Category Archives: वेद मंत्र

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सोमः । छन्दः निवृत् शक्वरी ।

स्वाद्वीं त्वा स्वादुना तीव्रां तीव्रणामृतममृतेन मधुमतीं मधुमता सृजामि सश्सोमेन सोमोऽस्यश्विभ्यो पच्यस्व सरस्वत्यै पच्यूस्वेन्द्रय सुत्राणे पच्यस्व ॥

-यजु० १९ । १

हे सुरा! ( स्वाद्वीं) स्वादु, ( तीव्रां ) तीव्र, ( अमृतां ) अमृततुल्य ( मधुमतीं) मधुर ( त्वा ) तुझे ( स्वादुना ) स्वादु, | ( तीव्रण ) तीव्र (अमृतेन ) अमृततुल्य ( मधुमता) मधुर (सोमेन) सोम के साथ ( संसृजामि) संयुक्त करता हूँ, मिलाता हूँ। सोम के साथ मिलकर हे सुरा! ( सोमः असि ) तू सोम हो गयी है। (अश्विभ्यां पच्यस्व) प्राण और अपान के लिए तू परिपक्व हो। ( सरस्वत्यै पच्यस्व) विद्या के लिए परिपक्व हो, (सुत्राणे इन्द्राय पच्यस्व) सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के लिए परिपक्व हो । |

आओ, सुरा को सोम के साथ मिलायें। किन्तु सुरा को मदिरा समझने की भूल मत कर बैठना। स्वादी, तीव्रा, अमृता, मधुमती सुरा को स्वादु, तीव्र, अमृत, मधुपान् सोम के साथ मिलायें। ‘सुरा’ है वाक् और ‘सोम’ है मन। शब्दार्थक ‘स्वृ’ धातु से ‘स्वरा’ और व् को उ करके वाणीवाची ‘सुरा’ शब्द बना है। सोम का अर्थ मन प्रसिद्ध ही है, क्योंकि ईश्वरीय मन से ही सोम (चन्द्रमा) की उत्पत्ति हुई है। वाणी स्वादु भी हो सकती है और बेस्वाद भी, तीव्र भी हो सकती है और हल्की भी, अमृतरूप भी हो सकती है और मृत भी, मधुर भी हो सकती है और कटु भी। इसी प्रकार मन भी स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुमय भी हो सकता है और बेस्वाद, हल्का, मृत और कटु भी। वाणी को मन में मिलाने का तात्पर्य है मौन हो जाना। जब मनुष्य बोलता है, तब मन वाणी में समाहित हो जाता है और जब मौन होता है, तब वाणी मन में समाविष्ट हो जाती है। मन पहले ही स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर है, वाणी का स्वादुत्व, तीव्रत्व अमृतत्व और मधुरत्व भी उसमें मिलकर मन को और भी अधिक स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर बना देता है। वाणी भी सोम में मिलकर सोम हो जाती है, अर्थात मन में मिलकर मन हो जाती है। मन स्वादता के साथ विचार करता है, तीव्रता के साथ करता है, अमृत अर्थात् सजीवता के साथ करता है, मधुरता के साथ करता है। परन्तु मनुष्य रहता मौन ही है। जितना ही मन किसी विषय में विचार करेगा, उतने ही उस विषय में उसके विचार परिपक्व होंगे। प्राणापान अर्थात् योगाभ्यास के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सरस्वती अर्थात् विद्या के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सुत्रामा इन्द्र अर्थात् सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के विषय में विचार परिपक्व होते हैं। इस प्रकार योगाभ्यास, विभिन्न विद्याओं तथा ईश्वरविज्ञान एवं राजनीति विज्ञान के विषय में मन पूर्ण चिन्तन कर लेता है। तब मन में समाविष्ट वाणी मन से बाहर आ जाती है और मन द्वारा चिन्तित ज्ञान-विज्ञान का प्रचार करती है। यह है सुरा को सोम में मिलाने का रहस्य ।।

आओ, हम भी सुरा को सोम में मिलायें, वाणी को मन में संनिहित करके, मौन होकर गम्भीर चिन्तन करें और परिपक्व विचार बनाकर मौन तोड़े तथा वाणी को पुनः प्रवृत्त करके परिपक्व विचारों का प्रचार करें।

पादटिप्पणी

१. चन्द्रमा मनसो जातः । य० ३१.१२

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः आभूतिः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्गिः।

उपयामगृहीतोऽस्याश्विनं तेजः सारस्वतं वीर्यमैन्द्रं बलम्।। एष ते योनिर्मोदय त्वानन्दाय त्वा महसे त्वा ॥

 -यजु० १९५८

हे सम्राट् ! तू ( उपयामगृहीतः असि) यम-नियमों से गृहीत है, जकड़ा हुआ है। तेरे अन्दर ( आश्विनं तेजः ) प्राण अपान एवं सूर्य-चन्द्र का तेज है, ( सारस्वतं वीर्यम् ) सारस्वत वीर्य है, (ऐन्द्रं बलम् ) विद्युत् का बल है। (एष ते योनिः ) यह राष्ट्र तेरा घर है, आश्रम है, कार्य-स्थल है। ( मोदाय त्वा) मैं तुझे प्रजा के मोद के लिए नियुक्त करता हूँ, (आनन्दाय त्वा ) आनन्द के लिए नियुक्त करता हूँ, (महसे त्वा ) महत्त्व के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ।

हे सम्राट् ! क्या आपको मालूम है कि हमने आपके अन्दर किन गुणों को देखा है और किसलिए आपको इस पद पर प्रतिष्ठित किया है? आप उपयामों’ से बंधे-जकड़े हुए हैं। अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह ये पाँच यम और शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधान ये पाँच नियम आपको ऊँचा उठाये हुए हैं। इनके पालन करने के कारण सब प्रजाजन प्रसन्नता और विश्वास के साथ आपको अपना नेता स्वीकार करने में गौरव अनुभव करते हैं। आपके अन्दर ‘अश्वियुगल’ का तेज विद्यमान है। ‘अश्विनौ’ के अनेक अर्थों में निरुक्तकार ने सूर्य-चन्द्रमा अर्थ भी बताये हैं। आपके अन्दर सूर्य और चन्द्र दोनों का तेज विद्यमान है। जीवन में  दोनों तेजों की आवश्यकता है। सब प्राणी और वनस्पति सूर्य और चन्द्रमा दोनों के तेजों से प्राण ग्रहण करते हैं। सूर्य का तेज उष्ण प्राण और चन्द्रमा का तेज सौम्य प्राण प्रदान करता है। यदि केवल उष्ण प्राण ही प्राप्त हो, तो यह जड़-चेतन जगत् भस्म हो जाए। इसी प्रकार यदि केवल सौम्य प्राण ही प्राप्त हो, तो यह जड़-जङ्गम जगत् सर्दी से ठिठुर कर गल जाए। दोनों तेजों से सप्राण मनुष्य सच्चे अर्थों में तेज से जगमगाता है और अपने सम्पर्क में आनेवालों को तेज से सप्राण करता है। आश्विन तेज’ से भासमान होने के कारण। ही आप सबका नेतृत्व करने में समर्थ हैं। आपके अन्दर ‘सारस्वत वीर्य’ भी है। सरस्वती का वरदान आपको प्राप्त है, वेदवाणी की शिक्षाएँ आपके आत्मा में ओतप्रोत हैं, विद्या का भण्डार आपके पास विद्यमान है, ज्ञान-विज्ञान की बहुमुखी धाराओं में आप निष्णात हैं। इस कारण भी हम आपको अपना नेता बनाना चाहते हैं। फिर आपके अन्दर ‘इन्द्र का बल’ भी है, विद्युत्-जैसी चामत्कारिक शक्ति हैं, जो असंख्यों को अपने पीछे चला सकती है। इस कारण भी हम नेतृत्व का वागडोर आपके हाथों में सौंपने के लिए उत्सुक हो रहे हैं। |

राष्ट्र का यह राजमहल आपके लिए है। आवश्यकता पड़ने पर राजमहल छोड़कर आपको सड़कों पर भी आना पड़ सकता है। आपको हम राजमुकुट पहना रहे हैं। किस लिए? प्रजा को मोद प्रदान करने के लिए, कष्टों से उबार कर उन्नति के शिखर पर चढ़ा कर प्रफुल्ल करने के लिए, प्रजा को पूजास्पद बनाने के लिए, महिमान्वित करने के लिए, तेजस्विता प्रदान करने के लिए। आप आइये और अपना पदभार ग्रहण कीजिए।

सम्राट कैसा और किस लिए नियुक्त -रामनाथ विद्यालंकार 

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषि: हैमवर्चिः । देवता यज्ञ: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया त्यमप्यते ॥

-यजु० १९ । ३०

( व्रतेन ) सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थाश्रमप्रवेश आदि का व्रत लेकर (दीक्षाम्आप्नोति ) दीक्षा प्राप्त करता है। ( दीक्षया ) दीक्षा लेकर ( आप्नोति ) प्राप्त करता है। ( दक्षिणाम् ) दक्षिणा को अर्थात् दीक्षा के फल को। ( दक्षिणा ) दक्षिणा से अर्थात् दीक्षा के फल से ( श्रद्धाम्आप्नोति ) श्रद्धा को प्राप्त करता है, अर्थात् उसे दीक्षा आदि सत्कर्मों में श्रद्धा हो जाती है। ( श्रद्धया) श्रद्धा से ( सत्यम् ) सत्य (आप्यते) प्राप्त होता है।

मनुष्य जब कोई व्रत लेता है, तब पुरोहित या गुरु से उसकी दीक्षा लेता है । दीक्षा-यज्ञ में वह सत्पुरुषों तथा माताओं को भी निमन्त्रित करता है, जिससे वे भी जानें कि उसने यह व्रत लिया है और यदि वह व्रत से डिगने लगे, तो उसे सचेत कर दें। बहुतों के सामने व्रत की दीक्षा लेने में उसे व्रतपालन में सहायता मिलती है। दीक्षा लेने से दीक्षा ग्रहण करनेवाले को दक्षिणा प्राप्त होती है, अर्थात् व्रतग्रहण का फल या लाभ मिलने लगता है। जैसे किसी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया, ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली, तो कुछ समय ब्रह्मचर्य के पालन से उसे उसका लाभ प्राप्त होने लगा। उसके चेहरे पर कान्ति आ गयी, शरीर में बल आ गया, मन शिवसङ्कल्पयुक्त हो गया, आत्मबल भी प्राप्त हुआ। यह उसे दीक्षा की दक्षिणा मिली, अर्थात् दीक्षा का फल प्राप्त हुआ। दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है, अर्थात् यह विश्वास जम जाता है कि यह कार्य बहुत अच्छा है। यथा ब्रह्मचर्यपालन से दक्षिणी (लाभ-प्राप्ति) मिली, तो ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा जमी कि यह कार्य करना चाहिए। श्रद्धा से वह सत्य हृदयङ्गम हो जाता है। यथा ब्रह्मचर्य में श्रद्धा हुई, तो ब्रह्मचर्यरूप सत्य हृदय में घर कर गया। अब व्रतग्रहणकर्ता कभी ब्रह्मचर्य से विचलित नहीं होगा।

मन्त्रोक्त क्रम प्रत्येक व्रतग्रहण पर घटित हो सकता है। कोई प्रतिदिन प्राणायाम और योगासन करने का व्रत लेता है, इस व्रत की दीक्षा लेता है। प्रतिदिन व्रत पालन करने से उसे दक्षिणी प्राप्त होती है, अर्थात् इसका लाभ प्रतीत होने लगता है। लाभ प्रतीत होने से प्राणायाम और योगासन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा से प्राणायाम और योगासन रूप सत्य आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। तब वह अन्यों को भी इसका लाभ बताने लगता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में यह मन्त्र वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा के प्रमाणरूप में दिया है। उनके अनुसार जब मनष्य ब्रह्मचर्यादि तथा सत्यभाषणादि व्रत अर्थात् नियम धारण करता है, तब उस व्रत से दीक्षा को प्राप्त होता है। दीक्षा से दक्षिणा को अर्थात् सत्कारपूर्वक धनादि को प्राप्त होता है। उस सत्कार से श्रद्धा को अर्थात् सत्यधारण में प्रीति को प्राप्त होता है और श्रद्धा से सत्य विज्ञान या सत्य पदार्थ मनुष्य को प्राप्त होता है। इसलिए श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य और गृहाश्रम का अनुष्ठान करके वानप्रस्थ आश्रम अवश्य करना चाहिए।” वैसे प्रत्येक व्रतग्रहण या दीक्षा के लिए यह मन्त्र लागू होता है।

पाद-टिप्पणी

१. दक्षिणा=दक्षिणया। दक्षिणा–आ, पूर्वसवर्णदीर्घ ।

दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार  

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः। देवता पितरः । छन्दः निवृद् अष्टिः ।

पितृभ्यः स्वधायिभ्य: स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः । अक्षन्। पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥

-यजु० १९ । ३६

(स्वधायिभ्यः पितृभ्यः) अन्न-जल की इच्छा वाले पिताओं के लिए (स्वधा ) अन्न-जल हो, (नमः ) उनका नमस्कार आदि से आदर हो। (स्वधायिभ्यः पितामहेभ्यः ) अन्न-जल की इच्छावाले दादाओं के लिए (स्वधा ) अन्न जल हो, ( नमः ) उनको नमस्कार आदि से आदर हो। (स्वधायिभ्यः प्रपितामहेभ्यः) अन्न-जल की इच्छावाले परदादाओं के लिए (स्वधा ) अन्न-जल हो, (नमः ) नमस्कार आदि से आदर हो। (अक्षन् ) भोजन कर लिया है ( पितरः ) पितृजनों ने, (अमीमदन्त ) हमें आनन्दित कर लिया है। (पितरः ) पितृजनों ने, ( अतीतृपन्त ) हमें तृप्त कर दिया है। (पितरः ) पितृजनों ने। हे ( पितरः ) पितृजनो! आप हमें ( शुन्धध्वम् ) उपदेश देकर शुद्ध-करो।

परम्परानुसार मृतकश्राद्ध केवल पिता, पितामह और प्रपितामह के लिए ही किया जाता है, प्रप्रपितामह आदि के लिए नहीं । वेद में भी पिता, पितामह और प्रपितामह तक का ही नाम आता है, परन्तु वह मृतकश्राद्ध नहीं, जीवितों का श्राद्ध है। प्रतिवर्ष श्राद्ध के पखवाड़े में जिस तिथि को जिसका देहान्त हुआ होता है, उस दिन ब्राह्मणों को जिमाया जाता है। तथा उन्हें वस्त्र आदि भेंट किये जाते हैं। समझा यह जाता है।  कि हमारे पितरों को यह भोजन और ये वस्त्रादि पहुँच जाते हैं और इनसे वे तृप्त हो जाते हैं, अन्यथा वे भूखे और निर्वस्त्र रहें।।

‘स्वधा’ शब्द निघण्टु में अन्नवाचक और जलवाचक शब्दों में पठित है।’ मन्त्र कहता है कि अन्न-जल के इच्छुक पिताओं को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उनका आदर करो। अन्न-जल के इच्छुक पितामहों को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उनका आदर करो। अन्न-जल के इच्छुक प्रपितामहों को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उन्हें आदर दो। किसी व्यक्ति के जीवनकाल में उसके अधिक से अधिक प्रपितामह ही जीवित रह सकते हैं। कल्पना कीजिए किसी व्यक्ति का विवाह २५ वर्ष की आयु में हुआ है। सामान्यतया २६ वर्ष की आयु में उसकी सन्तान हो जाएगी। जब २५ वर्ष की आयु में उसके पुत्र का विवाह होगा और उसके पौत्र या पौत्री उत्पन्न होंगे, तब उसकी आयु ५२ वर्ष की होगी, तब वह वानप्रस्थ हो जाएगा। पौत्र का २५ वर्ष की आयु में विवाह होकर जब उसकी सन्तान होगी, तब दादा लगभग ७८ वर्ष का होगा। प्रपौत्र का भी २५ वर्ष की आयु में विवाह होकर जब उसकी सन्तान होगी, तब परदादा की आयु १०५ वर्ष होगी। यदि किसी का विवाह २५ वर्ष से भी कम आयु में हो जाता है, तो प्रपौत्र का पुत्र अपने जीवनकाल में अपने शतवर्षीय प्रपितामह को देख सकेगा। इससे अधिक आयु सामान्यतः नहीं होती है। अतः प्रपितामह तक को ही अन्न-जल देने और नमस्कार आदि से आदर प्रदान करने को वेद कहता है। यदि मृतक श्राद्ध अभीष्ट होता, तो मृतक को अन्न-जल देना और नमस्कार आदि से आदर देना तो प्रपितामह से पूर्व की पीढ़ियों में भी चल सकता था, अतः प्रप्रपितामह आदि का नाम क्यों नहीं लिया गया? वस्तुतः पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र जीवित पितरों का अन्न-जल, नमस्कार आदि से सत्कार कर रहे हैं, अत: वे कहते हैं कि पितृजनों ने भोजन कर लिया  है और आशीर्वाद देकर हमें आनन्दित तथा तृप्त भी कर दिया है। अन्त में पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र उनसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें उपदेश देकर शुद्ध-पवित्र कीजिए। इस प्रकार यह जीवितों का श्राद्ध चलता है।

यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि यदि पिता-पितामह वानप्रस्थ हो चुके होंगे और प्रपितामह भी वानप्रस्थ या संन्यासी होंगे, तो उन्हें भी कभी-कभी घर बुलाकर उनका सत्कार करना अभीष्ट है। अतएव महर्षि दयानन्द ने अपने भाष्य में इस मन्त्र के भावार्थ में लिखा है-”हे पुत्र, शिष्य, पुत्रवधू आदि जनो ! तुम उत्तम अन्नादि पदार्थों से पिता आदि वृद्धों का निरन्तर सत्कार किया करो तथा पितर लोग भी तुमको आनन्दित करें। जैसे पितादि बाल्यावस्था में तुम्हारी सेवा करते हैं, वैसे ही तुम लोग वृद्धावस्था में उनकी सेवा यथावत् किया करो।”

पाद-टिप्पणी

१. स्वधा=जल, निघं० १.१२, अन्न २.७।

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार 

एक देवी -रामनाथ विद्यालंकार

एक देवी -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता वैश्वदेवी वाक्  |छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वैश्वदेवी पुनती देव्यागाद्यस्यामिमा बढ्यस्तुन्वो वीतपृष्ठाः। तया मर्दन्तः समादेषु यस्याम् पर्तयो रयीणाम् ॥

-यजु० १९ । ४४ |

(वैश्वदेवी ) सब विद्वानों का हित करनेवाली’, ( पुनती ) पवित्रता देती हुई (देवी) ज्ञान से प्रकाशित वेदवाणी (आगात् ) आयी है, ( यस्याम् ) जिसके अन्दर (इमाःबढ्यःतन्व:२) ये बहुत-सी विस्तीर्ण विद्याएँ (वीतपृष्ठाः३) व्याप्त पृष्ठों वाली हैं। (तया) उससे (सधमादेषु ) यज्ञों में ( मदन्तः ) आनन्दित होते हुए (वयं) हम (रयीणांपतयः ) धनों के स्वामी (स्याम) हो जायें।

एक देवी आयी है। वह सब विद्वानों का हितसम्पादन करती है, अपवित्रों को पवित्र करती है। वह बहुत-सी विद्याएँ जानती है। उससे विद्याएँ सीख कर धनवान् हो जाओ। यह देवी है वेदवाणी। यास्काचार्य के अनुसार जो दान करता है, प्रकाशित होता है, प्रकाशित करता है, उसे देव कहते हैं। देवी स्त्रीलिङ्ग है। वेदवाणी ईश्वरभक्ति, सत्य, अहिंसा आदि का दान करने, स्वयं ज्ञान से प्रकाशित होने तथा अन्यों को ज्ञान से प्रकाशित करने के कारण ‘देवी’ है। जो वेदवाणी को सीख कर विद्वान् बनते हैं, उन्हें कर्त्तव्याकर्तव्य का बोध करा कर यह उनका हित सम्पादन करती है और जो पापाचार से अपवित्र होते हैं उन्हें सदाचार में प्रवृत्त करके यह उन्हें पवित्रात्मा बनाती है। इस वेदवाणी के अन्दर बहुत-सी विस्तीर्ण विद्याएँ भरी हुई हैं। इसमें अध्यात्मविद्या, योगविद्या, प्राणविद्या और ब्रह्मविद्या भी है, अग्नि-विद्युत्-सूर्य की आग्नेय विद्या भी है, जलविद्या भी है, वायुविद्या भी है, भूगोलविद्या भी है, नक्षत्रविद्या भी है, गणितविद्या भी है, राजनीतिविद्या भी है, यन्त्रविद्या भी है, युद्धविद्या भी है, वर्णाश्रमविद्या भी है, विमानादियानविद्या भी है, सर्पविद्या भी है, हिरण्यविद्या भी है, आयुर्वेदविद्या भी है, धनुर्वेदविद्या भी है, गन्धर्वविद्या भी है, पुनर्जन्म एवं मुक्ति की विद्या भी है, सृष्टिविद्या भी है, कृषिविद्या एवं पशुपालनविद्या भी है। जिन विद्याओं में जिन्हें रुचि हो, उन्हें ध्येय बनाकर वेदवाणी का अध्ययन, पारायण और अनुसन्धान करें, आधुनिक विज्ञान से उसकी तुलना करें। यदि कोई नवीन तथ्य मिलता है, तो उसे आधुनिक विज्ञान से जोड़े। विभिन्न यज्ञ चलाएँ, उनमें वेदवाणी का प्रयोग करें। सङ्गठन करें, आगे बढ़े, उत्कर्ष प्राप्त करें, प्रत्येक क्षेत्र में विजयी हों, धन कमायें, दान करें, आनन्दित हों, आनन्दित करें।

हे वैश्वदेवी देवी! तू हमें पवित्र कर, धर्मात्मा बना, दीर्घायुष्य दे, सबसे बड़े सम्राट् परमेश्वर का सखा बना। उसके साथ हम हँसे, खेलें, दिव्यता का झूला झूलें, धन्य हों।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वेभ्यो देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हिता वैश्वदेवी।

२. (तन्वा:) विस्तृतविद्या:-द० ।।

३. वीतानि व्याप्तानि पृष्ठानि यासु ताः ।।

४. सह माद्यन्ति यत्र स सधमादो यज्ञः । सधमादस्थयोश्छन्दसि पा०६.३.९६ से सह को सध आदेश।

एक देवी -रामनाथ विद्यालंकार 

दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार

दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता पितरः । छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।

द्वे सृतीऽअंशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यनाम्।। ताभ्यामिदं विश्वमेज़त्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ॥

-यजु० १९४७

( पितृणां ) पितृजनों के, ( देवानां ) विद्वानों के ( उत ) और (मर्यानां ) मनुष्यों के (द्वेसृती ) दो मार्ग ( अशृणवम् ) मैंने सुने हैं। ( ताभ्यां ) उन दो मार्गों से ( एजद् विश्वं ) क्रियाशील यह सब जगत् ( समेति ) सञ्चार करता है ( यत् पितरं मातरं च अन्तरा) जो पिता और माता के अर्थात् द्यौ और पृथिवी के मध्य में है।

मनुष्य-जन्म प्राप्त करके संसार में जो जैसे कर्म करते हैं, उन्हें तदनुसार गति प्राप्त होती है। मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ हैं । कुछ लोग ‘पितृजन’ हैं, जिनमें पिता, पितामह, प्रपितामह आते हैं। कुछ ‘देवजन’ हैं, जिनमें विद्वान् लोग आते हैं। कुछ ‘मर्त्य’ हैं, जिनमें साधारण मनुष्य आते हैं। दो मार्ग हैं, एक ‘पितृयाण’, दूसरा ‘देवयान’ । उक्त तीनों प्रकार के मनुष्य अपने जीवनयापन के लिए दोनों में से कोई भी मार्ग चुन सकते हैं । ‘पितृयाण’ है माता-पिता से जन्म प्राप्त करके संसार में विषयभोग का सुख प्राप्त करते हुए जीवन व्यतीत करना । जो इस मार्ग को चुनते हैं वे यदि पशु-पक्षी-कीट-पतङ्ग-सर्प आदि की योनि में जन्म न पाकर कर्मानुसार पुनः मनुष्यजन्म पाते हैं, तो पुनः विषयभोग के सुख में ही लिप्त रहते हैं। इस मार्ग को पितृजन भी चुन सकते हैं, विद्वज्जन भी चुन सकते हैं और साधारण मनुष्य भी चुन सकते हैं। वे पुनः-पुनः किसी योनि में जन्म पाते रहेंगे और जीवन-मरण के चक्र से कभी छूटेंगे नहीं। पुनः पुनः जन्म पाने में सुख और दुःख दोनों ही उन्हें प्राप्त होते हैं। कभी समृद्धि पाकर और अनुकूल वातावरण  पाकर सुखी होते हैं, तो कभी दरिद्रता से और प्रतिकूल वातावरण से, प्रेमी जनों के कष्ट, मृत्यु आदि से दुःखी भी होते हैं। सुख की अपेक्षा दु:ख ही उन्हें अधिक भोगना पड़ता है। कभी व्याधिजन्य दु:ख है, कभी अपने बहुमूल्य धन-धान्य की चोरी का दुख है, कभी डाकुओं द्वारा लूटे जाने का दु:ख है, कभी स्त्री-पुत्रादि के बिछोह का दु:ख है। वे सुख-साधन जुटाते हैं, किन्तु कभी-कभी सुख-साधन भी दु:ख के कारण बन जाते हैं। जैसे प्रासाद बनवाया सुख के लिए, किन्तु वर्षा या भूकम्प से छत कच्ची होकर गिर जाने से परिवार के लोग यमलोक चले गये, तो सुखसाधन भी दु:ख का कारण बन गया। इसी प्रकार सिंह-व्याघ्र आदि द्वारा हानि पहुँचाये जाने का भी दु:ख होता है। अनावृष्टि, अतिवृष्टि भूकम्प, नदी की बाढ़ आदि से आक्रान्त होकर भी मनुष्य दु:ख पाते हैं। विषयभोग से जो सुख प्राप्त होता है, वह भी रोग आदि हो जाने से दु:ख का कारण बन जाता है। इस प्रकार पितृयाण मार्ग का अवलम्बन करनेवाले लोग चाह सुख की ही करते हैं, किन्तु वस्तुतः उन्हें भोगने दु:ख ही अधिक पड़ते हैं।

दूसरा मार्ग है ‘देवयान’। इस मार्ग को भी पूर्वोक्त तीनों प्रकार के लोग चुन सकते हैं, वे विषयभोग की लालसा को छोड़कर सदाचारपूर्वक अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें, अन्य लोगों के साथ मैत्री का व्यवहार करें, व्रत-उपवास आदि करें, योगाभ्यास, ध्यान और साधना द्वारा परमेश्वर में मन को लगायें, निष्काम कर्म करें, अहिंसा-सत्य-अस्तेय आदि यमों का और शौच-सन्तोष-तप आदि नियमों का पालन करें, धारणा-ध्यान-समाधि में मन लगायें, तो वे जन्म-मरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। अतः मन्त्र में कहा गया है कि जो भी पिता-माता अर्थात् द्यावापृथिवी के मध्य में स्थित सब जगत् है, वह इन्हीं मार्गों से गति करता है और उसका फल प्राप्त करता है।

अतः आओ, हम भी अपने विवेक का प्रयोग करें और इन मागों में से जो श्रेयस्कर है, उसी को चुन कर तदनुसारअपने जीवन को चलायें।

पाद-टिप्पणी

१. द्यौः पिता पृथिवी माता। ‘‘असौ वै पिता इयं माता” श० १२.८.१.२१

दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरी कामनाएँ पूर्ण हों-रामनाथ विद्यालंकार

मेरी कामनाएँ पूर्ण हों-रामनाथ विद्यालंकार 

 ऋषिः प्रजापतिः । देवता समित् । छन्दः स्वराड् अतिशक्वरी ।

एधोऽस्येधिषीमहि सुप्रिदसि तेजोऽसि तेजो मयि धेहि। मार्ववर्ति पृथिवी समुषाः समु सूर्यः । समु विश्वमिदं जगत्। वैश्वारज्योतिर्भूयासं विभून्कामान्व्यश्नवै भूः स्वाहा ।।

-यजु० २० । २३

हे परमेश्वर ! आप ( एधः१ असि ) संवृद्ध हो और संवृद्धि देनेहारे हो। आपकी कृपा से हम भी ( समिधीमहि ) संवृद्धि पायें। आप ( समिद् असि ) मशाल के समान आत्मा के प्रकाशक हो, ( तेजः असि ) तेजस्वी हो, ( तेजः मयि धेहि ) मुझमें भी तेज स्थापित करो। आपकी व्यवस्था से ( पृथिवी । समाववर्ति ) भूमि सम्यक् आवर्तन कर रही है, घूम रही है, ( सम् उषाः ) उषा भलीभाँति घूम रही है, ( सम् उ विश्वम् । इदं जगत् ) यह सारा जगत् ही घूम रहा है। ( वैश्वानरज्योतिः भूयासम्) मैं वैश्वानर अग्नि की ज्योति के समान होऊँ। (विभून् कामान् व्यश्नवै ) व्यापक कामनाओं को पूर्ण करूं। ( भूः ) मैं सत्तावान् होऊँ। (स्वाहा ) यह मेरी प्रार्थना पूर्ण हो।

जब मैं इस विशाल ब्रह्माण्ड के रचयिता जगदीश्वर की ओर दृष्टि फेरता हूँ और उसकी रची इस प्रकृति को निहारता हूँ, तब मैं आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। हे सद्गुणनिधान परमेश्वर ! आप स्वयं संवृद्ध हो, सबसे महान् हो। आप परिश्रमी शरणागतों को भी संवृद्ध और महान् बनानेवाले हो। आपकी कृपा से हम भी संवृद्ध और महान् बनें। क्षुद्र कीट पतङ्गों की भाँति संसार में जन्म लें और चले जाएँ, ऐसा जीवन हम नहीं चाहते। आप तो हमें ऐसा महान् बना दो कि  सहस्राब्दियों तक जगत् हमारी महत्ता को स्मरण करता रहे। हे परमेश! आप जलती हुई मशाल हो, मशाल के समान जन जन की आत्माओं के प्रकाशक हो, मार्गदर्शक हो । हे देवेश ! आप तेजोमय हो, सूर्य चन्द्र-तारकावलि से बढ़कर तेजोमय हो। आप हमें भी तेजस्वी बना दो, हमारे आत्मा, मन, बुद्धि और प्राणों को तेजस्विता से ओतप्रोत कर दो।।

हे अखिलेश ! जब हम ब्रह्माण्ड में आपकी व्यवस्था को देखते हैं, तब मुग्ध हो जाते हैं। आपके रचे नियमों के अनुसार ही यह भूमि लट्ट के समान अपनी धुरी पर घूमती हुई अण्डाकृति मार्ग पर सूर्य के चारों ओर भी घूम रही है। इसी से दिन-रात और ऋतुचक्रप्रवर्तन की व्यवस्था आप कर रहे हो। हे विश्वपति ! आप ही उषा को भी घुमा रहे हो। आपके ही नियम का अनुसरण करके प्रतिदिन प्राची में उषा झिलमिलाती है और उसके पश्चात् सूर्य उदित होता है। तम:स्तोम छैट कर प्रकाश की आभा भूमण्डल में बिखर जाती है। केवल पृथिवी, उषा और सूर्य ही नहीं, यह सम्पूर्ण जगत् ही आवर्तन कर रहा है, कुम्भकार के चक्र के समान घूम रहा है और सर्जन कर रहा है अचरज पैदा करनेवाले नाना पदार्थों को। आपकी इस करनी पर हम नतमस्तक हैं।

हे जगत्स्रष्टा ! तुमने सर्वजनहितकारी, जाज्वल्यमान वैश्वानर अग्नि को बनाया है। मुझे भी तुम अग्नि के तुल्य ज्योतिष्मान् बना दो। कहाँ तक मैं तुम्हारी सृष्टि और अपनी कामनाओं का बखान करूं! एक सूत्र में इतना ही कहता हूँ कि मेरी कामनाएँ क्षुद्र न होकर विभु हों, महती हों, जनकल्याण चाहनेवाली हों और तुम्हारी कृपा से वे पूर्ण भी होती रहें। हे देवाधिदेव! मैं सत्तावान् बनूं, जग में मेरा महान् यशस्वी अस्तित्व हो। ‘स्वाहा’-मेरे इन सुवचनों को पूर्ण करो।

मेरी कामनाएँ पूर्ण हों-रामनाथ विद्यालंकार 

हमने ज्ञान-कर्म-भक्ति की त्रिवेणी बहायी हैं-रामनाथ विद्यालंकार

हमने ज्ञान-कर्म-भक्ति की त्रिवेणी बहायी हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः विदर्भि: । देवता अश्विसरस्वतीन्द्राः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

समिद्धोऽअग्निरश्विना तृप्तो घर्मो विराट् सुतः। दुहे धेनुः सरस्वती सोमेशुक्रमिहेन्द्रियम् ॥

-यजु० २०५५

( अश्विना ) हे व्यापक गुणोंवाले वानप्रस्थी-संन्यासी ! हमने ( समिद्धः अग्निः ) प्रदीप्त कर लिया है ज्ञानाग्नि को, ( तप्तः घर्मः ) तपा लिया है कर्मयोगरूप यज्ञकुण्ड को, (विराट् सुतः ) विशाल रूप में भक्तिरस प्रवाहित कर लिया है। ( दुहे’ ) दुह रही है (इह ) इस जीवन में ( सरस्वती धेनुः ) वेदमातारूप गाय ( सोमम्) शान्ति को, (शुक्रम् ) पवित्र यश को, और ( इन्द्रियम् ) आत्मबल को।।

क्या तुम हमें पहचान रहे हो कि हम कौन हैं? नहीं पहचान सकोगे। किसी समय तुमने हमें महा अज्ञानी, अकर्मण्य और नास्तिक देखा था। आज हम प्रभुकृपा से और सन्तों के संग से कुछ और ही हो गये हैं। हमने अपने जीवन में ज्ञान की अग्नि प्रदीप्त कर ली है। विद्वानों के पास बैठकर वेद वेदाङ्गों का अध्ययन किया है, उपवेद पढ़े हैं, षड्दर्शनों का रहस्य पता लगाया है, चौंसठ कलाओं में से भी कुछ कलाएँ सीखी हैं, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थों का भी अवलोकन किया है। फिर भी हम जानते हैं कि हमारा यह ज्ञान समुद्र में बूंद के समान है। अत: अपने ज्ञान का हमें अभिमान नहीं है। हम अब भी विद्यार्थी बने हुए हैं। ज्ञानाग्नि के संग्रह के साथ-साथ हमने कर्मयोगरूप यज्ञ का चूल्हा भी तपाया है,  कर्मकाण्ड की शिक्षा भी प्राप्त की है। मनुष्य के जो कर्तव्य कर्म हैं, उनका भी पालन किया है। धर्म के धृति क्षमा आदि दसों अङ्गों को अपने जीवन में क्रियान्वित किया है। फिर ज्ञान और कर्म के साथ भक्तिरस भी प्रवाहित किया है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि योगाङ्गों का अभ्यास करके प्रभुभक्ति में लीन होकर प्रभु का प्रसाद प्राप्त किया है। ब्रह्मानन्द की सरिता अपने अन्तरात्मा में बहायी है। प्रभु के सखा बनकर उनके साथ अध्यात्म-झूले में झूलने का प्रयास किया है। प्रभु के साथ आनन्द-तरंगिणी में तैरने का सौभाग्य अधिगत किया है। इस प्रकार हमारे जीवन में अब ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी बह रही है।

हमें सरस्वतीरूपा कामधेनु का दुग्धामृत भी प्राप्त हो रहा है। वेदमाता सरस्वती ने हमें जीवन में सोमरस दिया है, शान्ति दी है, शुक्र’ अर्थात् पवित्र यश प्रदान किया है। ‘इन्द्रिय अर्थात् आत्मबल दिया है। इस शान्ति, पावन यश और आत्मबलरूप दूध के आस्वादन से हम कृतकृत्य हो गये हैं, धन्य हो गये हैं। |

हे व्यापक गुणोंवाले वानप्रस्थ और संन्यासीरूप अश्विनी कुमारो! हमारी इस उपलब्धि में तुम्हारा उपदेश और तुम्हारी कृपा भी कारण है। अतः हम तुम्हें नमन करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. दुह प्रपूरणे। दुहे=दुग्धे। ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु’ पा० ७.१.४१ से त | का लोप।।

२. शुक्रम्, शुचिर पूतीभावे, औणादिक रन् प्रत्यय ।।

३. इन्द्रेण आत्मना जुष्टम् इन्द्रियम् आत्मबलम्।

हमने ज्ञान-कर्म-भक्ति की त्रिवेणी बहायी हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

जीवन में मधु, विद्या, यश श्री हो -रामनाथ विद्यालंकार

जीवन में मधु, विद्या, यश श्री हो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषि: विदर्भ: । देवता अश्विसरस्वतीन्द्राः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

अश्विना भेषजं मधु भेषजं नुः सरस्वती ।। इन्द्रे त्वष्टा यशः श्रियरूपश्रूपमधुः सुते॥

-यजु० २० | ६४

( अश्विना ) प्राणापानों ने ( भेषजं मधु ) मधुरूप औषध प्रदान की है, (भेषजंनःसरस्वती ) वेदमाता सरस्वती ने वेदार्थरूप औषध प्रदान की है। ( त्वष्टा ) जगत्स्रष्टा प्रभु ने ( इन्द्रे ) जीवात्मा में ( यशः श्रियम्) यश और श्री दी है। इस प्रकार उक्त सब देवों ने (सते ) जीवन-यज्ञ में ( रूपम रूपम् ) तरह-तरह का रूप (अधुः१) रख दिया है।

हमारे जीवन में जो सरलता, सरसता, समस्वरता, यश, श्री आदि है, वह हमने विभिन्न देवों से प्राप्त की है। अश्वियुगल  के पास ‘मधु औषध है। वे मधुविद्या के आविष्कारक हैं। ‘अश्विनौ’ से यहाँ प्राण-अपान अभिप्रेत हैं। प्राण-अपान शरीर, मन और आत्मा में समस्वरता, सामञ्जस्य, मधुरता, सहृदयता, शान्ति आदि लाते हैं। इन्हीं युगल देव ‘अश्विनौ’ का मधु रूप भेषज है। सरस्वती देवी ‘रसमयी वेदमाता’ है। उससे प्राप्त होनेवाले भेषज का वर्णन अथर्ववेद काण्ड १९ के ७१वें सूक्त ‘स्तुता मया वरदा वेदमाता’ आदि में किया गया है। वेदमाता हमें उत्कृष्ट आयु, उत्कृष्ट प्राण, उत्कृष्ट सर्जनशक्ति (प्रजा), उत्कृष्ट दूर दृष्टि (पशु), उत्कृष्ट कीर्ति, उत्कृष्ट धन व बल (द्रविण) और उत्कृष्ट ब्रह्मवर्चस प्रदान करती है। वेद के मन्त्रों में इनकी प्रेरणा भरी पड़ी है। ‘त्वष्टा’ अर्थात् जगत् के कारीगर परमेश्वर ने हमारे अन्दर यश और श्री उत्पन्न  है। मनुष्य में अन्य जीवों की अपेक्षा मन, मस्तिष्क, वाणी आदि की शक्ति विशेष है। वह चिन्तन कर सकता है, उचित निर्णय ले सकता है, अपनी बात को वाणी से प्रकट कर सकता है। यही उसका यश है। इसके अतिरिक्त वह ऐसे-ऐसे विज्ञान के ग्रन्थ लिख सकता है, ऐसे-ऐसे महान् कार्य कर सकता है, जिनसे उसकी कीर्ति अमर हो जाती है। यह विशेषता त्वष्टा प्रभु ने ही उसे दी है। त्वष्टा देव ने उसे ‘श्री’ अर्थात् शोभा या सौन्दर्य भी प्रदान किया है। सब शरीरों में मानव-शरीर ही त्वष्टा देव की अमर कृति है। इसी को देख कर अथर्ववेद का कवि आश्चर्यचकित होता हुआ कहता है ‘किसने इस शरीर में रूप भरा है, किसने महिमा भरी है, किसने यश भरा है, किसने इसे गति दी है, किसने ज्ञान दिया है, किसने इसे चरित्र दिया है।”

मन्त्र में यद्यपि अश्विनौ, सरस्वती तथा त्वष्टा की कृतियों का ही वर्णन है, तथापि अन्य वैदिक देवों ने भी हमारे अन्दर अपने-अपने रूप भरे हैं। यथा वरुण ने पापनिवारण का, इन्द्र ने वीरता का, मित्र ने मित्रता का अग्नि ने तेजस्विता तथा अग्रगामिता का और वायु ने वेग का रूप भरा है।। |

आओ, देवों द्वारा सजाये-संवारे गये मन, बुद्धि, आत्मा, प्राण आदि सहित इस देह का हम और भी अधिक शृङ्गार करें, इसे और भी अधिक गुणवान् बनायें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. डुधाञ् धारणपोषणयो:, लुङ्।

२. अथर्व० १०.२.१२

जीवन में मधु, विद्या, यश श्री हो -रामनाथ विद्यालंकार 

प्रजननशक्ति-वर्धक हवि -रामनाथ विद्यालंकार

प्रजननशक्ति-वर्धक हवि -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता अग्नि: । छन्दः निवृद् अष्टिः।

इदं हविः प्रजननं मेऽअस्तु दशवीरश्सर्वगणस्वस्तये। आत्मसनि.प्रजासनि पशुसनि लोकुसन्यभयसनि। ग्निः प्रजां बहुलां में करोत्वन्नं पयो रेतोऽअस्मासु धत्त॥

-यजु० १९४८

( इहं हविः ) यह हवि ( मे ) मेरे लिए (प्रजननम् अस्तु ) प्रजननशक्ति देनेवाली हो, तथा ( सर्वगणं ) सब अङ्गों को पुष्ट करनेवाली हो। यह (आत्मसनि) आत्मिक शक्ति को देनेवाली, ( प्रजासनि) सन्तान देनेवाली, (पशुसनि) पशु देनेवाली, ( लोकसनि) लौकिक सुख देनेवाली और ( अभयसनि ) अभय देनेवाली हो। ( अग्निः ) हवि ग्रहण करनेवाला यज्ञाग्नि ( मे ) मेरे लिए ( बहुलां प्रजां करोतु ) बहुत सन्तान देवे । हे ऋत्विजो ! तुम ( अन्नं ) अन्न, ( पयः ) दूध और ( रेतः ) वीर्य ( अस्मासु धत्त ) हमें प्राप्त कराओ।

कर्मकाण्ड में इससे पूर्व के मन्त्र से अग्नि में दूध की आहुति दी जाती है और इस मन्त्र से यजमान पात्र में शेष दूध को पी लेता है। यह तो प्रचलित कर्मकाण्ड की प्रक्रिया है। हम इस मन्त्र का विनियोग इस रूप में भी कर सकते हैं कि इस मन्त्र का पाठ करके यजमान यज्ञाग्नि में दूध की आहुति भी दे और अवशिष्ट दूध का पान भी करे। इस प्रकार दूध की हवि यज्ञाग्नि में भी पड़े और यजमान की जाठराग्नि में भी। दोनों अग्नियों में दूध की हवि पड़ने से यजमान की प्रजनन शक्ति की वृद्धि होगी, ऐसा आशय प्रतीत होता है। प्रात:सायं यज्ञाग्नि में गोदुग्ध की हवि देने से तथा प्रातः और रात्रि गोदुग्ध का पान करने से प्रजनन-शक्ति बढ़ती है। शतपथ ब्राह्मण में ‘दशवीर’ से दस प्राणों का ग्रहण किया है। यह हवि दस प्राणों की शक्ति को भी बढ़ाती है। वहीं ‘सर्वगण’ से सब अङ्गों का ग्रहण किया गया है। सब अङ्गों की शक्ति भी इस हवि से बढ़ती है। अङ्गों में ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, हृदय, तिल्ली, जिगर आँते, रक्तनाडियाँ, फेफड़े आदि सब आ जाते हैं। मन्त्र कहता है कि यह हवि आत्मिक शक्ति को भी बढ़ाती है, मन-बुद्धि-आत्मा इससे प्रभावित होते हैं, इससे प्रजनन-शक्ति बढ़कर सन्ताने भी बलवान् और बुद्धिमान् होती है। गाय, बकरी आदि पशु पालने की शक्ति और योग्यता भी इससे उत्पन्न होती है। लौकिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के सुख भी इससे प्राप्त होते हैं। आत्मा में निर्मलता भी आती है। प्रजा अर्थात् पुत्र-पुत्रियाँ बहुल अर्थात् अधिक संख्या में उत्पन्न करने की शक्ति भी मिलती है। शतपथ ब्राह्मण में जनक याज्ञवल्क्य से पूछते हैं कि अग्निहोत्र किस हवि से किया जाए, तब याज्ञवल्क्य ने सबसे पहले दूध का ही नाम लिया है। प्रजनन-शक्ति बढ़ानेवाली शतावरी आदि अन्य ओषधियाँ भी हैं, जिनकी यज्ञाग्नि में तथा जाठराग्नि में हवि देने से लाभ मिलता है। शतावरी ओषधि वीर्यवर्धक है, इसका वर्णन अथर्ववेद में भी आता है। अन्त में यज्ञ के ऋत्विजों होता, उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा से कहते हैं कि तुम हमें अन्न और दूध सुलभ कराओ, जिनके खान-पान से हमारे शरीर में वीर्य बनेगा। यह अन्न और दूध यज्ञशेष के रूप में हमें प्राप्त हो और कृषि तथा गोपालन द्वारा भी हम प्राप्त करें। हवि में ऐसी सात्त्विक एवं बलप्रद ओषधियाँ भी ग्राह्य हैं, जिनसे आत्मबल, निर्भयता आदि भी विकसित हों।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्राणा वै दशवीराः, प्राणानेवात्मन् धत्ते। श० १२.८.१.२२

२. अङ्गानि वै सर्वे गणाः, अङ्गान्येवात्मन् धत्ते। श० वही

३. आत्मानं सनोति ददातीति आत्मसनि । षणु दाने ।

४. श० ११.३.१.१-३

प्रजननशक्ति-वर्धक हवि -रामनाथ विद्यालंकार