Category Archives: वेद मंत्र

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः। देवता परमात्मा आचार्यश्च । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

दधिक्राव्णोऽअकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।। सुरभि नो मुखा करत्प्र णूऽआयूछषि तारिषत् ॥

-यजु० २३.३२

हमने ( दधिक्राव्णः ) धारण करनेवाले तथा आगे बढानेवाले, (जिष्णोः ) विजयशील, ( अश्वस्य ) व्यापक ज्ञानवाले, ( वाजिनः ) बलवान् परमेश्वर तथा आचार्य की (अकारिषम् ) स्तुति की है। वह ( नः मुखा) हमारे मुखों को ( सुरभि ) सुगन्धित (करत् ) करे, और (नः आयूंषि ) हमारी आयुओं को ( प्रतारिषत् ) बढ़ाये ।।

आओ, दधिक्रावा वाजी ‘अश्व’ की स्तुति करें। वह हमारे मुखों को सुरभित करेगा और हमारी आयुओं को बढ़ायेगा। क्या कहा? दधिक्रावन्, वाजिन् और अश्व ये तीनों तो घोड़े के पर्यायवाची नाम है। घोड़ा कैसे हमारे मुख सुरभित करेगा और कैसे हमारी आयु बढ़ायेगा ? रहस्यार्थ कुछ और ही प्रतीत होता है। ये तीनों नाम आचार्य और परमेश्वर के भी हैं। आचार्य दधिक्रावा’ है, क्योंकि वह ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करने के कारण ‘दधि’ और उसे उद्यमी और क्रियाशील बनाने के कारण ‘क्रावा’ है। परमेश्वर जगत् को धारण करने के कारण ‘दधि’ और मनुष्य को सक्रिय करने के कारण ‘क्रावा’ है । आचार्य और परमेश्वर दोनों को ‘वाजी’ इस हेतु से कहते हैं कि दोनों ज्ञान के बल से बली हैं। आचार्य को ‘अश्व’ कहने में यह कारण है कि वह गुरुकुल-रूप रथ का सञ्चालक तथा व्यापक ज्ञानवाला होता है और परमेश्वर सर्वव्यापक होने से ‘अश्व’ कहलाता है। आचार्य और परमेश्वर दोनों के लिए मन्त्र में ‘जिष्णु’ विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि दोनों विजयशील हैं। आचार्य ब्रह्मचारी के अज्ञान पर विजय पाता है और परमेश्वर सब दुर्गुणी राक्षसों और दुर्गुणों पर विजयी होता है।

स्तोता कह रहा है कि मैं आचार्य और परमेश्वर रूप अश्व की स्तुति करता हूँ, उनके गुणों का कीर्तन करता हूँ तथा उनमें से जो गुण मेरे धारण करने योग्य हैं, उन्हें मैं भी धारण करता हूँ। ब्रह्मचारी का कर्तव्य है कि वह अपने आचार्य का यथायोग्य सम्मान करे, उसके पढ़ाये हुए पाठ को स्मरण करे, उसके उपदेशों का पालन करे । ब्रह्मचारी आचार्य से सीख कर जब वेदमन्त्र, शिक्षाप्रद श्लोक, सूक्तियों आदि का उच्चारण करते हैं और ज्ञान की बातें बोलते हैं, तब उनसे उनके मुख सुरभित होते हैं। आचार्य उनसे यथायोग्य व्यायाम तथा प्राणायाम आदि योगक्रियाएँ करा कर उनके शरीरों को बलवान् बनाता है, जिससे उनकी आयु बढ़ती है। परमेश्वर अपने स्तोताओं को ‘श्रेष्ठ ज्ञान तथा सदाचार’ में प्रवृत्त करता है तथा उन्हें सर्वचन बोलने की प्रेरणा करता है, दूसरों की निन्दा आदि से बचाता है। इस प्रकार वह उनके मुखों को सुगन्धित करता है। वह उन्हें सत्कर्मों में प्रवृत्त कर तथा दुर्व्यसनों से हटा कर उनकी आयु को भी बढ़ाता है। |

आइये, हम भी आचार्य और परमेश्वर रूप · अश्व’ की स्तुति-उपासना करके अपने मुखों को सुरभित करें और दीर्घायुष्य प्राप्त करें।

पादटिप्पणियाँ

१. मुखा=मुखानि । सुरभि=सुरभीणि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७० । | करत्-कृ धातु लेट् लकार, करोतु । प्रतारिषत्-प्र पूर्वक तृ धातुवर्धनार्थक होती है, लेट् लकार।

२. निघं० १.१४

३. गर्भे दधातीति दधिः, क्रमर्यात क्रियाशीलं करोतीति क्रावा। दधिश्चासौक्रावा चेति दधिक्रावा ।

४. दधाति जगद् यः स दधिः, क्रमयति सक्रियं करोतीति क्रावा।दधिश्चासौ क़ावा चेति दधिक्रावा ।

वह हमारे मुख सुवचनों से सुरभित करे -रामनाथ विद्यालंकार 

बकरा घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार

बकरा  घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः। देवता यज्ञः । छन्दः निवृद् जगती।

एष छार्गः पुरोऽअश्वेन वाजिन पूष्णो भूगो नीयते विश्वदेव्यः। अभिप्रियं यत्पुरोडाशमर्वता त्वष्टेदेनसौश्रवसाय जिन्वति

-यजु० २५.२६

 (एषः ) यह (विश्वदेव्यः१) सब इन्द्रियों का हितकर्ता ( छागः२) विवेचक मन (वाजिनाअश्वेन) बलवान् कर्म फलभोक्ता जीवात्मा के साथ ( पूष्णः भागः ) पोषक परमेश्वर का भक्त बनकर उसके प्रति ( नीयते ) ले जाया जा रहा है। ( अर्वता ) पुरुषार्थी जीवात्मा के साथ ( अभिप्रियं) परमेश्वर को प्रसन्न करनेवाले ( पुरोडाशं ) हविरूप ( यत् ) जिस मन को और ( एनं ) इस जीवात्मा को ( त्वष्टा ) सृष्टिकर्ता परमेश्वर ( इत् ) निश्चय ही ( सौश्रवसाय ) उत्तम यश के लिए (जिन्वति) तृप्त करता है।

आओ, बकरे को घोड़े के सिर में बाँध कर ‘पूषा’ के पास ले चलें। ये बकरा और घोड़ा पशुपति पूषा के पास जाकर उसकी भक्ति करेंगे। किन्तु कहीं आप इन्हें सचमुच का बकरा और घोड़ा पशु मत समझ लेना। बकरे का वाचक शब्द मन्त्र में छाग’ है। छाग शब्द छेदनार्थक ‘छो’ धातु से बनता है। मनुष्य के मन को भी छाग’ कहते हैं, क्योंकि मन किसी गूढ़ सन्दर्भ की काट-छाँट या विवेचना करके विवक्षित भाव को निकालता है। ‘अश्व’ शब्द भोजनार्थक क्रयादिगणी अश धातु से बना है, जिसका अर्थ यहाँ कर्मफलभोक्ता जीवात्मा है। अति बलिष्ठ होने के कारण वह ‘वाजी’ कहलाता है। पूषा’ पोषक परमेश्वर का नाम है। मनुष्य अपने मन और आत्मा को पूषा परमेश्वर के सान्निध्य में ले जाकर उसकी उपासना  करते हैं, तो वे भी पूषा परमेश्वर के पोषण गुण से युक्त हो जाते हैं। वे स्वयं परिपुष्ट और शक्तिशाली होकर अन्यों को भी पोषण प्रदान करते हैं। इस प्रकार पुष्टि का साम्राज्य सर्वत्र छा जाता है। पूषा’ परमेश्वर के साथ-साथ मनुष्य के मन और आत्मा त्वष्टा’ परमेश्वर की भी उपासना करते हैं, जो सृष्टि का रचयिता अद्भुत शिल्पकार है। त्वष्टा की उपासना से मनुष्य के मन और आत्मा भी शिल्पकार और अद्भुत कारीगर हो जाते हैं। मन और आत्मा मिलकर स्वान्त:सुख तथा परसुख के लिए सत्साहित्य की सृष्टि करते हैं, जनहित के लिए तरह तरह के उपयोगी यन्त्र, यान, ओषधि, चिकित्सा के उपकरण, ज्ञानवर्धन तथा मनोरञ्जन के साधन आदि का आविष्कार करते हैं। मन और आत्मा त्वष्टा प्रभु के पुरोडोश (समर्पणीय हवि) बन जाते हैं, त्वष्टा प्रभु को आत्मसमर्पण कर देते हैं। इनके आत्मसमर्पण से सन्तष्ट होकर त्वष्टा’ इन्हें सौश्रवस अर्थात सुकीर्ति से संतृप्त कर देता है। |

आओ, हम भी अपने बकरे और अश्व अर्थात् मन और आत्मा को पूषा और त्वष्टा देव के प्रति ले जायें तथा उन दोनों के गुण-कर्मों से संतृप्त होकर स्वयं को कृतार्थ करें।

पादटिप्पणियाँ

१. विश्वेभ्यो देवेभ्यः इन्द्रियेभ्यो हित: विश्वदेव्यः ।

२. छ्यति छिनत्ति विविनक्ति विषयान् यः स छाग: मनः । छो छेदने,दिवादिः ।।

३. अश्नाति कर्मफलानि भुङ्के यः सोऽश्व: जीवात्मा। (अश्वः कस्मात् ?अश्नुते ऽध्वानं महाशनो भवतीति वा, निरु० २.२८) ।

४. ऋच्छति गच्छति पुरुषार्थी भवतीति अर्वा ।।ऋ गतौ, वनिप् प्रत्यय उ० ४.११४।।

५. पुर: अग्रे दायते दीपते इति पुरोडाशः हविः ।| पुरस्-दाशे दाने।।

६. श्रूयते इति श्रवः यशः, शोभनं श्रवः सुश्रवः, सुश्रवसो भावः सौश्रवसम्।

७. जिवि प्रीणने, भ्वादिः ।

बकरा  घोड़े के साथ -रामनाथ विद्यालंकार 

परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार

परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः। देवता विश्वेदेवाः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

ये वजिने परिपश्यन्ति पक्वं यऽईमाहुः सुरभिर्निर्हरेति । ये चार्वतो मासभिक्षामुपासतऽतो तेषाभिगूर्हिर्नऽइन्वतु ।।

-यजु० २५.३५

( ये ) जो विद्वान् लोग ( वाजिनं ) बलवान् ब्रह्मचारी को ( पक्वं ) विद्या और सदाचार से परिपक्व ( परिपश्यन्ति ) देखते हैं, और ( ये ) जो ( ईम् ) इसके विषय में (आहुः ) कहते हैं कि यह ( सुरभिः ) पाण्डित्य और सदाचार से सुरभित हो गया है, हे आचार्यवर ! ( निर्हर इति ) अब इसका समावर्तन संस्कार करके समाजसेवा के लिए इसे गुरुकुल से बाहर निकालिये, ( ये च ) और जो ( अर्वतः१) क्रियाशील उस ब्रह्मचारी के (मांसभिक्षाम् उपासते ) मांसल शरीर की भिक्षा माँगते हैं, ( उतो ) अरे ! ( तेषाम् अभिगूर्ति:२) उनका उद्योग ( नः इन्वतु ) हमें भी प्राप्त हो, अर्थात् हम भी वैसा ही करें।

माता-पिता अपने बालक को ज्ञानी और सदाचारी बनाने के लिए गुरुकुल में आचार्य को सौंप देते हैं। वह आचार्य तथा अन्य गुरुजनों के सान्निध्य में रहता हुआ विद्वान् और आचारवान् बन जाता है। जब वह आचार्य के पास आता है, तब कुम्हार के कच्चे घड़े के समान ज्ञान और आचार में कच्ची होता है, गुरुजनों की शिक्षारूप अग्नि से आबे की अग्नि से घड़े के समान परिपक्व हो जाता है। तब उससे पाण्डित्य और सदाचार को सुगन्ध उठने लगती है।

जब ब्रह्मचारी के माता-पिता आदि सम्बन्धी जन तथा समाज के विद्वद्वर्ग यह देखते हैं ब्रह्मचारी गुरुकुल में पढ़कर तथा व्रतपालन करके विद्वान्, व्रतनिष्ठ तथा सदाचारी हो गया है, कच्चे से परिपक्व हो गया है और इसके अन्दर से ज्ञान विज्ञान तथा सत्यनिष्ठा का सौरभ उठ रहा है, तब वे आचार्य से प्रार्थना करते हैं कि अब आप इसका समावर्तन संस्कार करके इसे समाजसेवा के लिए गुरकुल से बाहर भेजिए। वे यह भी देखते हैं कि जो बालक गुरुकुल-प्रवेश के समय गुमसुम और उदासीन लगता था, वह अब चुस्त और क्रियाशील हो गया है, तब उनकी और भी अधिक इच्छा होती है कि इसका मांसल शरीर जनता की सेवा में लगना चाहिए। वे आचार्य से इसके मांसल शरीर की समाज के लिए भिक्षा माँगते हैं।

अन्तिम चरण में कहा गया है कि जो लोग आचार्य से वाजी तथा ज्ञान एवं सद्वृत्त में परिपक्व ब्रह्मचारी को गुरुकुल से बाहर भेजने की प्रार्थना करते हैं, उनका यह उद्यम हमें भी प्राप्त हों, अर्थात् हम भी उद्यमी होकर आचार्य से वैसी प्रार्थना करें। इस प्रकार आचार्य हम सबकी इच्छा का आदर करके ब्रह्मचारी को समाज के अर्पण करेंगे, जिससे सारा समाज कृतार्थ होगा, समाज से कुरीतियों का उन्मूलन होगा, ज्ञानसलिल की धारा बहेगी, सदाचार चिरंजीवी होगा, कदाचार तिरस्कृत होगा। ऐसे अनेक ब्रह्मचारी गुरुकुल से बाहर आयेंगे और विभिन्न प्रदेशों को अपना कार्यक्षेत्र बना कर ज्ञान प्रसार करेंगे, तो राष्ट्र उन्नति के शिखर पर आसीन होकर गौरवान्वित होगा।

पादटिप्पणियाँ

१. ऋ गतिप्रापणयोः । ऋच्छति क्रियाशीलो भवतीति अर्वान्, तस्य अर्वतः ।

२. अभिगुरी उद्यमने, क्तिन् ।

३. इन्वतु प्राप्नोतु । इन्वति गत्यर्थक, निघं० २.१४

४. प्रस्तुत मन्त्र का अर्थ उवट एवं महीधर ने अश्वमेध के अश्व को काट कर पकाने के पक्ष में किया है।

परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार 

भौतिक और दिव्य सम्पदा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

भौतिक और दिव्य सम्पदा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः। देवता प्रजा। छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।

सुगव्यं नो वजी स्वश्व्यै पुसः पुत्राँ२ ॥ऽउत विश्वपुषारयिम् । अनागास्त्वं नोऽअदितिः कृणोतु क्षत्रं नोऽअश्वो वनताहुविष्मन्॥

-यजु० २५.४५

( वाजी ) बलवान् धनी परमेश्वर (नः ) हमारे लिए ( सुगव्यं ) श्रेष्ठ गौओं का समूह, (स्वश्व्यं ) श्रेष्ठ घोड़ों का समूह, ( पुंसः पुत्रान्) पुरुषार्थी पुत्र-पुत्रियाँ ( उत ) और (विश्वापुषं रयिम् ) सबका पोषण करनेवाली सम्पत्ति (कृणोतु) करे, देवे। (अनागास्त्वं ) निरपराधता एवं निष्पापता (नः ) हमारे लिए ( अदितिः ) वेदवाणी (कृणोतु ) करे। ( हविष्मान्) प्रजा से कर लेनेवाला (अश्वः ) राष्ट्ररथ को चलानेवाला राजा ( नः ) हमें ( क्षत्रं ) क्षात्रबल और क्षत से त्राण (वनता ) प्रदान करे।

परमेश्वर ‘वाजी’ अर्थात् बहुत बलवान् है। शरीरधारी न होते हुए भी वह शारीरिक बल के और अध्यात्म बल के भी सभी कार्य करता है। लोकलोकान्तरों को उसने बिना डोर के ही आकाश में लटकाया हआ है, जैसे कोई बली परुष अपनी भुजा से पकड़कर भारी से भारी वस्तु को आकाश में स्थिर रखे। अध्यात्म बल के कार्य भी वह करता है, जैसे निर्बुद्धि को परम बुद्धिमान् बना देता है और आत्मा में इतना बल दे देता है कि वह अणु होता हुआ भी बड़े से बड़े कार्य कर सके। ‘वाजी’ का अर्थ धनी भी होती है। परमेश्वर धनवान् भी इतना है कि समस्त सांसारिक और आध्यात्मिक धन उसके पास हैं। हम चाहते हैं कि वह हमें ‘सुगव्य’ अर्थात् श्रेष्ठ गौओं का समूह और ‘स्वश्व्य’ अर्थात् श्रेष्ठ अश्वों का समूह प्रदान करे। पशुरूप गौओं और घोड़ों के समूह की प्रत्येक को यजुर्वेद ज्योति आवश्यकता नहीं होती, व्यापारी को ही हो सकती है। ‘गौ’ किरण या प्रकाश का वाचक भी है। ‘सुगव्य’ का अर्थ है। अध्यात्मप्रकाश की किरणों का समूह और ‘स्वश्व्य’ से श्रेष्ठ प्राणबल का समूह भी अभिप्रेत है, जिसकी प्रत्येक को आवश्यकता और चाह होती है। हम चाहते हैं कि ‘वाजी’ परमेश्वर हमें पुरुषार्थी पुत्र-पुत्रियाँ भी प्रदान करे। पुत्र और पुत्रियों का समास होने पर संस्कृत-व्याकरण में एकशेष के नियम से ‘पुत्र’ ही शेष रहता है। अतः ‘पुंसः पुत्रान्’ में पुत्रों के साथ पौरुषवती पुत्रियाँ भी सम्मिलित हैं। धनी परमेश्वर से हम ‘विश्वापुष रयि’ अर्थात् सबका पोषण करनेवाली सम्पत्ति की भी याचना करते हैं। वह समाज और राष्ट्र में प्रत्येक के निर्वाह के लिए आवश्यक सम्पदा प्रदान करे। संसार में कुछ का ही पोषण न होकर सबका पोषण होना चाहिए, यही वैदिक मर्यादा है।

इसके अतिरिक्त ‘अनागास्त्व’ अर्थात् निष्पापत्व भी हम पाना चाहते हैं। अदिति’ हमें निष्पापता प्रदान करे। अदिति का एक अर्थ वेदवाणी’ भी है। वेद में निष्पाप होने की प्रार्थना प्रचुरता के साथ मिलती है। अथर्ववेद पाप में चेतनत्व का आरोप करके उसे फटकारते हुए दूर भाग जाने का आदेश देता है। पाप धुएँ में घट कर, पानी में गल कर नष्ट हो जाए.५ यह कहा गया है। संसार की वस्तुओं का नाम ले-ले कर कहा गया है कि वे हमें पाप से मुक्त करें। वेद से प्रेरणा लेकर हम मानसिक और क्रियात्मक दोनों प्रकार के पापों से मुक्त रहें, तभी हम उन्नतिपथ पर अग्रसर हो सकते हैं।

प्रजा से ‘हवि’ अर्थात् कर लेनेवाला और राष्ट्ररथ को अश्व के समान चलानेवाला राजा हमें सैनिक शिक्षा देकर क्षात्रबल से युक्त करे। वेद सैनिक शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य बताता है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अदिति:=वाक्, निघं० १.११

२. वन सम्भक्तौ ।

३. (वाजं) धनम् ऋ० ६.५४.५, द० भा० ।।

४. अ० ६.४५.१ । ५. अ० ६.११३.२ । ६. अ०. ११.६

भौतिक और दिव्य सम्पदा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार 

महेन्द्र जगदीश्वर -रामनाथ विद्यालंकार

महेन्द्र जगदीश्वर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी जगती ।

महाँ२॥ऽइन्द्रो वज्रहस्तः षोडशी शर्म यच्छतु। हन्तु पाप्मानं योऽस्मान्द्वेष्टि उपयामगृहीतोऽसि महेन्द्राय त्वैष ते योनिर्महेन्द्राय त्वा॥

-यजु० २६.१०

( महान् ) महान् है ( इन्द्रः ) परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर, ( वज्रहस्तः ) वज्र अर्थात् दण्डशक्ति उसके हाथ में है, ( षोडशी ) सोलहों कलाओंवाला अर्थात् पूर्ण है। वह हमें ( शर्म यच्छतु ) सुख देवे। ( हन्तु) विनष्ट करे ( पाप्मानं ) पाप को, (यःअस्मान्द्वेष्टि) जो पाप हमसे द्वेष करता है। हे मेरे आत्मन् ! (उपयामगृहीतःअसि) तूने यम, नियम आदि व्रत ग्रहण किये हुए हैं, ( महेन्द्राय त्वा ) मैं तुझे महेन्द्र के अर्पित करता हूँ। (एष ते योनिः ) यह महेन्द्र तेरा शरणगृह है। (महेन्द्राय त्वा ) महेन्द्र की स्तुति, प्रार्थना, उपासना के लिए तुझे प्रेरित करता हूँ।

इन्द्र परमेश्वर का नाम है, क्योंकि वह परमैश्वर्यवान् है। वह महान् सम्राट् है, उसकी महिमा महान् है। वह ‘वज्रहस्त’ है, अधार्मिक दुराचारियों को दण्ड देने के लिए उसके हाथ में वज्र रहता है। वज्रपात करता है वह दुष्टों पर, उनकी सब सम्पदा वज्र के आघात से चूर-चूर हो जाती है। थोड़ी देर पहले जो फूल-फल रहे थे, क्षण भर में धूल में लोटने लगते हैं। वह षोडशी है, पूर्णिमा के चाँद के समान सोलहों कलाओं से परिपूर्ण है, उसमें कोई न्यूनता नहीं है। न उसके ज्ञान में कोई कमी है, न कर्म में कोई कमी है, न उसके ईश्वरत्व में  कोई कमी है। हम चाहते हैं कि वह हमें सुख प्राप्त कराये, आनन्द-सागर में गोते लगवाये, आनन्द की लहरों में झुलाये, हमारा कल्याण ही कल्याण करे। पाप विचार और पाप कर्म, जो हमसे द्वेष करते हैं और हमें घेरे रहते हैं, उन्हें वह विनष्ट कर दे। चोरी, हिंसा, गुरुद्रोह, कन्याभ्रूणहत्या, आतङ्कवाद, बलात्कार आदि पातक हमारे समाज से लुप्त हो जाएँ।

हे मेरे आत्मन् ! तू ‘उपयामगृहीत’ है, तूने यम-नियमों, उपनियमों के पालन का व्रत ग्रहण किया है, दीक्षा ली है। व्रतपालन की शक्ति प्राप्त करने के लिए मैं तुझे ‘महेन्द्र’ के अर्पित करता हूँ, महामहिम जगदीश के सुपुर्द करता हूँ। वह शक्ति का भण्डार है, तुझे भी शक्ति देगा। वह व्रतपति है, तुझे भी व्रतपति बनायेगा। वह महेन्द्र तेरा शरणगृह है, शरणागतत्राता है। उस महेन्द्र की स्तुति, प्रार्थना, उपासना के लिए तुझे प्रेरित करता हूँ, तत्पर करता हूँ, उस महेन्द्र का प्रेमी तुझे बनाता हूँ, उसके ध्यान में मग्न तुझे करता हूँ। तू महेन्द्र का हो जा, महेन्द्र तेरे पीछे-पीछे दौड़ेगा। |

आओ, वज्रहस्त, षोडशी महान् इन्द्र के गीत गायें। वह हमें सुख-सरोवर में स्नान करायेगा, महापापों से हमारा त्राण करेगा, हमारे समर्पण को स्वीकार करेगा।

पादटिप्पणियाँ

१. ‘इदि परमैश्वर्ये’ इस धातु से रन् प्रत्यय करने पर इन्द्र शब्द सिद्धहोता है। य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वर:-स०प्र०, समु० १।।

२. योनि=गृह। निघं० ३.४

महेन्द्र जगदीश्वर -रामनाथ विद्यालंकार 

धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः महीयवः । देवता ईश्वरः । छन्दः विराड् आर्षी गायत्री।

एना विश्वान्युर्यऽआ द्युम्ननि मानुषाणाम्। सिषासन्तो वनामहे

-यजु० २६.१८

( अर्यः) ईश्वर ने ( मानुषाणां ) मनुष्यों के ( एना विश्वानि द्युम्नानि ) इन सब धनों को ( आ ) प्राप्त कराया है। हम उन्हें  (सिषासन्तः१)  दान करना चाहते हुए (वनामहे ) सेवन करें।

‘अर्य’ शब्द के दो अर्थ होते हैं, ईश्वर (स्वामी) और वैश्य । ईश्वर अर्थ में यह अन्तोदात्त होता है और वैश्य अर्थ में आद्युदात्त ।’ यहाँ अन्तोदात्त होने से ईश्वर अर्थ है। ‘द्युम्न’ शब्द निघण्टु में धनवाचक शब्दों में पठित है। दीप्त्यर्थक द्युत धातु से इसकी निष्पत्ति होती है। जगत् में धन भरे पड़े हैं। सोना, चाँदी, हीरे, गन्धक, कोयले, नमक आदि की खाने हैं, मिट्टी के तेल के कूप हैं, समुद्र में मोती बिखरे हुए हैं। धरती अन्न उपजाती है। बाग-बगीचे फल देते हैं। रेशम के कीट रेशम देते हैं, जिनसे रेशमी वस्त्र बनते हैं। कपास के पौधे कपास देते हैं, जिनकी रुई से वस्त्र बनते हैं। जङ्गल में जङ्गली फल-फूल-कन्द नि:शुल्क मिल जाते हैं। ईश्वर द्वारा बिना मूल्य के दिये हुए इन सब धनों पर मनुष्य ने अधिकार कर लिया है। अधिकारी मनुष्य इन्हें मोल बेचते हैं। किन्तु हैं वे सब धन परमात्मप्रदत्त ही। कुछ मूल्य चुकानी पड़ जाता है, तो भी मनुष्य को ये सब धन स्वयं बनाने नहीं पड़ते हैं। हैं। ईश्वर के बनाये हुए ही। ईश्वर द्वारा दिये हुए इन धनों का हम उपभोग करते हैं, सेवन करते हैं। मन्त्र हमारा ध्यान इस यजुर्वेद– ज्योति ओर आकृष्ट कर रहा है कि हम इनका सेवन तो करें, किन्तु जिनके पास ये धन नहीं हैं, उन्हें हम इनका दान भी करें। हम पूंजीवादी प्रवृत्ति के होकर इनका अपने ही पास संग्रह न करते चलें, हम अपरिग्रही बनें। अपने पास उतना ही रखें, जितने की हमें आवश्यकता है, उससे अधिक धन, जो हमारे पास है, उसे हम उन्हें दान कर दें, जिन्हें उसकी आवश्यकता है। समाज में कुछ लोग अत्यधिक धनी हों और कुछ अत्यधिक निर्धन हों, यह वैदिक विभाजन नहीं है। वैदिक विभाजन यह है कि सबके पास धन पहुँचना चाहिए। सबको खाने-पीने पहनने का अधिकार है। उस अधिकार को जहाँ छीना जाता है, वहाँ सीमा से अधिक वैषम्य होता है। कुछ लोगों के कोठे भरे रहते हैं और कुछ लोग अन्न के दाने और वस्त्र के टुकड़े के लिए तरसते हैं, तड़पते हैं। दान की भावना इस वैषम्य का सुन्दर इलाज है। ईश्वर का दिया हुआ धन सब भाई-बहिनों में बाँटकर भोगें, यही वैदिक मन्देश है।

पादटिप्पणियाँ

१. सिषासन्तः, षषु दाने, सनितुं दातुमिच्छन्तः । सन्, शतृ ।

२. वनामहे संभुज्महे, वन संभक्तिशब्दयोः भ्वादिः ।।

३. अर्यः स्वामिवैश्ययो: पा० ३.१.१०३। ऋ गतौ अस्माद् ण्यति प्राप्तेस्वामिवैश्ययो: अभिधेययोः यत् प्रत्ययो निपात्यते । अर्य: स्वामी, अर्यो वैश्यः। ‘यतो 5 नाव:’ पा० ६.१.२१३ इत्याद्युदात्तत्वे प्राप्ते ‘स्वामिन्यन्तोदात्तं च वक्तव्यम् ।’ स्वामिवैश्ययोरिति किम् ? आर्यो

ब्राह्मण:-काशिकावृत्ति।

४. निघं० २.१०।

५. द्युम्नं द्योतते:, निरु० ५.३३

धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः अग्निः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

सं चेध्यस्वग्नेि प्र चे बोधयैनमुच्च तिष्ठ महुते सौभगाय। मा च रिषदुपसत्ता तेअग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु माऽन्ये॥

 -यजु० २७.२

( अग्ने ) हे यज्ञाग्नि ! (सम् इध्यस्व च ) तू समिद्ध भी हो ( प्रबोधय च एनम् ) और इस यजमान को प्रबुद्ध भी कर। ( उत् तिष्ठ च ) ऊँचा स्थित हो ( महते सौभगाय ) हमारे महान् सौभाग्य के लिए। (अग्ने ) हे यज्ञाग्नि! ( मा च रिषत् ) हिंसा न करे ( ते उपसत्ता) तेरे समीप बैठनेवाला यजमान। ( ते ब्रह्माणः ) तेरे ब्राह्मण पुरोहित, यजमान आदि (यशसः सन्तु ) यशस्वी हों, ( मा अन्ये ) अन्य अयाज्ञिक जन यशस्वी न हों।

वायुमण्डल को सुगन्धित और रोगकीटाणुरहित करने के लिए सुगन्धित, मीठे, पुष्टिप्रद और रोगहर द्रव्यों एवं ओषधियों का अग्नि में होम करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। ये द्रव्य अग्नि में जल कर सूक्ष्म होकर वायु में मिलकर पंचभूतों को शुद्ध करते हैं। हे यज्ञाग्नि! तू यज्ञकुण्ड में समिद्ध हो, प्रदीप्त हो, ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से प्रकाशित हो और यजमान को प्रबोध भी प्रदान कर। यजमान तुझसे ऊर्ध्वगामिता का सन्देश ग्रहण करे, तेरे समान स्वयं को ज्योतिष्मान् करे, स्वयं प्रबुद्ध और अन्यों को ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित करे। तुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे तू अपने पास न रख कर जनकल्याण के लिए वायुमण्डल में प्रसारित कर देता है, वैसे ही यजमान जो सम्पदा प्राप्त करे उसमें से पर्याप्त अंश वह सर्वोपयोगी बनाने के लिए दान द्वारा अन्यत्र प्रसारित कर दे। इस प्रकार के बोध यदि यजमान तुझसे ग्रहण करती है, तो यज्ञ से दोहरा लाभ उसे प्राप्त हो जाता है, वायु-जल आदि की शुद्धि और आत्मप्रबोध। हे यज्ञाग्नि! तू हम यजमानों के महान् सौभाग्य के लिए आकाश में ऊँचा होकर स्थित हो। तेरी उच्चता से हम भी उच्च होने का व्रत ग्रहण करेंगे। हे यज्ञाग्नि ! तेरे सामीप्य को प्राप्त करनेवाले यजमान यज्ञ में कोई पशुबलि आदि की हिंसा न करें। यज्ञ का नाम ही ‘अध्वर’ है, अतः उसमें किसी प्रकार की हिंसा न होनी चाहिए। जैसे हमें अपना जीवन प्यारा है, वैसे ही पशु भी अपने जीवन से प्यार करते हैं। यदि हम यज्ञ में पशुहिंसा करते हैं, तो किसी दिन यज्ञ में मनुष्य की भी बलि दी जाने लगेगी। हे यज्ञाग्नि! तुझसे सम्बन्ध स्थापित करनेवाले पुरोहित, यजमान, वेदपाठी, दर्शक आदि सब ब्राह्मण यशस्वी हों। जो भी परोपकार का कार्य करता है, उसे उपकृत लोगों का आशीर्वाद प्राप्त होता है और वह यशस्वी होता है। यज्ञ भी परोपकार का कार्य है, यज्ञकर्ता ब्रह्मज्ञ लोग भी निश्चय ही यशस्वी होते हैं। अन्त में मन्त्र कहता है-‘ मा अन्ये’ अर्थात् जो यज्ञकर्ता नहीं हैं, वे यशस्वी न हों। यदि यज्ञ न करनेवाले लोग भी यशस्वी होने लगेंगे, तो फिर यज्ञ कोई क्यों करेगा? यज्ञ करने से देव परमेश्वर की पूजा होती है, सबके मिल-बैठकर मन्त्रोच्चारण आदि करने से सङ्गतिकरण या सङ्गठन होता है और आहुति-दान, दक्षिणा दान, उपदेश-प्रदान, प्रसाद वितरण आदि का दान भी होता है। इस श्रेष्ठतम कर्म को सभी करें और यशस्वी हों। जो न करेंगे वे अभागे लोग यशस्वी नहीं होंगे, तो वे भी यशस्वी होने के लिए यज्ञ करने लगेंगे और यज्ञ करके वे भी यशस्वी हो सकेंगे। अत: आओ, सब यज्ञ करें और सब यशस्वी हों।

पाद टिप्पणियाँ

१. रिषत्, रिष हिंस्तर्थः, लेट् ।

२. उपसत्ता, उप-षद्लू विशरणगत्यवसादनेषु, तृच् ।

यज्ञाग्नि यजमान को प्रबुद्ध करें -रामनाथ विद्यालंकार  

सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार

सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अग्निः । देवता अग्नि: । छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।

क्षत्रेणाग्नेि स्वायुः सरभस्व मित्रेणग्ने मित्रधेये यतस्व। सुजातान मध्यमस्थाऽएधि राज्ञामग्ने विहुव्यो दीदिहीह॥

-यजु० २७.५

( अग्ने ) हे तेजस्वी सम्राट् ! ( क्षत्रेण ) क्षात्रबल से ( स्वायुः ) अपनी राजकीय आयु (संरभस्व ) प्रारम्भ कर । ( अग्ने ) हे अग्रनायक! (मित्रेण ) मैत्रीसचिव की सहायता से ( मित्रधेये ) अन्य राजाओं को मित्र बनाने में ( यतस्व) यत्न कर। ( सजातानां राज्ञां) सहजात राजाओं में ( मध्यमस्थाः ) केन्द्रस्थ ( एधि ) हो। ( अग्ने ) हे प्रगतिशील ! (विहव्यः ) विशेष प्रशंसनीय होकर ( इह ) यहाँ राजसंघ में ( दीदिहि ) देदीप्यमान हो।

हे अग्नितुल्य नवनिर्वाचित तेजस्वी सम्राट् ! आज से आप सम्राट का कार्यभार संभाल रहे हो। क्षात्रबल के प्रदर्शन से अपनी राजकीय आयु प्रारम्भ करो। शस्त्रास्त्रों का प्रदर्शन करो, सैनिक व्यूहरचना का प्रदर्शन करो, सैनिक अभियान का प्रदर्शन करो, स्थल-सेना, जल-सेना और अन्तरिक्ष-सेना के साहसों का प्रदर्शन करो। अपना क्षात्रबल बढ़ाओ, सेना का क्षात्रबल बढ़ाओ, प्रजा का क्षात्रबल बढ़ाओ। राष्ट्र में सैनिक शिक्षा अनिवार्य करो। क्षात्रबल के प्रदर्शन से आप अजातशत्रु हो सकोगे और यदि कोई राष्ट्र शत्रुता का दम भरेगा भी, तो उससे आत्मरक्षा भी कर सकोगे और उसे पराजित करने को सामर्थ्य भी जुटा सकोगे। आप अपने मन्त्रिमण्डल में ‘मित्र’ नामक मैत्री-सचिव भी रखोगे। उसकी सहायता से राष्ट्रों को अपने मित्र बनाना, मैत्री की सन्धि करना। अपने शत्रु उत्पन्न करना स्वस्थ राजनीति नहीं है। शत्रु यदि कोई राष्ट्र हो भी, तो उससे मैत्री कर लेना ही उचित है। आपके समान कोटि के जो सम्राट् हैं, उनमें शीर्षस्थ या केन्द्रस्थ बनने का यत्न करना। प्रगतिशील बनना, उदासीन नहीं। तब आप अन्य सम्राटों में प्रशंसनीय कहलाओगे। तब राष्ट्रसंघ की सदस्यता ग्रहण करने पर आपको अध्यक्ष का पद प्राप्त होगा, आप देदीप्यमान होंगे। आप अन्य सम्राटों का मार्गदर्शन कर सकोगे और शान्तिस्थापना में आपका विशेष योगदान माना जायेगा।

पदटिप्पणी

१. दीदयति= ज्वलति । निघं० १.१६

सम्राट् को उद्बोधन -रामनाथ विद्यालंकार 

विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार

विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः बृहदुक्थो वामदेवः । देवता इन्द्रः । छन्दः निवृद् आर्षी जगती ।

होता यक्ष्त्तनूनपतिमूतिभिर्जेतारमपराजितम्। इन्द्र देवस्वर्विदै पृथिभिर्मधुमत्तमैर्नराशसेन तेजसा वेत्साज्यस्य होतर्यज॥

-यजु० २८.२

( होता ) अभिनन्दन-यज्ञ का निष्पादक (यक्षत् ) पूजन अभिनन्दन करे। किसका? (ऊतिभिः ) रक्षण-शक्तियों द्वारा ( तनू-नपातम् ) शरीर को न गिरने देनेवाले, (जेतारम् ) विजेता, ( अपराजितम् ) अपराजित ( देवं ) दीप्तिमान् (मधुमत्तमैःपथिभिः ) अधिकाधिक मधुर मार्गों से तथा (नराशंसने तेजसा ) वीर नरों द्वारा प्रशंसनीय तेज से ( स्वर्विदं ) सुख पहुँचाने वाले ( इन्द्रं ) सेनाध्यक्ष का। वह सेनाध्यक्ष अपने अभिनन्दन में ( आज्यस्य वेतु ) घृत का भक्षण करे। ( होतः ) हे अभिनन्दन-यज्ञ के होता! तू ( यज ) अभिनन्दन-यज्ञ कर।

हमारे राष्ट्र ने शत्रु-राष्ट्र पर विजय प्राप्त की है। उसका श्रेय है हमारे वीर सेनानायक को और बहादुर सैनिकों के क्षात्रबल को। विजयी राष्ट्र विजयोत्सव मना रहा है, अपने सेनानायक का अभिनन्दन कर रहा है, सैनिकों को वधाई दे रहा है, सम्मानित कर रहा है। हे होता ! हे अभिनन्दन-यज्ञ के निष्पादक! आरती उतारो अपने वीर सेनाध्यक्ष की, तिलक करो सब वीरों के मस्तकों पर। हमारा सेनाध्यक्ष ‘तनू-नपात्’ है, इसने अपने शरीर को युद्ध में गिरने नहीं दिया है, धराशायी नहीं होने दिया है, हताहत नहीं होने दिया है। इसके विपरीत इसने शत्रुओं के सिरों को धूल चटाई है, शत्रु योद्धाओं को संत्रस्त किया  है, शत्रु वीरों की चौकड़ी भुलायी है, शत्रु-दलों के युद्धोन्माद को लज्जित किया है। हमारा नायक विजेता है, अपराजित है, इसका मुखमण्डल तेज से दमक रहा है। यह अधिकाधिक मधुर मार्गों से और वीर नरों के प्रशंसनीय तेज से विजयी होकर राष्ट्र को सुख पहुँचानेवाला है। इसे घृत और मोदक खिलाकर घृतास्वादनविधि से इसका सत्कार करो। नगाड़े बजाओ, ‘वन्दे मातरम्’ का गीत गाओ, जयकारे लगाओ, राष्ट्रध्वज फहराओ, विजयपदक देकर विजेता वीरों का उत्साह बढ़ाओ।

हे होता! तुम विजय-यज्ञ करो, यज्ञाग्नि में विजय की आहुतियाँ दो, यज्ञ की सुगन्ध से दिशाओं को सुवासित करो, ** आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्” की राष्ट्रिय प्रार्थना का स्वर गुंजाओ। पूर्णाहुतियाँ दो-” ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा, ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा, ओ३म् सर्वं वै पूर्ण स्वाहा।”

पादटिप्पणियाँ

१. यक्ष-यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, लेट् लकार, ‘सिब्बहुलं लेटि’सिप् का आगम, ‘लेटोऽडाटौ’ अडागम।

२. स्वः सुखं वेदयति लम्भयति यः स स्वर्वित् तम् ।

३. वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, लोट् लकार।

विजेता सेनाध्यक्ष का अभिनन्दन -रामनाथ विद्यालंकार 

जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार

जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः भार्गवो जामदग्निः । देवता अर्वा (आत्मा) ।छन्दः विराट् त्रिष्टुप् ।

तव शरीरं पतयिष्णर्वन्तर्व चित्तं वार्ताऽइव ध्रजीमान्। तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुवारण्येषुजर्भुराणा चरन्ति।

-यजु० २९.२२

( तव शरीरं ) तेरा शरीर ( पतयिष्णु ) विनाशशील है। ( अर्वन् ) हे ज्ञानी जीवात्मन् ! (तव चित्तं ) तेरा चित्त (वातः इव) वायु के समान ( ध्रजीमान् ) वेगवान् है। (तवशृङ्गाणि ) तेरे रक्षाबल रूप सींग ( पुरुत्रा ) चारों ओर ( विष्ठिता) विविध रूप में स्थित हैं, जो ( अरण्येषु ) जङ्गलों में भी (जर्भुराणा) देदीप्यमान होते हुए ( चरन्ति ) तेरे साथ विचरते हैं।

जीवात्मा को वेदों में घोड़े-वाची अश्व, अर्वन्, वाजिन् आदि शब्दों से भी उद्बोधन दिया गया है। घोड़े की गति विशिष्ट होती है। चलना आरम्भ करता है, तो लक्ष्य पर पहुँच कर ही दम लेता है। मनुष्य का जीवात्मा भी एक यात्री है। उसे ऊर्ध्वप्रयाण की यात्रा करके मोक्ष के सर्वोन्नत पद पर पहुँचना है। प्रस्तुत मन्त्र में जीवात्मा को अश्ववाचक ‘अर्वन्’ नाम से स्मरण किया गया है।’ अर्वन्’ शब्द ‘ऋ गतिप्रापणयोः’ धातु से औणादिक वनिप् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है।

हे अर्वन् ! हे जीवात्मन् ! जो शरीररूप साधन तुझे कार्य करने के लिए मिला है, वह ‘पतयिष्णु’ है, पतनशील है, गिर जानेवाला है, मरणधर्मा है। इसलिए उससे जल्दी से जल्दी जितना कार्य ले सके ले ले, उसके बल पर जितना उत्थान कर सके कर ले । न जाने यह कब तुझसे छिन जाए। तेरा चित्त वायु के समान गतिमान् है। वह अद्भुत ज्ञान-साधन है। चित्त और शरीर की सहायता से तू जितना भी ज्ञान और कर्म का सम्पादन कर सके कर लें।

हे जीवात्मन् ! तेरे पास सींग भी हैं।’ शृङ्गाणि’ में बहुवचन का प्रयोग यह बता रहा है कि तुझे दो से अधिक सींग मिले। हुए हैं। पशुओं के सींग रक्षा के साधन होते हैं। अत: तेरे अन्दर जो आत्मरक्षा और पररक्षा की शक्तियाँ हैं वे ही तेरे सींग हैं। निघण्टु में ‘ शृङ्गाणि’ को ज्वलद्वाची शब्दों में पठित किया गया है। अत: तेरे अन्दर रक्षा करनेवाली जो तेजस्विताएँ हैं, वे ही तेरे सींग हैं। ये सींग सर्वत्र तेरे साथ रहते हैं। सर्वत्र इनसे तू अपनी तथा अन्यों की रक्षा कर सकता है। इनके द्वारा तू काम, क्रोध आदि आन्तरिक शत्रुओं से भी तथा अन्यायी, अत्याचारी, धूर्त, कपटी, दुर्व्यसनी, पापी मनुष्यों से भी आत्मरक्षा तथा पररक्षा कर सकता है। यहाँ तक कि ये तेरे सींग निर्जन जङ्गलों में भी देदीप्यमान और तीक्ष्ण रहते हैं। जहाँ कोई अन्य रक्षक दृष्टिगोचर नहीं होता, उन बीहड़ वनों में भी तेरे ये सींग रक्षा का बीड़ा उठाते हैं।

हे अर्वन् ! हे घोड़े के समान वेग से आगे बढ़नेवाले जीवात्मन् ! तू अपनी शक्ति को पहचान, अपनी स्थिति को पहचान, अपने साधनों को पहचान और उनका उपयोग करके शीघ्रता से लक्ष्य पर पहुँच जा। तुझे साधुवाद मिलेंगे, तेरा अभिनन्दन होगा, तेरा जयजयकार होगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पतयिष्णु पतनशाले, ताच्छाल्ये इष्णुच्।

२. ध्रजीमान् गतिमत् । ध्रज गतौ, भ्वादिः ।

३. पुरुत्रा, पुरु= बहु, सप्तभ्यर्थ में त्रा प्रत्यय ।

४. विष्ठिता=विष्ठितानि। शि का लोप।

५. जर्भुराणा=जुर्भराणानि, शि-लोप । ‘जर्भुराणा देदीप्यमानानि-उवट’

जीवात्मा का वैभव -रामनाथ विद्यालंकार