगा एक घण्टे पश्चात् अस्त हो, किसी की इच्छा होगी कि दो घण्टे और रुक जाए, कोई कहेगा आज अस्त न ही हो तो क्या बिगड़ता है, मैं अपना कार्य धूप-धूप में पूरा कर लूं। व्रतपालन के धनी मनुष्य भी निश्चित समय पर अपना कार्य आरम्भ करते हैं। और निश्चित समय पर समाप्त कर देते हैं। यदि समय की सीमा निश्चित की हुई नहीं होती है, केवल इतना ही व्रत होता है कि दिन भर में इतना कार्य करना है, चाहे किसी समय कर लें, तो वैसे नियम का पालन करते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भी नियम बनाया हो, उसका पालन आवश्यक है।

रात्रि भी अपने नियम की पक्की है। जब सूर्य आकाशमण्डप से अपनी किरणों को खींच लेता है, तभी वह अपने अन्धकार रूप चादर को तानती है। यह कभी नहीं होता कि वह सूर्यास्त से एक-दो घण्टा पहले ही आ विराजे और सूर्य से कहे कि सरको, मैं आ गयी।

हम चाहें तो प्रकृति से बहुत कुछ सीख सकते हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर का आना जाना, पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर घूमना, चन्द्रोदय होना, समुद्र में ज्वार-भाटा आना-जाना, बादल बनना, वर्षा होना  आदि हमारे गुरु बन सकते हैं।

पाद-टिप्पमियाँ

१. मध्ये यत् कर्मणां क्रियमाणानाम्-निरु० ४.१२ ।

२. सं जभार=सं जहार। ग्रहोर्भश्छन्दसि ।।

३. सधस्थात् सहस्थानात्, मण्डपात् ।

४. हरितः हरणान् आदित्यरश्मीन्-निरु० ४.१२।।

सूर्य और रात्री का नियम-पालन-रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

rashtra ke raja rani aur veer1राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कण्वः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

प्रेतु ब्रह्मणस्पतिः प्रदेव्येतु सूनृत

अच्छा वीरं न परिधिसं देवा यज्ञं नंयन्तु नः॥

-यजु० ३३.८९

( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( ब्रह्मणः पतिः ) महान् राष्ट्र का पालक सम्राट्, ( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( देवी सूनृता ) शुभ गुणों से देदीप्यमान सत्यमधुरभाषिणी महारानी। ( देवाः ) विद्वान् लोग (नः यज्ञम् अच्छ) हमारे राष्ट्रयज्ञ में ( नर्यम् ) परुषाथी, ( पहिराधसम) पंक्तियों के सेवक (वीर) वीर को (नयन्तु ) प्राप्त कराएँ।

हम अपने राष्ट्र को महान् बनाना चाहते हैं। उसके लिए वेद का सन्देश है कि सम्राट्, प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति को ‘ब्रह्मणस्पति’ होना चाहिए। ब्रह्मन् शब्द निघण्टु में अन्न और धन का वाचक है। इससे सूचित होता है कि प्रधान राष्ट्रनायक जो भी हो उसके राष्ट्र में अन्न और धन भरपर रहना चाहिए, जिससे राष्ट्र में भुखमरी और निर्धनता फटकने भी न पावे। ‘ब्रह्म’ महान् परमेश्वर का नाम भी है। अत: राष्ट्रनायक को परमेश्वर का आराधक भी होना चाहिए, जिससे वह परमेश्वर से सद्गुणों और सत्कर्मों की प्रेरणा ग्रहण करता रहे। सम्राट् के साथ उसकी देवी महारानी भी राजोचित गुणोंवाली होनी चाहिए।’देवी’ शब्द क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति एवं गति अर्थवाली दिवु धातु से निष्पन्न होने के कारण महारानी के इन गुणों को भी सूचित करता है। वह प्रत्येक कार्य को इतनी आसानी से करने की क्षमतावाली होनी चाहिए कि वह उसे खेल लगे। उसके अन्दर प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त करने की इच्छा होनी चाहिए। उसे व्यवहारकुशल होना चाहिए। राजनीति के ज्ञान की द्युति, स्तवनय की स्तुति, श्लाध्य कर्मों को करने से मोद और प्रसन्नता उसके अन्दर होनी चाहिए। अकरणीय कार्यों के प्रति प्रसुप्ति, कर्तव्यपालन के प्रति इच्छाशक्ति, जागरूकता, आशावादिता और प्रगतिशीलता उसमें रहनी चाहिए। सूनुता’ पद से उसकी वाणी की सत्यता और मधुरता सूचित होती है। राष्ट्रोत्थान इस पर भी निर्भर करता है कि राष्ट्र के वीर कैसे हैं। अतः मन्त्र कहता है कि विद्वानों का कर्तव्य है कि वे राष्ट्र में ऐसे वीरों का निर्माण करें, जो ‘नर्य’ हों, नरों के हितकर्ता एवं पुरुषार्थी हों, ‘पङ्किराधस्’ अर्थात् सहायता की इच्छुक जनपङियों के सेवक और कार्यसाधक हों। ऐसे वीर पुत्र जब राष्ट्रयज्ञ के अग्रणी बनेंगे तब निश्चय ही राष्ट्र प्रगति की ओर अग्रसर होगा, अन्य राष्ट्रों के मध्य उसकी स्थिति ऊँची होगी और अन्य राष्ट्रों का वह आदर्श तथा मार्गदर्शक हो सकेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. देवी शुभगुणैर्देदीप्यमाना-द०भा० ३३.८९, देवी विदुषी सूनृतासत्यभाषणादिसुशीलत्वयुक्ता-द०भा० ३७.७

२. ब्रह्म=अन्न, धन, निघं० २.७, २.१०।।

३. पङ्केः समूहस्य राधः संसिद्धिर्यस्मात् तम्-० । राध संसिद्धौ, स्वादिः।।

राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

 

वानप्रस्थाश्रम प्रवेश – रामनाथ विद्यालंकार

vanprsthashram pravesh1वानप्रस्थाश्रम प्रवेश-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कुत्सः । देवता अग्नि: । छन्दः भुरिक आर्षी पङ्किः ।

अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्होता यजिष्ठोऽअध्वरेष्वीड्यः। यमनवानो भृर्गवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशेविशे।।

-यजु० ३३.६

( अयं) यह ( प्रथमः ) श्रेष्ठ, ( होता ) हवि को ग्रहण करनेवाला तथा सुगन्ध को देनेवाला, ( यजिष्ठः ) यज्ञ में साधकतम, ( अध्वरेषु ईड्यः ) यज्ञों में स्तवनीय आहवनीय अग्नि ( धातृभिः) अग्न्याधान करनेवालों के द्वारा (इह धायि ) यहाँ यज्ञवेदि में आधान किया गया है, ( यं चित्रं विभ्वं ) जिस चित्र विचित्र व्यापक अग्नि को (अप्नवान:३ भृगव:४) कमसेवी तपस्वी वानप्रस्थ जन (वनेषु ) वनों में ( विशेविशे) प्रत्येक प्रजा के हितार्थ ( विरुरुचुः५) विरोचित करते रहे हैं।

कोई व्रतसेवी जन गृहस्थ आश्रम को तिलाञ्जलि देकर वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि का आधान किया है। कैसा है वह यज्ञाग्नि? प्रथम अर्थात् श्रेष्ठ कोटि का है, घृत-भरे दीपक की लौ से चन्दन, पलाश आदि की समिधाओं में प्रदीप्त किया गया है और उसे प्रज्वलित रखने के लिए धीमे-धीमे पंखा झल कर उस पर गाय के घृत में डूबी आठ-आठ अङ्गल की तीन समिधाएँ मन्त्रोच्चारणपूर्वक अर्पित की गयी हैं। अग्निकुण्ड में प्रदीप्त, प्रबुद्ध और समिदाधान द्वारा जागृत किया गया यह अग्नि वानप्रस्थ की दीक्षा ग्रहण करनेवाले व्रतियों को भी अपने समान प्रज्वलित, प्रबुद्ध और जागरूक होने की शिक्षा दे रहा है। आगे जलप्रोक्षण, आघार आहुति, आज्याभागाहुति, व्याहृति आहुति देकर वानप्रस्थाश्रम का प्रधानहोम होता है, जिसमें स्थालीपाक की ४३ आज्याहुति  दी जाती हैं।

यह सब वानप्रस्थाश्रमप्रवेश की यज्ञप्रक्रिया प्राचीनकाल से वनों में कर्मसेवी, तपस्वी जन करते रहे हैं। जो अंग्नि चित्र-विचित्र रंगोंवाला है, कण-कण में व्यापक है, उसे उत्तरारणि और अधरारणि की रगड़ से, या दीपक की लौ से यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त करते रहे हैं, विरोचमान करते रहे हैं। किसलिए?‘विशेविशे’, प्रत्येक प्रजाजन के हित के लिए। जो भी यज्ञकुण्ड में अग्न्याधान को देखता है और घृताहुति तथा अन्य हव्यों की आहुति पाकर ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से प्रखर होती हुई यज्ञाग्नि पर दृष्टिपात करता है, उसे ये अग्निज्वालाएँ ‘आओ, आओ’ कहती हुई अपने साथ उन्नति की दिशा में चलने का, ऊध्र्वारोहण करने का निमन्त्रण देती हैं। इस प्रकार जन-जन का हितसाधन करती हैं।

आओ, हम भी वानप्रस्थाश्रमप्रवेश की आयु होने पर वानप्रस्थ की अग्नि प्रज्वलित करें, उसमें अदिति, सरस्वती, पूषा, त्वष्टा, प्रजापति आदि के नाम से आहुति देते हुए इनसे शिक्षाएँ ग्रहण करें और आयु, प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, चक्षु, श्रोत्र, वाक्, मन, आत्मा आदि को यज्ञ द्वारा समर्थ बनायें । एक के लिए स्वाहा करें, दो के लिए स्वाहा करें, शत के लिए स्वाहा करें

“एकस्मै स्वाहा, द्वाभ्यां स्वाहा, शताय स्वाहा”

पाद-टिप्पणियाँ

१. धायि=अधायि । अडागमनषेध छान्दस।

२. विभ्वं=विभुम् । यणादेश छान्दस।

३. अप्नस्=कर्म, निघं० २.१, वनिप् प्रत्यय ।

४. भृगवः, भ्रस्ज पाके, ‘प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च’ उ० १.२८से कु=उ प्रत्यय तथा धातु के स् का लोप ।

५. विरुरुचुः =विरोचयामासुः, णिलोप ।

६. द्रष्टव्यः संस्कारविधि, वानप्रस्थसंस्कार।

वानप्रस्थाश्रम-प्रवेश-रामनाथ विद्यालंकार

आप प्रथम अङ्गिरस ऋषि हैं – रामनाथ विद्यालंकार

aap prtham angiras rishi hai1आप प्रथम अङ्गिरस ऋषि हैं – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः हिरण्यस्तूपः अङ्गिरसः । देवता अग्निः । छन्दः विराडू जगती ।

त्वमग्ने प्रथमोऽअङ्गिाऽऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा।

तव व्रते कुवयों विद्मनापसोऽजयन्त रुतो भ्राज॑दृष्टयः ।

–यजु० ३४.१२ |

हे ( अग्ने ) तेजस्वी परमेश्वर ! ( त्वं ) आप ( प्रथमः ) सर्वप्रथम ( अङ्गिराः ऋषिः ) अङ्गिरस् ऋषि हैं। ( देवः ) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाले आप (देवानां ) विद्वानों के (शिवः सखा ) कल्याणकारी मित्र ( अभवः ) हुए हैं । ( तव व्रते ) आपके व्रत में रहकर ही ( मरुतः ) मनुष्य ( कवयः ) क्रान्तद्रष्टा ( विद्मनापसः ) कर्तव्यों के ज्ञाता और (भ्राज ऋष्टयः ) चमचमाती बर्छियों से युक्त (अजायन्त) हुए हैं।

सुनते हैं प्राचीन काल में अङ्गिरस् ऋषि हुए हैं, जिन्होंने शौनक को यह रहस्य बतलाया था कि किस एक के जान लेने पर सब कुछ विदित हो जाता है। किन्तु हे अग्ने ! हे ज्योतिर्मय परमेश्वर ! सबसे प्रथम अङ्गिरस् ऋषि तो आप हैं। आप ‘अङ्गिरस्’ इस कारण कहलाते हो कि आप अङ्गियों (जीवात्माओं) को सुख देते हो और आप सर्वद्रष्टा होने से ऋषि हो। हे प्रभुवर ! आप ‘देव’ हो, दिव्य गुण-कर्म स्वभाववाले हो और विद्वानों के शिव सखा हो। लोगों का विश्वास है कि कोई शिवजी हैं, जो कैलास पर्वत पर रहते हैं, किन्तु विद्वज्जन तो आपको ही मङ्गलकारी शिव मानते हैं, क्योंकि आप उनके सखा हो, परम मित्र हो। सच्चा मित्र तो अपने मित्र का अमङ्गल कर ही नहीं सकता। सखित्व या मैत्री ही आपका लिङ्ग है, चिह्न है, आपकी पहचान है। प्रचलित शिवलिङ्ग की कल्पना तो अज्ञानी लोगों के मस्तिष्क की कल्पना है, जिससे पत्थर के लिङ्ग की पूजा चल पड़ी है। विद्वान् लोग तो आपके मैत्री रूप लिङ्ग की ही पूजा करते हैं। जो लोग आपके व्रत में दीक्षित हो जाते हैं, वे ‘कवि’ वन जाते हैं। कवि का अर्थ है क्रान्तद्रष्टा, दूरदृष्टिसम्पन्न। उनमें वह दृष्टि उत्पन्न हो जाती है कि किस कार्य को करने का क्या परिणाम होगा। सामान्य जन तो प्रलोभनवश कोई भी कार्य कर बैठते हैं, परन्तु ईश्वरीय व्रत पर चलनेवाला मनुष्य अपनी दूरदृष्टि से कार्य के परिणाम को देख कर शुभ परिणामवाले कार्य में ही प्रवृत्त होता है। उसे अपने कर्तव्य का बोध हो जाता है, वह ‘विमनापस्’ हो जाता है। ईश्वरीय व्रत पर चलनेवाले मनुष्य भी ऐसा ही करते हैं। जो विश्व का मित्र बनता है, विश्व के प्रति शिव होता है, विश्वशान्ति का प्रेमी होता है, उससे वे मैत्री करते हैं, किन्तु जो विश्व में अशान्ति पैदा करना चाहता है, उसके प्रति वे ‘भ्राजऋष्टि हो जाते हैं, चमचमाती बर्छियाँ या चमचमाते शस्त्रास्त्र हाथ में ले लेते हैं, उसे उसके द्वारा किये जानेवाले उपद्रवों के लिए दण्डित किये बिना नहीं छोड़ते। याद रखो, जो दुष्टता से समझौता करता है, वह शक्तिहीन होता है। वह शान्ति की दुहाई देकर आतङ्कवाद को सहता है। परन्तु असली कारण यह होता है। कि वह आतङ्कवादी का मुकाबला नहीं कर सकता। ज्योतिर्मय परमेश्वर से बल पाकर आततायी को दण्डित करना ही ईश्वरीय व्रत है।

पादटिप्पणियाँ

१. (अङ्गिराः) अङ्गिभ्यो जीवात्मभ्यः सुखं राति ददाति यः सः-२० ।

२. ऋषिर्दर्शनात् । निरु० २.११

३. कवि: क्रान्तदर्शनो भवति । निरु० १२.७ ।

४. विद्मनानि विदितानि अपांसि कर्माणि येषां ते विद्मनापस:-दे०।।

५. भ्राजन्त्यः शोभमाना ऋष्टय आयुधानि येषां ते भ्राजदृष्टयः-२०||

आप प्रथम अङ्गिरस ऋषि हैं – रामनाथ विद्यालंकार

दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

dakshaayan hiranyदाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दक्षः । देवता हिरण्यं तेजः । छन्दः भुरिक् शक्वरी ।

न तद्रक्षछिसि न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमज ह्येतत्।। यो बिभर्ति दाक्षायण हिरण्यः स देवेषु कृणुते दीर्घमायुः । स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः

-यजु० ३४.५१

( न तद् ) न उसे ( रक्षांसि ) राक्षस’, ( न पिशाचाः ) न पिशाच ( तरन्ति ) लांघ सकते हैं। ( एतद् ) यह ( देवानां ) विद्वानों का ( प्रथमजम् ओजः ) प्रथम आयु ब्रह्मचर्याश्रम में उत्पन्न ओज है। ( यः ) जो ( दाक्षायणं हिरण्यं ) बलवर्धक ब्रह्मचर्य को ( बिभर्ति ) धारण करता है (सः ) वह ( देवेषु ) विद्वानों में ( आयुः ) अपनी आयु ( दीर्घ कृणुते ) दीर्घ कर लेता है, ( सः ) वह (मनुष्येषु ) मनुष्यों में ( आयुः ) अपनी आयु (दीर्घकृणुते) दीर्घ कर लेता है।

जो दाक्षायण हिरण्य को धारण करता है, वह विद्वानों में दीर्घायु होता है, वह मनुष्यों में दीर्घायु होता है। अभिप्राय यह है कि चाहे वह विद्वान् हो, चाहे साधारण मनुष्य दीर्घायु अवश्य होता है। क्या है यह दाक्षायण हिरण्य? यह विद्वानों का प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है। प्रथम आयु होती है, ब्रह्मचर्याश्रम, उसमें संचित ब्रह्मचर्य का बल या वीर्य ही हिरण्य है। दक्ष शब्द वेद में बल का वाचक है, दाक्ष का अर्थ है बलसमूह, उसका अयन, अर्थात् प्राप्तिस्थान दाक्षायण कहलाता है। इस प्रकार दाक्षायण हिरण्य’ का अर्थ होता है बलवर्धक वीर्य । इसके संचय का माहात्म्य अधिकतर वे लोग बताते हैं, जो वीर्यरक्षा न करके अब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत कर चुके होते हैं, क्योंकि अब्रह्मचर्य से उन्हें हानि हुई होती है। वे सोचते हैं कि हमने जो हानि उठायी, वह दूसरों को न भुगतनी  पड़े। अतः वे दूसरों को सावधान करते हैं। योगी दयानन्द सदृश कोई विरले ऐसे भी होते हैं, जो न केवल प्रथम आयु में, अपितु आगे भी ब्रह्मचारी रहे होते हैं। वे भी अपने अनुभव के आधार पर ब्रह्मचर्य की महिमा दूसरों को बताते हैं । यह हिरण्य प्रथम आयु में उत्पन्न ओज है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्मचर्य के पश्चात् के आश्रमों में अब्रह्मचारी रहना है। गृहस्थाश्रम में भी राष्ट्र को श्रेष्ठ सन्तान देने के पश्चात् ब्रह्मचर्य का जीवन बिताना ही अभीष्ट है। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम तो पूर्णत: ब्रह्मचर्य के आश्रम हैं ही। इस रीति से यदि चलें, तो अल्पाय होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इसीलिए अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में ब्रह्मचर्य का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि विद्वान लोग ब्रह्मचर्य के तप से मत्य को मार भगाते हैं ।६ प्रथम आयु में उत्पन्न यह विद्वानों का ओज ब्रह्मचर्यबल ऐसा होता है कि न इसे राक्षस, न पिशाच पराजित कर सकते हैं । ब्रह्मचर्य के ओज से अनुप्राणित अकेला ब्रह्मचारी शत और सहस्र नरपिशाचों से लोहा ले सकता है। पिशाच का अर्थ दयानन्दभाष्य में किया गया है रुधिर-मांस आदि खानेवाले हिंसक म्लेच्छाचारी दुष्ट लोग।

आओ, हम सब ‘दाक्षायण हिरण्य’ को धारण करें, तब हमारे अन्दर शरीर-बल के साथ मनोबल और आत्मबल भी अधिकाधिक जागृत होगा और मनुष्य-कोटि से उठकर हम देव-कोटि में पहुँच जायेंगे। सचमुच दाक्षायण हिरण्य’ का ऐसा ही माहात्म्य है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (रक्षांसि) अन्यान् प्रपीड्य स्वात्मानमेव ये रक्षन्ति ते-द० ।

रक्षो रक्षितव्यम् अस्मात्, रहसि क्षणोतीति वा, रात्रौ नक्षते इति वा

निरु० ४.३४।।

२. (पिशाचा: ) ये प्राणिनां पिशितं रुधिरादिकम् आचामन्ति भक्षयन्ति ते | हिंसका म्लेच्छाचारिणी दुष्टा:-द०।।

३. (प्रथमजम्) प्रथमे वयसि ब्रह्मचर्याश्रमे वा जातम्-द० ।

४. दक्षस्य बलस्य समूहो दाक्ष:, दाक्षस्य अयनं प्राप्ति: येन से दाक्षायणः ।

५. रेतो वै हिरण्यम् तै० ३.८.२.४, मैं ३.७.५।।

६. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्त । अ० ११.५.१९

दाक्षायण हिरण्य – रामनाथ विद्यालंकार

पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार

pathrili nadi ke us par1पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः सुचीकः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

अश्म॑न्वती रीयते सर्भध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः ।।

अत्रा जहीमोऽशिव येऽअसञ्छिवान्वयमुत्तरेमभि वाजान्॥

-यजु० ३५.१० |

( अश्मन्वती ) पथरीली नदी ( रीयते’ ) वेग से बह रही है। ( सखायः ) हे साथियो ! (सं रमध्वम् ) मिलकर उद्यम करो, ( उत्तिष्ठत ) उठो ( प्र तरत) पार हो जाओ। (अत्रजहीमः४) यहीं छोड़ दें ( ये अशिवाः असन् ) जो अशिव हैं उन्हें । उस पार के (वाजान् अभि) ऐश्वर्यों को पाने के लिए ( वयं ) हम ( उत्तरेम ) नदी के पार उतर जाएँ।

पथरीली नदी वेग से बह रही है। इस पार बंजर भूमि है, कंकड़-पत्थर हैं, भुखमरी है, नग्नता है, बेबसी है। उस पार की भूमि सोना उगलती है। हरे भरे खेत हैं, फलों से लदे बाग-बगीचे हैं, अन्य विविध ऐश्वर्य हैं। किसी साधु की वाणी सुनायी देती है-अरे, इस पार के लोगो ! नदी के उस पार जाकर क्यों नहीं बस जाते ? उसका परामर्श सुनकर सब नदी पार करने के लिए तैयार हो जाते हैं। किन्तु, जिसके पास जो कुछ है, वह उसे साथ ले जाने के लिए सिर पर लाद लेता है। कोई चूल्हे का बोझ, कोई फटे-पुराने कपड़ों का बोझ, कोई टूटे-फूटे बर्तनों का बोझ सिर-कन्धे पर रख लेता है। चल पड़ते हैं सब अकेले-अकेले । साधु की कर्कश वाणी सुनायी देती है, अरे यह क्या कर रहे हो ? नदी में काई-जमे फिसलने पत्थर हैं, उस पर तुमने व्यर्थ का बोझ लाद लिया है। आओ, मैं तुम्हारा पथप्रदर्शन करता हूँ। उठो, मित्रो, मिल  कर उद्योग करो, यह बोझ तुम्हें ले डूबेगा, इसे यहीं फेंक दो । हल्के-फुल्के होकर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, नदी के पत्थरों पर पैर जमाते हुए पार उतर जाओ। उस पार के ऐश्वर्यों का भोग करो।

यह तो एक दृष्टान्त है। इस पार सांसारिकता है, उस पार दिव्यता-आध्यात्मिकता है। बीच में विघ्न-बाधाओं की वैतरणी नदी है, जिसमें बड़े-बड़े प्रलोभन-रूपी चिकने पत्थर हैं। हम अधिकतर लोग सांसारिकता में ही पड़े रहते हैं, दिव्यता का जो भागवत आनन्द है, उसे पाने के लिए हमारी अभीप्सा होती ही नहीं। मन्त्र हमें प्रेरणा कर रहा है कि हम दिव्यता की ओर जाने का प्रयत्न करें, योगमार्ग का अवलम्बन करें। प्रलोभनों से पूर्ण व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमोद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व आदि चित्तविक्षेप रूप अन्तरायों को पार करके आध्यात्मिक वातावरण में पहुँचें, जहाँ चित्तवृत्तिनिरोधपूर्वक चेतना जागती है, धारणा-ध्यान समाधि लगती है और ईश्वर साक्षात्कार का आनन्दपीयूष पाने करने को मिलता है।

आओ, छोड़े सांसारिक भोग-विलास, चलें उस पार और योगैश्वर्य अर्जित करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. री स्रवणे, दिवादिः ।

२. सं–रभ राभस्ये, भ्वादिः ।

३. प्रतरता=प्रतरत, छान्दस दीर्घ ।

४. ओहाक् त्यागे, जुहोत्यादिः ।

पथरीली नदी के उस पार – रामनाथ विद्यालंकार

मेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

mere vani man pran chakshu shrot aadi sashkt hoमेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो  – रामनाथ विद्यालंकार

 ऋषिः दध्यङ् आथर्वणः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी पङ्किः।

ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये सार्म प्राणं प्रपद्ये । चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये। वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥

-यजु० ३६.१

मैं ( ऋचं ) स्तुत्यात्मक वाणी को ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( यजुः मनः ) देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान से युक्त मन को (प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( साम प्राणं ) समस्वरतायुक्त प्राण को ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ, ( चक्षुः श्रोत्रं ) नेत्रशक्ति और श्रवणशक्ति ( प्रपद्ये ) प्राप्त करता हूँ। ( मयि ) मेरे अन्दर ( वाग्-ओजः ) वाग्बल, (सह-ओजः ) एकता का बल, तथा ( प्राणापानौ ) प्राण- अपान हों।

हे अग्नि! हे अग्रनायक, तेजस्वी परमेश्वर ! मैं चाहती हूँ कि मेरे शरीर के सब अङ्ग सशक्त हों, मेरी सब शक्तियाँ पूर्णता को प्राप्त हों। आपने सब मनुष्यों को वाणी दी है, उस वाणी से सब आपस में अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। पशु-पक्षियों तथा अन्य प्राणियों में यह सामर्थ्य नहीं है, उनकी भाषा सांकेतिक है। ऐसी उत्तम वाणी को मुझे ईशस्तुति में तथा अन्य श्रेष्ठजनों तथा सत्पदार्थों के यथार्थ-वर्णनरूप स्तुति में लगाना चाहिए, पर-निन्दा में नहीं। यदि हम अपने दैनिक चरित्र का निरीक्षण करें, तो पायेंगे कि पर्याप्त समय हम दूसरों की निन्दा या एकपक्षीय आलोचना में व्यतीत करते हैं। यह पर-निन्दा बहुत बड़ा दुर्गुण है। पर-निन्दा करते-करते मनुष्य में दूसरों के गुण देखने की प्रवृत्ति ही समाप्त हो जाती है। दूसरी मुझे मनरूप अत्युत्तम वस्तु मिली है। जिस ज्ञानेन्द्रिय से मैं ज्ञान ग्रहण करना चाहता हूँ, अपने मन को उसमें प्रवृत्त कर लेता हूँ। तब उस ज्ञानेन्द्रिय से ज्ञान की धारा मेरे आत्मा की ओर प्रवाहित होने लगती है। परन्तु मन को शिव सङ्कल्पों  में भी लगाया जा सकता है और अशिव सङ्कल्पों में भी। मैं चाहता हूँ कि मेरा मन देव-पूजा अर्थात् प्रभु-पूजा और विद्वान् विदुषियों के सम्मान में लगे, सत्सङ्गति में लगे और दान में लगे। अपने तन-मन-धन से मैं परोपकार करूं। तीसरी बहुमूल्य वस्तु मुझे ‘प्राण’ मिली हुई है। शरीर आत्मा और प्राण से संयुक्त होकर ही सजीव होता है। प्राण के शरीर में से निकलते ही आत्मा भी निकल जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरा प्राण समस्वरतायुक्त हो। बेसुरा प्राण जीवात्मा को भी बेसुरा कर देता है। चक्षु और श्रोत्र भी मेरे शरीर को अमोल वस्तुएँ मिली हैं। आँख और कान की कैसी अद्भुत बनावट है कि दृश्य आँख की पुतली में आकर और शब्द कान के पर्दे से लग कर दिखाई और सुनाई देने लगता है। इस आँख से मैं भद्र दृश्यों को ही देखें और कान से भद्र शब्दों को ही सुनँ। मेरी कामना है कि मेरे अन्दर वाणी का बल और एकता का बल भी आये । वाग्बल से मनुष्य मुर्दादिल को भी ओजस्वी बना सकता है, मृततुल्य को भी जागरूक कर सकता है। हतोत्साह को भी उत्साही बना सकता है. भयभीत को भी समराङ्गण में भेज सकता है, रोते को भी हँसा सकता है। एकता का बल भी अपना सानी नहीं रखता। एक सूत किसी को बाँध नहीं सकता, किन्तु बहुत से सूत मिलकर जब मोटी रस्सी बन जाती है, तब वह हाथी को भी वश में कर सकती है। अनेक वीर मिलकर जब सेना बन जाती है, तब वह शत्रु के छक्के छुड़ा देती है। मेरी अभिलाषा है कि मेरा प्राण अपान का बल भी बढ़े। शिरोभाग तथा ज्ञानेन्द्रियों में प्राण रहता है और छोटी-बड़ी आँतों में, अधोद्वारों में तथा रोमकूपों में अपान रहता है। मन, बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार प्राण द्वारा सम्पन्न होते हैं तथा मलनिस्सारण अपान द्वारा होता है। प्राण-अपान के सशक्त होने से ये कार्य सम्यक् प्रकार सम्पादित हो सकते हैं। हे परमेश! मुझे ऐसा बल दो कि मैं अपने शरीर के सब अङ्गों और समग्र अवयवों को सक्रिय, स्फूर्त और शक्तिशाली बना सकें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ऋच स्तुतौ, तुदादि।।

२. यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, भ्वादि।

मेरे वाणी, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि सशक्त हो  – रामनाथ विद्यालंकार

कृषकों को भूमि आवंटित हो – रामनाथ विद्यालंकार

krushko ko bhumi avntit ho1कृषकों को भूमि आवंटित हो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः आदित्या देवा: । देवता जातवेदाः । छन्दः स्वराट् त्रिष्टप् ।

वह वपां जातवेदः पितृभ्यो यत्रैनान्वेत्थ निहितान्पराके। मेदसः।

कुल्याऽउ तान्त्वन्तु त्याऽएषाशिषः संनमन्तात्र स्वाहा॥

-यजु० ३५.२०

( जातवेदः१ ) हे राजविद्या के विद्वान् सम्राट् ! आप (पितृभ्य ) पालनकर्ता कृषकों के लिए ( वपां ) बीज बोने की उपजाऊ भूमि ( वह ) प्राप्त कराओ, ( यत्र ) जहाँ ( एनान्) इन्हें ( पराके निहितान् ) दूर-दूर बसा ( वेत्थ ) आप जानते हो। ( मेदसः४ कुल्याः ) स्निग्ध नहरें ( तान् उप स्रवन्तु ) उनके समीप पहुँचे। ( एषां सत्याः आशिषः ) इनके सच्चे आशीर्वाद ( उप सं नमन्ताम् ) आपको प्राप्त हों । ( स्वाहा ) हमारा यह सुवचन क्रियान्वित हो।

राष्ट्र में कृषि और बागवानी का बहुत महत्त्व है। कृषकों को ‘पितर:’ कहा गया है, क्योंकि वे विविध अन्न आदि खेतों में उपजा कर राष्ट्रवासियों का पालन-पोषण करते हैं। कृषि से अन्न और बागवानी से तरह-तरह के विविध स्वादोंवाले फल प्राप्त होते हैं। कृषि के लिए किसानों को उत्तम भूमि चाहिए। उन्हें उत्तम भूमि आबंटित करना राजकीय कर्तव्य है। किसी के पास बंजर भूमि होती है, किसी की भूमि एक स्थान पर न होकर टुकड़ों के रूप में विभिन्न स्थानों में फैली होती है। राजकीय विभाग का कर्तव्य है कि जिसके पास बंजर भूमि है, उसे उसके बदले में उपजाऊ भूमि प्रदान करे और जिसकी भूमि टुकड़ों में बंटी हुई है, उसकी भूमि चकबन्दी द्वारा एक स्थान पर कर दे। राजकीय विभाग को यह ज्ञान होना चाहिए कि हमारे राज्य में किसान लोग दूर तक कहाँ कहाँ बसे हुए हैं। उन सबकी भूमियों की जानकारी पटरियों के पास होनी चाहिए कि किसके पास कितनी और कैसी भूमि है। जिसके पास कम भूमि है उसे अधिक भूमि उचित मूल्य में विभाग दिलवाये। इस प्रकार राज्य के सब किसानों के पास पर्याप्त और उपजाऊ भूमि एक स्थान पर हो जानी चाहिए। भूमि के लिए मन्त्र में ‘वपा’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भूमि के विविध प्रकार हैं, इमारती भूमि, कल-कारखानों के लिए उपयुक्त भूमि, पहाड़ी भूमि, खानों की भूमि, तेलकूपों की भूमि, पानी से छाई भूमि आदि। इनमें कृषियोग्य भूमि को जिसमें बीज बोया जाता है ‘वपा’ कहते हैं।

‘वपा’ शब्द बीज बोने अर्थवाली ‘वप’ धातु से बना है। किसानों को बीज बोने योग्य उपजाऊ भूमि देने के अतिरिक्त उसमें सिंचाई के लिए पानी की नहरें भेजना भी राजकीय कर्त्तव्य है । मन्त्र सम्राट को कह रहा है कि तुम अपने राज्य में बसे किसानों को भूमि प्रदान करो और सिंचाई के लिए स्निग्ध नहरें भी उनकी भूमियों के आसपास भेजो, जिससे वे उनमें से पानी लेकर भरपूर सिंचाई कर सकें। यदि ऐसा तुम करोगे तो किसानों के सच्चे आशीर्वाद तुम्हें प्राप्त होंगे और किसान राष्ट्रवासियों को उत्तमकोटि का प्रचुर अन्न आदि दे सकेंगे तथा दूसरे देशों से अन्न, चीनी, फलों आदि का आयात नहीं करना पड़ेगा। राष्ट्र अन्नादि भोज्य पदार्थों के लिए परमुखापेक्षी न रहकर स्वावलम्बी हो सकेगा। | ‘वपा’ का एक अर्थ चर्बी भी होता है। भाष्यकार महीधर ने न केवल चर्बी, अपितु गाय की चर्बी अर्थ लेकर अनर्थ कर दिया है। उनका कथन है कि इसका विनियोग श्रौतसूत्र में तो नहीं है, किन्तु पारस्कर गृह्यसूत्र में है। उनके अनुसार मन्त्र में जातवेदस् अग्नि को कहा जा रहा है कि तू दूर-दूर पितृलोक में बसे पितरों के लिए गाय की चर्बी वहन करके ले जा। पितरों के लिए चर्बी की चिकनई की नहरें बहती हुई पहुँचे ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. जातं वेदो राजनीतिविज्ञानं यस्य स जातवेदाः सम्राट् ।

२. पान्ति रक्षन्ति पालयन्ति च ये ते पितरः कृषीवलाः ।।

३. (वपाम्) वपन्ति यस्यां भूमौ ताम्-द० ।

४. (मेदसः) स्निग्धाः (कुल्याः ) जलप्रवाहधारा:-द० ।

५. अस्या विनियोगः श्रोतसूत्रे नास्ति, किन्तु गृह्यसूत्रेऽस्ति । तथाहि मध्यमा

गवा तस्यै वपां जुहोति वह वपां जातवेदः पितृभ्यो’ (पार० ३.३) इति। अस्यार्थ: मध्यमाष्टका गोपशुना कार्या, तस्या धेनोर्वपां जुहोति वह वपामिति मन्त्रेणेत्यर्थः-म० ।।

कृषकों को भूमि आवंटित हो – रामनाथ विद्यालंकार