Category Archives: वेद मंत्र

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते ससृजेथामयं च।अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ॥

 -यजु० १५ । ५४

हे (अग्ने ) अग्रासन पर स्थित यजमान! तू (उद् बुध्यस्व ) उद्बुद्ध हो, ( प्रति जागृहि ) जाग जा । ( त्वम् अयं च ) तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर (इष्टापूर्ते ) इष्ट और पूर्त को (संसृजेथाम् ) करो। ( अस्मिन् उत्तरस्मिन् सधस्थे अधि) इस उत्कृष्ट सहमण्डप में ( देवाः ) हे विद्वानो! तुम ( यजमानः च) और यजमान (सीदत ) बैठो।।

हे विद्वन् ! हे अग्रासन पर स्थित यजमान ! तू यज्ञ करने बैठा है, यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित कर रहा है। जैसे अप्रकाशित दीपशलाकाओं की रगड़ से या उत्तरारणि और अधरारणि के संघर्षण से प्रकाशमान अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही तू भी अपने अन्दर विद्याज्योति को जगा। अपने आत्मा से प्रणव-जप का संघर्षण करके दिव्य प्रकाश को उत्पन्न कर । अविद्या की निद्रा को त्याग दे, जाग उठ। तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर इष्ट तथा पूर्त का सम्पादन करें। इष्ट’ शब्द इच्छार्थक इषु धातु से बनता है और देवपूजा, सङ्गतिकरण तथा दान अर्थवाली यज धातु से भी निष्पन्न होता है। अतः * इष्ट’ का अर्थ होता है अभीष्ट सुख, विद्वानों का सत्कार, ईश्वर की आराधना, सन्तों का संग, सत्य विद्यादि का दान। अतः इष्ट सम्पादन करने का आशय होता है कि यजमान को उचित है कि वह यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करके अभीष्ट सुख प्राप्त करने का यत्न करे, अपने से बड़े विद्वानों का यजुर्वेद ज्योति सत्कार करे, ईश्वर की आराधना करे, सत्सङ्गति करे और परोपकार के लिए तन-मन-धन का दान करे। ‘पूर्त’ शब्द पालन-पूरणार्थक पृ धातु का रूप है। इसका अर्थ होता है, पूर्ण विद्याध्ययन, पूर्ण ब्रह्मचर्य, पूर्ण यौवन, पूर्ण साधन उपसाधन आदि। अतः पूर्त सम्पन्न करने का आशय है कि यजमान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, शक्ति से परिपूर्ण खरा यौवन प्राप्त करे, उन्नति के सब साधन-उपसाधनों को संगीत करके भौतिक तथा आत्मिक उत्थान का प्रयास करे। यज्ञ करने के लिए यजमान अकेला ही यज्ञमण्डप में नहीं बैठता है, उसके साथ उसका परिवार, साथी संग तथा अन्य यज्ञप्रेमी जन भी बैठते हैं। ‘सधस्थ’ का अर्थ है यज्ञमण्डप, जिसमें एक साथ बहुत से लोग सुविधापूर्वक बैठ सकें। सधस्थ का विशेषण मन्त्र में उत्तरस्मिन’ दिया है, जिससे सूचित होता है। कि यज्ञ मण्डप सुसज्जित, सज-धज से युक्त तथा सामूहिक यज्ञ के वातावरण से परिपूर्ण होना चाहिए। उस यज्ञमण्डप में विद्वज्जन, यजमान, यजमान-पत्नी, होता, उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं मन्त्रपाठी आदि सब लोग श्वेत वस्त्र धारण करके पवित्र भावना के साथ बैठे। सबके सुनियन्त्रित रूप में बैठ जाने के पश्चात् यज्ञ प्रारम्भ होता है। मन्त्रोच्चारण तथा सब विधि-विधान सम्पन्न होते हैं, पूर्णाहुति प्रदान की जाती है, यजमानों को आशीर्वाद दिया जाता है, ब्रह्मा का उपदेश होता है और यज्ञशेष रूप में यज्ञ का प्रसाद लेकर यज्ञभावना से भावित और संस्कृत होकर यज्ञप्रेमी जन अपने-अपने घरों को जाते हैं। अन्यत्र जाकर भी वे यज्ञ के वातावरण से चिरकाल तक प्रभावित रहते हैं। आइये, हम भी यज्ञ रचा कर उसका लाभ प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ 

१. (प्रतिजागृहि) अविद्यानिद्रां त्यक्त्वा विद्यया चेत-द० ।

२. (इष्टापूर्ते) इष्टं सुखं विद्वत्सत्करणम् ईश्वराराधनं सत्सङ्गतिकरणं | सत्यविद्यादिदानं पूर्ण बलं ब्रह्मचर्यं विद्यालङ्करणं पूर्ण यौवनं पूर्णसाधनोपसाधनं च-द० ।।

३. सह तिष्ठन्ति जना यत्र स सधस्थ: । सह-स्था, सह को सध आदेश ।

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता विदुषी । छन्दः ब्राह्मी बृहती।

परमेष्ठी त्वा सादयतु दिवस्पृष्ठे ज्योतिष्मतीम्। विश्वस्मै प्राणायापनार्य व्यनाय विश्वं ज्योतिर्यच्छ। सूर्यस्तेधिपतिस्तया देवतयाऽङ्गिस्वद् ध्रुवा सीद॥

-यजु० १५।५८

हे विदुषी ! ( त्वा ) तुझे ( परमेष्ठी ) प्रधानमन्त्री ( सादयतु ) प्रतिष्ठित करे ( दिवस्पृष्ठे ) ज्ञानप्रकाश के पृष्ठ शिक्षामन्त्री पद पर, ( ज्योतिष्मतीम् ) तुझ ज्योतिष्मती को, विद्याज्योति से जगमगानेवाली को, (विश्वस्मै ) सबके लिए ( प्राणाय ) प्राणार्थ, (अपानाय ) अपानार्थ, (व्यानाय ) व्यानार्थ । तू (विश्वं ज्योतिः ) समस्त विद्याज्योति को ( यच्छ) नियन्त्रित कर। ( सूर्यः ते अधिपतिः) सूर्य तेरा आदर्श है। ( तयादेवतया) उस देवता से ( अङ्गिरस्वद् ) प्राणवती होकर तू ( धुवा ) अपने पद पर स्थिर होकर (सीद) बैठ।

चुनाव में जो दल बहुमत से विजयी हुआ है, उसने अपने प्रधानमन्त्री का चयन कर लिया है। प्रधानमन्त्री अब अपने मन्त्रिमण्डल का गठन कर रहे हैं। शिक्षामन्त्री पद के लिए सबकी दृष्टि एक विदुषी देवी पर लगी हुई है। उसने शिक्षा की आराधना की है, ज्ञान की ज्योति अपने अन्दर जलायी है। दूसरों के अन्दर भी वे ज्ञान की ज्योति जलाना जानती हैं। वे वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति की पुजारिन हैं। उस विद्या की सर्वोच्च उपाधि उनके पास है। वे शिक्षिका और प्राचार्या रह चुकी हैं। उनके महाविद्यालय की छात्राओं का परीक्षा परिणाम शतप्रतिशत सर्वोन्नत रह चुका है। प्रबन्ध में यजुर्वेद ज्योति भी उन्होंने कुशलता अर्जित की है। साहित्य-सर्जन में भी अग्रणी रही हैं। राष्ट्रपति-सम्मान तथा अन्य अनेकों पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। विदेश का भी अनुभव उनके पास है। सबकी इच्छा है कि शिक्षामन्त्री का पद उन्हें मिले । प्रधानमन्त्री के पास उनके चयन के लिए शिष्टमण्डल का प्रस्ताव पहुँच चुका है। जनता का प्रतिनिधि विदुषी को कह रहा है-”हे देवी! हम सबकी अभिलाषा है कि प्रधानमन्त्री आपको शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन करें, क्योंकि आप * ज्योतिष्मती’ हैं । ज्ञान की ज्योति, अध्यापनकला की ज्योति, सप्रबन्ध की ज्योति आपके अन्दर जगमगा रही है। आपके द्वारा शिक्षाजगत् को प्राण प्राप्त होगा, राष्ट्र की प्रसुप्त शिक्षा जागरूक और सज्ञान हो उठेगी, देश में प्रत्येक जनपद में छात्रों और छात्राओं के विशिष्ट विद्याओं के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय स्थापित होंगे। शिल्पकला, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, गृहविज्ञान आदि सभी विद्याओं को प्रोत्साहन मिलेगा। शिक्षाजगत् को ‘प्राण’ के साथ ‘अपान’ और ‘व्यान’ की भी आवश्यकता है। शिक्षा में जो दोष आ गये हैं, उनका निर्गमन ‘अपान’ द्वारा होगा। शिक्षा का व्यापक प्रसारे ‘व्यान’ द्वारा होगा। आप शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन होकर सकल ज्ञान विज्ञान की शिक्षा को नियन्त्रित करें। प्राचीन भारतीय शिक्षाविदों के अनुभव से लाभ उठायें। विदेशी शिक्षाविदों ने जो शिक्षासूत्र दिये हैं, उन पर भी विचार करें कि वे कहाँ तक अपने देश में लागू हो सकते हैं । द्युलोक से प्रकाश के फब्बारे छोड़ता हुआ सूर्य आपको आदर्श है। जैसे वह विभिन्न लोकों के अन्धकार को मिटा कर प्रकाश का विस्तार करता है, वैसे ही आपको अज्ञान और अविद्या का अंधियारा हटा कर ज्ञान और विभिन्न विद्याओं के प्रकाश को प्रत्येक प्रदेश में फैलाना है । सूर्य से प्राणवती होकर आप शिक्षा का प्रसार करें। आपकी प्रजा में एक भी जन निरक्षर और अशिक्षित ने रहे। आप अपने पद पर स्थिर होकर बैठे और शिक्षा के लिए समर्पित हो  जाएँ।

तभी घोषणा होती है कि प्रधानमन्त्री ने अमुक विदुषी को शिक्षामन्त्री का पद सौंपा है। उस विदुषी के नाम के जयकारे । उठते हैं। न्यायाधीश उससे शिक्षा क्षेत्र में समर्पित रहने की तथा देश के प्रति सजग और सच्ची रहने की प्रतिज्ञा ग्रहण करवाते हैं। पुष्पमालाओं से उसका स्वागत होता है। शिक्षामन्त्री पद उस विदुषी से धन्य हो जाता है। विदुषी तुरन्त शिक्षा में क्रान्ति करने के लिए जुट जाती है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. परमे स्थाने तिष्ठतांति परमेष्ठी प्रधानमन्त्री।

२. प्राणो वै अङ्गिराः, तद्वती यथा स्यात् तथा।

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

सब हष्टपुष्ट नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः अथवा देवाः । देवता रुद्रः ।।छन्दः आर्षी जगती ।

इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मृतीः। यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामेऽअस्मिन्ननातुरम् ॥

-यजु० १६ । ४८

( तवसे ) बल और वृद्धि देनेवाले, (कपर्दिने ) वायुरोग को दूर करनेवाले, (क्षयद्वीराय) वीरों को निवास देनेवाले (रुद्राय ) रोगनाशक वैद्य के लिए (इमाःमतीः) इन प्रशस्तियों तथा प्रज्ञाओं को (प्रभरामहे ) हम प्रकृष्टरूप से लाते हैं, ( यथा) जिससे ( द्विपदे चतुष्पदे) द्विपाद् मनुष्यों और चतुष्पात् पशुओं के लिए (शम् असत् ) सुख होवे। ( अस्मिन् ग्रामे ) इस ग्राम में ( विश्वं ) सब कोई ( पुष्टं) हृष्टपुष्ट और (अनातुरं) नीरोग ( असत् ) होवे।। |

वेद में रुद्र कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-परमेश्वर, प्राण, सेनापति, आचार्य आदि। इसका एक अर्थ वैद्यराज भी है। वेद में रुद्र को ‘भिषजों में भिषक्तम’ कहा गया है। पीड़ादायक रोगों को दूर करने के कारण वैद्य को रुद्र कहते हैं। मन्त्र में रुद्र के तीन विशेषण दिये गये हैं। प्रथम ‘तवसे’ विशेषण गतिवृद्धिहिंसार्थक णिजन्त ‘तु’ धातु से असुन् प्रत्यय करने पर चतुर्थी विभक्ति प्रथम पुरुष का रूप है। वैद्य रोगशय्या पर पड़े। रोगी को चलने-फिरने योग्य करता है, उसकी वृद्धि-पुष्टि करता है, उसके रोग-कीटाणुओं को नष्ट करता है। निघण्टु में ‘तवस्’ शब्द बलवाचक है। वैद्य चिकित्सा-शक्ति से सम्पन्न होता है, निर्बल रोगी को बल देता है। दूसरा विशेषण ‘कपर्दी’ है। अधिकतर रोग वायुविकार से होते हैं। वायुरोग को निस्सारण करने के कारण वैद्य को ‘कपर्दी’ कहते हैं । कपर्द जटाजूट को भी कहते हैं, जटाजूट को धारण करने के कारण वैद्य ‘कपर्दी’ कहलाता है। जटाजूट धारण करने से उसके मस्तिष्क में विशेष शक्ति आती है, जिसका उपयोग वह मानसिक रोगों के उपचार में कर सकता है । कपर्द समुद्र से निकलनेवाले ‘कौड़ों को भी कहते हैं, उनका उपयोग भी चिकित्सा में होता है। तीसरा विशेषण ‘ क्षयद्वीर’ है, जिसका अर्थ है, वीरों को निवास देनेवाला । वीरों में प्रजा के वीर पुरुष और वीराङ्गनाएँ भी आ जाती हैं और सेना के वीर योद्धा भी। वैद्य प्रजा के वीर-वीराङ्गनाओं की तथा युद्ध में आहत योद्धाओं की चिकित्सा करके उन्हें जीवन प्रदान करता है। इन विशेषणों से युक्त वैद्यराज के प्रति हम प्रज्ञाओं (मतियों) को लाते हैं, अर्थात् उसे यथोचित प्रशिक्षण देते हैं, जिससे वह गम्भीर से गम्भीर रोगी की सफल चिकित्सा कर सके। वह द्विपाद् मनुष्य की भी चिकित्सा करे और गाय आदि पशुओं की भी, जिससे हमारे ग्राम या नगर में सभी हृष्टपुष्ट और नीरोग रहें। मति का अर्थ प्रशस्ति भी होता है, हम उक्त गुणों से युक्त वैद्यराज की प्रशस्तियाँ भी करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. भिषक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि । ऋ० २.३३.४

२. रुतः रोगान् द्रावयतीति रुद्रो भिषक् ।

३. निघं० २.९

४. पर्द कुत्सिते शब्दे, भ्वादिः। कं सुखं यथा स्यात् तथा पर्दयतिवायुदोष नि:सारयतीति कपर्दी ।।

५. कपर्दो जटाजूटो ऽस्यास्तीति कपर्दी।

६. कपर्दः ‘कौड़ा’ इति ख्यातः समुद्रजकोटाङ्गविशेषः । तद्वान् कपर्दी,चिकित्सायां तदुपयोगकर्ता इत्यर्थः ।।

७. क्षयन्तो निवसन्तो वीरा येन स क्षयद्वीरः, क्षि निवासगत्योः

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अप्रतिरथः । देवता अग्निः । छन्द निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

यस्य कुर्मो गृहे हुविस्तमग्ने वर्द्धय त्वम्। तस्मै देवाऽअधि ब्रुवन्न्यं च ब्रह्मणस्पतिः

-यजु० १७।५२

( यस्य गृहे) जिसके घर में ( हविः कुर्मः ) हम अग्निहोत्र की हवि देते हैं, ( तम् ) उसे (अग्ने) हे जगदीश्वर व यज्ञाग्नि! ( त्वं वर्धय ) आप बढ़ाओ, उन्नत करो। ( तस्मै ) उसके लिए ( देवाः अधिब्रुवन्) विद्वान् लोग उपदेश और आशीर्वाद दें, (अयंचब्रह्मणस्पतिः२ ) और यह वेदज्ञ संन्यासी भी [उसे उपदेश व आशीर्वाद दे] ।

हमने पारिवारिक यज्ञ-सत्सङ्ग की योजना बना कर उसे क्रियात्मक रूप दे दिया है। हमारे समाज के एक-सौ सदस्य हैं। प्रत्येक सदस्य के घर पर बारी-बारी से प्रतिदिन पारिवारिक सत्सङ्ग लगता है। सन्ध्या, अग्निहोत्र एवं ईश्वर- भक्ति के मधुर भजनों के उपरान्त किन्हीं विद्वान् का सारगर्भित उपदेश होता है। जिस परिवार में सत्सङ्ग का कार्यक्रम होता है, उसके गृहपति एवं घर के अन्य सदस्यों को अन्य परिवारों का अपने घर पर स्वागत करते हुए अपार हर्ष का अनुभव होता है, वे स्वयं को धन्य मानते हैं। बड़ा ही मधुर वातावरण होता है । पुरुष, माताएँ, बहनें, युवतियाँ जब भावविभोर होकर गाते हैं, ‘यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए’ तब अपूर्व समा बंध जाता है।

हे अग्नि! हे अग्रणी प्रभु ! हे तेजोमय जगदीश्वर ! हे यज्ञाग्नि! जिस गृहपति के घर में, जिसके परिवार में हम  सत्सङ्ग लगाते हैं, गोघृत एवं सुगन्धित हवन-सामग्री की यज्ञकुण्ड में हवि देते हैं, उसे तुम बढ़ाओ, स्वास्थ्य से बढ़ाओ, सुगन्ध से बढ़ाओ, दीर्घायुष्य से बढ़ाओ, तेजस्विती से बढ़ाओ, बल-वीर्य से बढ़ाओ, इन्द्रिय-सामर्थ्य से बढ़ाओ, मनोबल और आत्मबल से बढ़ाओ, विद्या से बढ़ाओ, सदाचार से बढ़ाओ, आनन्द से बढ़ाओ। केवल गृहपति को ही नहीं, उसके सारे परिवार को बढ़ाओ। प्रत्येक ‘स्वाहा’ की ध्वनि एवं आहुति के साथ ऊँचा उठाओ।

जिसके घर में हम पारिवारिक सत्सङ्ग लगाते हैं, उसे विद्वज्जन उपदेश दें, आशीर्वाद और आशीष दें। अपने आशीषों से उसके जीवन को सत्य, शिव, सुन्दर बना दें। उसके जीवन को अग्नि के समान पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं तेजोमय बना दें। उसके जीवन को अनुकरणीय एवं यशस्वी बना दें। आओ सब मिलकर आशीर्वाद दें ‘‘सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः”, “ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति।” सब यज्ञशेष का प्रसाद लेकर विदा हों, प्रभु का प्रसाद लेकर विदा हों, सत्सङ्गी परिवार पर अपना प्रेम बरसा कर विदा हों। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

पादटिप्पणियाँ

१. वर्द्धया=वर्द्धय। छान्दस दीर्घ ।

२. ब्रह्मणः वेदस्य पति: रक्षक: विद्वान् संन्यासी।

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः। देवता इन्द्रः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

वाजस्य मा प्रसवऽउद्ग्राभेणोदंग्रभीत् अधा सपत्नानिन्द्रों में निग्राभेणार्ध२ ॥ऽअकः

-यजु० १७।६३

( वाजस्य प्रसवः ) बल, विज्ञान आदि के उद्भव ने ( भा) मुझे (उद्ग्राभेण ) उद्ग्राभ द्वारा, उत्साहवर्धन द्वारा (उदग्रभीत् ) ऊँचा उठा दिया है। (अध) और ( इन्द्रः ) इन्द्र ने ( मे सपत्नान्) मेरे आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को (निग्राभेण ) निरुत्साह एवं धिक्कार के द्वारा ( अधरान् अकः ) नीचा कर दिया है। |

हमारे आत्मा के पास दो हथियार हैं, एक उद्गाभ और दूसरा निग्राभ। उत् तथा नि पूर्वक ग्रहणार्थक ग्रह धातु से क्रमशः उद्गाह तथा निग्राह शब्द बनते हैं। वेद में ग्रह धातु के ह को भरे होकर उग्राभ और निग्राभ हो जाते हैं। उद्ग्राभ का अर्थ है उत्साहवर्धन, निग्राभ उससे उल्टा है अर्थात् निरुत्साहीकरण। उद्ग्राभ में विजयार्थ प्रेरित करना, बढ़ावा देना, साधुवाद देना, उद्बोधन देना, उत्साहित करना, नीचे गिरते को सहारा देकर ऊपर उठाना, आगे बढ़ाना आदि अर्थ समाविष्ट हैं। इसके विपरीत निग्राह में हतोत्साहित करना, धिक्कार देना, अपमानित करना, पराजित करना, नीचे धकेलना, नीचे पटकी देना, धक्का देकर निकालना आदि अर्थ आते हैं।

आज बड़े हर्ष का विषय है कि मेरा आत्मा सजग और कर्मठ होकर अपनी उद्ग्राभ और निग्राभ नामक दोनों शक्तियों का उपयोग करने लगा है। आत्मबल के उद्भव ने अपनी उद्ग्राभ नामक शक्ति से मेरी सात्त्विक वृत्तियों को जगा दिया है, मेरी महत्त्वाकांक्षा को मुखरित कर दिया है, मेरे अहिंसा सत्य अस्तेय-ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि गुणों को चोटी पर चढ़ा दिया है, मेरी अभय, सत्त्वसंशुद्धि, आर्जव आदि विशेषताओं को बढ़ा दिया है, मेरे धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष नामक पुरुषार्थ चतुष्टय को बल दे दिया है, मुझ गिरते को सहारा देकर ऊपर उठा दिया है। साथ ही मेरे आत्मा ने अपनी निग्राह नामक दूसरी शक्ति का प्रयोग करके काम, क्रोध, लोभ आदि रिपुओं को गलहत्था दे दिया है, अविद्या, अधर्म, अनाचार, वैर, विरोध, कुसंगति, पशुता, अकर्मण्यता आदि को धिक्कृत कर दिया है, मेरी दुर्बलताओं को निहत कर दिया है, मेरी पापवृत्तियों को पराजित कर दिया है।

आज मैं विजयी बनकर, सिर ऊँचा करके खड़ा हुआ हूँ। मैं धरातल से ऊँचा उठकर अन्तरिक्ष में पहुँच गया हूँ, मेरी गणना शिखरारुढ़ लोगों में होने लगी है। सद्गुणों का सागर मेरे अन्दर उमड़ने लगा है। उच्च आकांक्षाएँ हिलोरें लेने लगी हैं। पाशविकता, दुर्मति, अहंकार, दैन्य आदि वृत्तियां पलायन कर गयी हैं। आन्तरिक और बाह्य शत्रु निष्कासित हो गये हैं। हे मेरे आत्मन्! मुझे ऐसा ही बनाये रखो, मुझे सबका शिरोमणि बना दो।

पादटिप्पणियाँ

१. अधा=अध। छान्दस दीर्घ ।

२. ग्रहोर्भश्छन्दसि । पा० ३.१.८४ पर वार्तिक

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार 

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

प्राचीमनु प्रदिशं प्रेहि विद्वानुग्नेरग्ने पुरोऽअग्निर्भवेह। विश्वाऽआशा दीद्यान विभाह्यूर्जी नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥

-यजु० १७।६६

(अग्ने ) हे अग्रगामी मानव ! (विद्वान्) विद्वान् तू (प्राची प्रदिशम् अनु ) आगे बढ़ने की दिशा में (प्रेहि ) बढ़ता चल। (इह ) इस संसार में (अग्नेः पुरः अग्निः भव ) नायकों केभी आगे जानेवाला नायक बन। ( विश्वाः आशाः ) सब दिशाओं को ( दीद्यानः१ ) प्रकाशित करता हुआ (वि भाहि) विशेषरूप से चमक, यशस्वी हो। (नःद्विपदेचतुष्पदे ) हमारे द्विपाद् और चतुष्पाद् के लिए ( ऊ धेहि ) अन्न और बल प्रदान कर।।

हे मानव! क्या तू जहाँ खड़ा है, वहीं खड़ा रहेगा? देख, जो तुझसे पीछे थे, वे बहुत आगे जा चुके हैं। जो तेरे साथ खड़े थे, उन्होंने मंजिल पार कर ली है। जो भूमि पर खड़े थे, वे अन्तरिक्ष में पहुंच गये हैं। तुझे क्या आगे बढ़ने की और ऊपर उठने की साध नहीं हैं ? क्या दूसरों को आगे दौड़ लगाते देख कर तेरा हृदय उत्साहित नहीं होता? क्या दूसरों को ऊपर उठते देख कर तेरा हृदय तरंगित नहीं होता?

हे नर ! तू विद्वान् बन, शास्त्रों का वैदुष्य प्राप्त कर, अनुभवी लोगों के साथ मिल-जुल कर अनुभव प्राप्त कर। फिर वैदुष्य तथा अपने और दूसरों के अनुभव के आधार पर जो दिशा तुझे सही प्रतीत हो, उस दिशा में कदम बढ़ाता चल, खाई-खन्दकों को लांघता चल, आकाश में उड़ता चल, यजुर्वेद ज्योति आलसियों को पीछे छोड़ता चल, या उन्हें भी उत्साहित करके अपने साथ लेता चल। देख, मार्ग बहुत लम्बा है, मंजिल बहुत दूर है। थकने का नाम मत ले, विश्राम की बात मत कर। चलता चल, उछलता चल, उड़ता चल, लक्ष्य पर पहुँचकर ही दम ले।।

हे वीर! तू नायक बन, नायकों का भी नायक बन। जब तू आगे बढ़ जाएगा, उन्नत हो जाएगा, तब जन-साधारण तुझे स्वयं अपना नायक बनाने में गौरव अनुभव करेंगे। नायक लोग भी तुझे अपना नेता बनायेंगे। नेताओं का नेता बनकर तू अपने राष्ट्र की पताका विश्व के गगन में फहरा। हे जननायक! तू सब दिशाओं का अंधेरा दूर कर, सब दिशाओं को विद्या और धर्म के प्रकाश से प्रकाशित कर। सब दिशाओं के वासियों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की जगमगाहट से जगमग कर। हमारे द्विपात्, चतुष्पात् सबको अन्न दे, जीवन दे, बल दे, प्राण दे। तब तू स्वयं भी प्रकाशित होगा, तेरे यश की दीप्ति सर्वत्र प्रसृत होगी । तेरा अभिनन्दन होगा, तेरा जयगान होगा, तेरी आरती उतरेगी।

पादटिप्पणी

१. दीदयत=ज्वलति । निर्घ० १.१६

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार 

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः वामदेवः । देवता यज्ञपुरुषः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नाचक्षे घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि हिरण्ययों वेतसो मध्यऽआसाम्॥

-यजु० १७।९३

(एताः ) ये वेद की ऋचाएँ ( अर्षन्ति ) निकल रही हैं। ( हृद्यात् समुद्रात् ) हृदयाकाश से (शतव्रजाः ) सैंकड़ों की संख्या में, जो (रिपुणा ) यज्ञ के शत्रु द्वारा ( न अवचक्षे ) रोकने योग्य नहीं हैं। इसके अतिरिक्त (घृतस्थे धाराः) घी को धाराओं को (अभिचाकशीमि) देख रहा हूँ। ( आसां मध्ये ) इनके मध्य में ( हिरण्ययः वेतसः ) अग्निरूप सुनहरा वेतस है।

मैं वेद की ऋचाओं के पाठपूर्वक यज्ञ कर रहा हूँ। वेद की ऋचाएँ सैंकड़ों की संख्या में मेरे हृदयाकाश से निकल रही हैं। मैं इनका पाठ करता हुआ भावविभोर हो रहा हूँ, आनन्दमग्न हो रहा हूँ। ये ऋचाएँ किसी के रोके रुक नहीं सकती हैं। न आन्तरिक शत्रु यज्ञविरोधी तर्क इन्हें रोक सकते हैं, न बाह्य शत्रु यज्ञविरोधी लोग इन्हें रोक सकते हैं। जैसे अन्य अच्छे कार्यों का विरोध कुछ लोगों की ओर से होता है, ऐसे ही समाज में कुछ यज्ञविरोधी लोग भी होते हैं। वे कहते हैं कि जितने घी तथा अन्य पदार्थ अग्नि में भस्म करके नष्ट किये जा रहे हैं, उतने घी तथा अन्य गोला, मिश्री, छुहारे, बादाम, मुनक्का, किशमिश आदि गरीबों में बाँट दिये जाते, तो कितना कल्याण होता। वे यज्ञ के शत्रु पर्यावरणशुद्धि को कोई महत्त्व नहीं देते। यज्ञ से जल-वायु की शुद्धि होकर और  वृष्टि होकर जो मानवकल्याण होता है, जितना द्रव्य हम अग्नि में जलाते हैं, उससे अधिक जनहित हो जाता है, उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। लोग कितना ही यज्ञ का विरोध करं, मेरी ऋचाओं का पाठ, यज्ञवेदि में अग्नि का प्रज्वलन और हविर्द्रव्यों की आहुतियाँ रुकेंगी नहीं। यज्ञ का जितना विरोध होगा, उतना ही अधिक उसका प्रचलन होगा। ऋचाओं के पाठ के साथ-साथ घृत की धारें भी अग्नि में पड़ रही हैं। प्रत्येक ‘स्वाहा’ के साथ घृताहुतियाँ पड़ती हैं, अन्य हविर्द्रव्य आहुत होते हैं, और प्रत्येक आहुति के साथ मध्य में अग्नि की ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। यह दृश्य कितना मनोमुग्धकारी है। यह हिरण्यय वेतस की प्रभा, यह सुनहरी अग्निज्वाला हमें भी निमन्त्रण दे रही है कि तुम भी अग्नि बनकर ऊध्र्वारोहण करो, बाह्य अग्निज्वाला के साथ अपने अन्दर की अग्निज्वाला भी जलाओ और ऊध्र्वारोहण करते हुए पृथिवी से अन्तरिक्ष में, अन्तरिक्ष से द्युलोक में और द्युलोक से स्वर्लोक में पहुँच जाओ। ये लोक उन्नति के स्तरों के सूचक हैं। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् ये सात लोक उन्नति के सात सोपान हैं। एक से दूसरे स्तर में, दूसरे से तीसरे स्तर में, इसी प्रकार उपरले-उपरले स्तर में जाते हुए हम भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति करते रहें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अर्षन्ति, ऋषी गतौ। (अर्षन्ति) गच्छन्ति निस्सरन्ति-द० ।

२. समुद्र=अन्तरिक्ष, निघं० १.३

३. अव-चक्ष-एश् प्रत्यय। ‘अवचक्षे च’ पा० ३.४.१५

४. भिचाकशीमि=पश्यामि ।

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार  

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार 

षयः देवा: । देवता धान्यदः आत्मा। छन्दः भुरिग् अतिशक्चरी।

व्रीहर्यश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमश्च मे सूराश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८ । १२ |

( व्रीहयः च मे ) मेरे धान, ( यवः च मे ) और मेरे जो, ( माषाः च मे ) और मेरे उड़द, (तिलाः च मे ) और मेरे तिल, ( मुगाः च मे ) और मेरे मुँग, ( खल्वाः च मे ) और मेरे चने, ( प्रियङ्गवः च मे ) और मेरे अँगुनी चावल, ( अणवः च मे ) और मेरे किनकी चावल, ( श्यामाकाः च मे ) और मेरे साँवक चावल, (नीवाराः च मे ) और मेरे पसाई के चावल, जो बिना बोये उत्पन्न होते हैं, ( गोधूमाः च मे ) और मेरे गेहूँ (मसूराः च मे ) और मेरे मसूर ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से प्रचुर तथा पुष्ट होवें।

मैं चाहता हूँ कि मेरे देश में धान, जौ, उड़द, तिल, मूंग, चने, कँगुनी चावल, किनकी चावल, सांवक चावल, जङ्गली धान, गेहूँ और मसूर इन धान्यों की खेती प्रचुरता के साथ हो। इन धान्यों में कुल मिलाकर खाद्योपयोगी सब तत्त्व आ जाते हैं। इनके लिए हमें दूसरे देशों पर निर्भर न रहना पड़े। ये सब अन्न यज्ञ द्वारा बहुत मात्रा में और पोषक गुणवाले होकर उपजें । यज्ञ से यहाँ एक तो कृषियज्ञ अभिप्रेत है और दूसरा अग्निहोत्र । कृषियज्ञ में उपजाऊ भूमि, अच्छी जुताई, अच्छा । खाद, अच्छा बीज, उसे उपयुक्त समय पर बोना, समय पर सिंचाई, समय पर फसल काटना, भूसी अलग करना, खलिहानों में भरना, बिक्री करना आदि सब बातें अभिप्रेत हैं। किसी भी बात में लापरवाही होने पर उपज पर प्रभाव पड़ सकता है। खाद रासायनिक खादों की अपेक्षा गोमूत्र और गाय के गोबर का अच्छा रहता है। ये कृषियज्ञसम्बन्धी सावधानियाँ हैं। अग्निहोत्र का प्रयोग इस रूप में किया जा सकता है कि गोघृत तथा धान, जौ, तिल और गूगल की सामग्री से एवं आम और पीपल दोनों की समिधाओं से यज्ञ करके उसकी राख खेतों में बखेरी जाए।

‘यज्ञेन कल्पन्ताम्’ का एक अर्थ यह भी है कि ये सब अन्न भोग-यज्ञ द्वारा आरोग्य प्रदान करने में समर्थ हों। यज्ञ शब्द देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से बनता है। जिस क्रिया में ये तीनों तत्त्व सन्तुलनपूर्वक विद्यमान हैं, वह ‘यज्ञ’ है। अन्न के भोग में प्रथम तो दाता परमेश्वर की पूजा है, फिर अपने उदर के साथ अन्न का सङ्गतिकरण है, फिर अन्न का भक्षण अकेले नहीं, दानपूर्वक होता है, क्योंकि स्वयं खाने के अतिरिक्त अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ भी करना होता है। भोजन में अन्नों के चयन में सन्तुलन भी होना चाहिए कि उसमें स्टार्च, प्रोटीन, वसा, चीनी, तन्तु आदि सब ठीक अनुपात में रहें। इस प्रकार भोग करेंगे तो उससे हमारा मन, मस्तिष्क और शरीर स्वस्थ होंगे और परोपकार भी होगा।

आओ, यज्ञ द्वारा ही हम इन तथा अन्य उपयोगी अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करें और यज्ञ द्वारा ही इनका भोग करें।

पादटिप्पणी

१. कल्पन्ताम्-क्लुपु सामर्थ्य, लोट् लकार।

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार 

चारों वर्णों में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार

चारों वर्णों  में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः शुन:शेप। देवता बृहस्पतिः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

रुचे नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचराजसु नस्कृधि। रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् ॥

-यजु० १८।४८ |

हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमेश्वर ! आप (नः ब्राह्मणेषु ) हमारे ब्राह्मणों में ( रुचं धेहि ) दीप्ति और प्रेम स्थापित करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (नःराजस ) हमारे क्षत्रियों में ( कृधि ) करो। ( रुचं ) दीप्ति और प्रेम (विश्येषु ) वैश्यों में और (शूद्रेषु ) शूद्रों में [उत्पन्न करो]। ( मयि ) मेरे अन्दर भी (रुचा ) प्रीति के साथ (रुचं ) प्रेम को ( धेहि) स्थापित करो।

हे विशाल ब्रह्माण्ड के अधिपति बृहस्पति परमात्मन् ! हे विशाल वाङ्मय के स्वामी बृहस्पति आचार्य ! हमारा समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्षों में विभक्त है। आप हमारे ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। ब्राह्मणत्व कहलाता है। ब्रह्मविद्या, वेदविद्या, अन्य विविध विद्या तथा आस्तिकता में नैपुण्य । इसकी प्रभा, इसकी चमक हमारे ब्राह्मणों में हो। ‘रुच’ धातु के अर्थ दीप्ति और प्रीति होते हैं, अतः ‘रुच’ का दूसरा अर्थ प्रेम भी ग्राह्य है। ब्राह्मणजन परस्पर प्रीतिभाव रखें और दूसरे वर्षों के साथ भी प्रेम का व्यवहार करें। हमारे राजाओं में, क्षत्रियों में क्षात्र धर्म की दीप्ति और प्रेम उत्पन्न कीजिए। क्षात्रवल की छुति उनमें ऐसी हो कि वे प्रजा की रक्षा में तथा शत्रु के उच्छेद में सदा तत्पर रहें। पारस्परिक प्रीति भी रखें और ब्राह्मण, वैश्य तथा  शूद्र के साथ भी प्रेम रखें। हमारे वैश्यों में भी वैश्य धर्म की दीप्ति तथा परस्पर और अन्य वर्गों के साथ प्रेमभाव रहे। वैश्य-धर्म है कृषि, व्यापार और पशुपालन । शूद्रों में भी अपने सेवाधर्म की चमक और पारस्परिक प्रेमभाव उत्पन्न कीजिए। आप मेरे अन्दर भी दीप्ति के साथ प्रेमभाव प्रकट कीजिए। इस प्रकार सम्पूर्ण समाज एक-दूसरे के प्रति प्रेम से आबद्ध और अपने-अपने कर्तव्यपालन के प्रति जागरूक रहे, तो समाज और राष्ट्र समुन्नत और प्रशस्त कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे।

हे परमेश तथा हे आचार्यवर ! आप चारों वर्गों को दूध पानी की तरह परस्पर मैत्री और प्रीतिभाव से समन्वित करके प्रतिष्ठास्पद कीजिए, यही हमारी प्रार्थना है ।।

पाद-टिप्पणी

१. रुच दीप्तौं अभिप्रीतौ च, भ्वादिः । ‘रुचं प्रेम’-द० ।

चारों वर्णों  में दीप्ति और परस्परिक प्रेम-रामनाथ विद्यालंकार  

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः विश्वकर्मा। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

यत्र धाराऽअनपेता मधोघृतस्य च याः। तदग्निर्वैश्वकर्मणः स्वर्देवेषु नो दधत् ॥

 -यजु० १८ । ६५

( यत्र) जहाँ ( मधोः ) मधु की (घृतस्य च ) और घृत की (धाराः) धाराएँ ( अनपेताः ) उपस्थित रहती हैं ( तत् स्वः ) वह स्वर्ग अर्थात् सुखी जीवन ( वैश्वकर्मणः१ अग्निः ) विश्वकर्मा परमेश्वर द्वारा रचित यज्ञाग्नि ( देवेषु ) विद्वानों केमध्य में (नः दधत् ) हमें प्राप्त कराये।

क्या तुम पूछते हो कि यज्ञाग्नि प्रज्वलित करके उसमें घृत, हवन-सामग्री, पक्वान्न, मेवा आदि की आहुति डालने से क्या फल सिद्ध होता है ? श्रुति कहती है कि इस अग्निहोत्र से स्वर्ग प्राप्त होता है। वह स्वर्ग कहीं आकाश में नहीं है, यहाँ पृथिवी पर ही है। हम यज्ञकुण्ड में मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्न्याधान और अग्निप्रदीपन करते हैं, समिदाधान, पञ्च घृताहुतियाँ, जलसेचन, आघार आज्याहुतियाँ, आज्याभागाहुतियाँ, प्रधान होम की आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति करते हैं। यह तो दैनिक अग्निहोत्र का विधि-विधान है। अन्य कोई यज्ञ करते हैं, तो उसके लिए निर्धारित विधियाँ करनी होती हैं। सभी यज्ञों में यज्ञ-समिधा पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम, विल्व आदि की ही प्रयोग में लाते हैं। घृत के अतिरिक्त हवन-सामग्री में चार प्रकार के होम-द्रव्यों का मिश्रण होता है-”प्रथम सुगन्धृित कस्तूरी, केशर, अगर, तगर, श्वेत चन्दन,  इलायची, जायफल, जावित्री आदि। द्वितीय पुष्टिकारक घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि। तीसरे मिष्ट शक्कर, सहत, छुवारे, दाख आदि। चौथे रोगनाशक सोमलता अर्थात् गिलोय आदि ओषधियाँ।”

इन यज्ञों से पर्यावरण शुद्ध होता है, वायु जल आदि सुगन्धित होते हैं, रोग नष्ट होते हैं, शुद्ध जल की वृष्टि होती है। ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना होती है। सबके मिलकर बैठने से सङ्गठन सुदृढ़ होता है। दान की भावना जागृत होती है। प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है कि विश्वकर्मा परमेश्वर द्वारा रचित यज्ञाग्नि में होम करने से हमें वह स्वर्ग प्राप्त होता है, जिसमें मधु और घृत की धाराएँ बहती हैं। सुखी जीवन ही स्वर्ग है। यज्ञ करने से इस जन्म में भी ‘स्वर्ग’ अर्थात् सुखी जीवन प्राप्त होता है और इहलोकप्रयाण के बाद भी मनुष्य जन्म मिलता है और उसमें मधु, घृत आदि की सम्पदा से युक्त सुखी जीवन होता है।

आओ, हम भी यज्ञ करके मधु और घृत की धाराओंवाला स्वर्ग प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वकर्मणः परमेश्वराज्जातः वैश्वकर्मणः ।

२. डुधाञ् धारणपोषणयोः, लेट् लकार ।

स्वर्ग जहाँ मधु और घृत की धारा बहती हैं-रामनाथ विद्यालंकार